महादेवी वर्मा के काव्य में विरह और वेदना

हिंदी साहित्य में महादेवी वर्मा का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। महादेवी जी छायावाद के चार स्तंभों में से एक है। यह विरह,वेदना और रहस्यात्मकता की अमर सृजक  है । इन्होंने मानव हृदय की अनुभूतियों और सूक्ष्मतम भावों को बहुत संवेदनशील एवं सफल अभिव्यक्ति प्रदान की है और यही तत्व उनकी कृतित्व को अन्यतम बनता है। बहुमुखी प्रतिभा की धनी महादेवी वर्मा ने काव्य के अतिरिक्त निबंध ,रेखाचित्र ,संस्मरण, पत्रकारिता आदि में भी अपना विशिष्ट योगदान दिया है।

Dec 2, 2024 - 17:46
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महादेवी वर्मा के काव्य में विरह और वेदना
Mahadevi Verma
हिंदी साहित्य में महादेवी वर्मा का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। महादेवी जी छायावाद के चार स्तंभों में से एक है। यह विरह,वेदना और रहस्यात्मकता की अमर सृजक  है । इन्होंने व मानहृदय की अनुभूतियों और सूक्ष्मतम भावों को बहुत संवेदनशील एवं सफल अभिव्यक्ति प्रदान की है और यही तत्व उनकी कृतित्व को अन्यतम बनता है। बहुमुखी प्रतिभा की धनी महादेवी वर्मा ने काव्य के अतिरिक्त निबंध ,रेखाचित्र ,संस्मरण, पत्रकारिता आदि में भी अपना विशिष्ट योगदान दिया है। इन्होंने वेदना के साथ जो तादात्म्य स्थापित किया है ,वही इनका अपना पृथक वैशिष्ट्य बन गया है। इन्होंने १९३० में `निहार' काव्य संग्रह की रचना कर महती प्रसिद्धि प्राप्त की थी। तत्पश्चात १९३४ में `नीरजा'१९३६ में `सांध्य गीत' १९४० में `दीपशिखा' जैसे काव्य संकलनों में गीतों के माध्यम से आध्यात्मिक विरह वेदना एवं रहस्य चेतना को बहुत प्रखर एवं मुखर अभिव्यक्ति दी । बाद में `यामा' में उनके सभी संकलन संग्रहित किए गए। जिस पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। महादेवी जी को १९५६ में पद्म विभूषण की मानक उपाधि से भी सम्मानित किया गया था। अलौकिक सत्ता की ओर उन्मुख होने वाली वेदना की अन्यतम प्रस्तुति उनकी विशेषता है और इनका संपूर्ण सृजन इसी तत्व पर आधारित है। इनका प्रेम लौकिक ना होकर सात्विक अलौकिक एवं उदात्त है।
काव्य एवं वेदना:- 
चिरकाल से ही वेदना और काव्य का प्रगाढ़ संबंध रहा है। वेदना जीवन का ही नहीं साहित्य का भी अनिवार्य तत्व रही है। पीड़ा की पराकाष्ठा ही साहित्य सृजन का मूल आधार रही है। पंत जी के शब्दों में कहें तो-
`वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान 
उमड़ कर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान'।
इस प्रकार वेदना ही अधिकतम कवियों की कविता का प्राण रही है।
महादेवी वर्मा के काव्य में विरह वेदना:-
छायावाद के सभी कवियों में अपने आलौकिक प्रेम की प्रति असीम वेदना है किंतु महादेवी वर्मा का तो संपूर्ण काव्य  ही उनकी वेदना का मार्मिक चित्रण है। विरह की यही पीड़ा महादेवी के सृजन का मूल तत्व और उनके काव्य की आत्मा है। लेखिका की वेदना से उद्भूत सृजन ही हिंदी साहित्य की अत्यंत उत्कृष्ट एवं अनुपम संपदा बन गई है। महादेवी वर्मा  के अंतर मन की छटपटाहट, उनकी पीड़ा, नारी सुलभ कोमलता, विरह-व्यथा की गंभीर,संवेदनशील अभिव्यक्ति ही उनके काव्य का प्रमुख स्रोत है। इनका संपूर्ण व्यक्तित्व ही करुणा एवं भावुकता से ओतप्रोत है। इसी कारण इनका काव्य, वेदना की सजीव अभिव्यक्ति बन पाया है। महादेवीजी स्वयं अपना परिचय इस प्रकार देती हैं।-
 'मैं नीर भरी दुख की बदली 
उमड़ी कल थी मिट आज चली'
 एवं
‘मिलन का मत नाम लो, मैं विरह में चिर हूं !'
महादेवी का काव्य संसार वेदना का संसार है जिसमें मानवीय एवं आध्यात्मिक दोनों आधार पर वेदना का निरूपण किया गया है। जहां एक और मानवता व विश्व कल्याण का भाव है वहीं उस अनंत के चिर वियोग से उद्भूत व्यथा की गूंज भी है। अज्ञात प्रियतम के लिए वेदना ही उनके हृदय एवं उनके काव्य का केंद्र है। उनके गीत उदात्त प्रेम के गीत है। उनका प्रियतम  ब्रह्म है और विरह की पीड़ा उनके जीवन की साधना। इसीलिए वेदना उनके लिए महत्वपूर्ण भी है और सुखद भी। उनका प्रेम दिव्य प्रेम है और उनके गीत माधुर्य से परिपूर्ण सात्विक और अलौकिक है।
अपनी काव्य में चिर विरह वेदना की मूल चेतना के कारण इन्हें आधुनिक मीरा भी कहा जाता है। विरह का स्वर अनेक रूपों में उनके काव्य में मुखर हुआ है। शांतिप्रिय द्विवेदी तो इन्हें `आधुनिक मीरा की काव्य आत्मा' कहा था।
इनकी आत्मा किसी परोक्ष प्रियतम के साक्षात्कार हेतु व्याकुल रहती है। यह वेदना असह्य है किंतु फिर भी उन्हें प्रिय है इनका प्रेम- पथ अपरिचित अवश्य है पर वह निराश नहीं है वे तो अपने पथ पर अडिग रहकर शालीनता से आगे बढ़ती जाती हैं। परिणामत: वैयक्तिक प्रेम उदात्त होकर समष्टि प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। उनका संपूर्ण जीवन ही पीड़ा से परिपूर्ण है, फिर भी वह पीड़ा को हृदय से लगाए हैं। 
 'चिंता क्या है रे निर्मम! बुझ जाए दीपक मेरा।
 हो जाएगा तेरा ही, पीड़ा का राज्य अंधेरा।'
पीड़ा उन्हें  प्रिय है क्योंकि, इससे उनके जीवन की साधना पूर्ण होती है। यही साधना तो आनंद की चरम अवस्था तक ले जाने का साधन बनती है। संभवत: इसीलिए वह अमरों के लोक को ठुकराकर स्वयं का मिटने का अधिकार सुरक्षित रखना चाहती है।
`रहने दो हे देव! अरे यह, मेरा मिटाने का अधिकार।'
वह प्रियतम की आतुरता से प्रतीक्षा है। 
अपने प्रिय के पथ को अपनी आत्मा रूपी दीपक से निरंतर प्रज्वलित रखती हैं - `मधुर मधुर मेरे दीपक जल।'
अपनी असीम वेदना में महादेवी इतनी व्यथित है कि रो-रोकर उनकी आंखें ही रिक्त हो चली है। उनकी विरह की है भाव प्रवण अभिव्यक्ति देखते ही बनती है-
`उस सोने से सपना को देखे, कितने युग बीते। 
आंखों के कोष हुए हैं मोती बरसा कर रीते'।
अपने आराध्य की विरह में तड़पती हुई महादेवी प्रिय का आवाह्न बड़े ही मार्मिक ढंग से नारी सुलभ अभिव्यक्ति के साथ करती है। उनकी वेदना सहज अनुभूति का प्रमाण है। इन्होंने अपनी निश्छल प्रेम वेदना का सहज निरूपण किया है। इसमें कहीं भी कटुता व द्वेष नहीं है। इनकी नारी सुलभ कोमल अभिव्यक्ति देखते ही बनती है -
`जो तुम आ जाते एक बार 
कितनी करुणा कितने संदेश,
पथ में बिछ जाते बन पराग।'
उस अज्ञात चेतना के विरह में उनकी व्याकुलता चरम पर है ‌।
विरह की इस उद्दाम पीड़ा में भी उन्हें किसी का उपालंभ उन्हें सह्य नहीं है -
`कैसे कहती हो सपना आली, इस मूक मिलन की बात ।
भरे हुए हैं फूलों में, मेरे आंसू उनके हास'।
महादेवी की पीड़ा `वेदना' विषाद कारी नहीं अपितु आह्लादकारी है। उनकी वेदना ने उन्हें जो पीड़ामय मधुरता दी है उसे वह छोड़ना ही नहीं चाहती।
`पर शेष नहीं होगी मेरे प्राणों की पीड़ा।
तुमको पीड़ा में ढूंढा तुममें ढूढ़ुंगी  पीड़ा। 
उनकी कविता में एक अलग सी टीस अनुभूति होती है । उनकी व्यथा में जिसमें जिज्ञासा, पीड़ा, वेदना, करुणा, रहस्य, नारी सुलभ सहजता, सात्विकता, प्रतीक्षा, भक्ति की तन्मयता, करुणा की प्रधानता, अध्यात्म, वेदांत सब कुछ तो निहित है।  विरह की मदिरा का ऐसा मादक नशा उन पर छाया है कि वह उसे छोड़ना ही नहीं चाहती। उनके ही शब्दों में -
`प्रिय से कम मादक पीर नहीं'। 
वह इस पीड़ा में आत्म-विभोर हो झूमती रहती है। और विरह तथा मिलन का अंतर ही भूल जाती हैं । 
'विरह का क्षण मिलन का पल, मधुर जैसे दो पलक चल।' 
पीड़ा की मधुरता का परिचय जैसा महादेवी ने करवाया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। यद्यपि विरह और निराशा उनकी कविता का प्राण है तथापि चिर मिलन का ही भाव भी अनायास ही उनके गीतों में पुलक उठता है  -
`तुम मुझ में प्रिय फिर परिचय क्या'? 
उनके काव्य में प्रतीक्षा एवं विरह की पराकाष्ठा देखते बनती है प्रियतम की प्रतीक्षा में थके उनके प्राणों की मार्मिक गुहार तो देखिए।-
`नहीं अब गया जाता देव, थकी उंगली है ढीले तार।
विश्व वीणा में अपनी आप, मिला लो यह अस्फुट झंकार।'
प्रिय में समा जाने का ऐसा अद्भुत समर्पण कि अपना अस्तित्व ही मिटा दे, भूल जाए। प्रतीक्षा की ऐसी थकान कि जीवन को ही वार देने की ठान लें, प्रेम पीड़ा का ऐसा भावपूर्ण वर्णन पाठक के भावों को उद्वेलित कर देता है। उनकी विरह वेदना इतनी विस्तृत इतनी व्यापक है कि पीड़ा की गहनता पाठक को भीतर तक झकझोर देती है। वेदना उनकी प्रिय सखी है जिसके सहारे में प्रियतम तक जाना चाहती हैं -
`बुझ जाने दो देव! आज मेरा दीपक बुझ जाने दो '।
उनकी तीव्र वेदना की ऐसी ही एक और सुंदर अभिव्यक्ति देखिए -
`फिर विकल प्राण मेरे! 
तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूं उसे पर क्या है?' 
महादेवीजी उस असीम की व्यापकता को इतना स्वाभाविक एवं प्रभावपूर्ण बना देती हैं कि देखते ही बनता है।-
`तुम्हें बांध पाती सपनों में!
तो चिर जीवन प्यास बुझा लेती, उस छोटे क्षण अपने में’
विरह का ऐसा ही मादक वर्णन प्राचीन कवि मीरा, कबीर, जायसी की रचनाओं में भी प्राप्त होता है किंतु महादेवीजी को विरह वर्णन में विशेष महारत हासिल है। महादेवी की व्यथा वेदना चिरस्थाई है। वह विरहिणी अवश्य है परंतु अमर सुहागिन है- `सखी में हूं अमर सुहाग भरी/ प्रिय के अनंत अनुराग भरी' उनकी प्रेम पीर बहुत मादक है जिसमें  मिलने बिछड़ने का भेद ही पता नहीं चलता । वह कहती हैं - `पाने में तुमको खोया, खोने में समझूं पाना' प्रेम की कैसी गहनता है, वेदना का यह कैसा उत्सर्ग, कैसा समर्पण है कि संसार को प्रत्येक तत्व में उनके प्रेम का विस्तार हो जाता है। कण-कण में, क्षण क्षण में, उन्हें प्रेमानुभूति होती रहती है। प्रेम की ऐसी विशद महानता महादेवी की अतिरिक्त अन्यत्र कहां प्राप्त होती है? प्रेम और विरह की ऐसी कोई भी भावना नहीं बची जिसकी अभिव्यक्ति महादेवीजी ने ना की हो। महादेवी के रहस्य वादी गीतों की विशेषता यह है कि उनके अलौकिक उपास्य देव हम सबको भी अपने समीप और सहज संसारी प्रतीत होते हैं। प्रियतम के प्रति उनकी आस्था, आराधना, उनका प्रेम, असीम और अनंत होकर भी अनुकरणीय है। उनके प्रेम और विरह का संसार पाठक को अपना ही,अपने ही आसपास का संसार का नजर आता है। उनके प्रेम की अभिव्यक्ति में नारी सुलभ सहजता, सात्विकता, भाव-प्रवणता, और कोमलता दर्शनीय है। जो लौकिक और अलौकिक दोनों ही रूपों में पाठकों को भाव विभोर कर देने में सक्षम है।
महादेवी जी का रहस्यवाद-
महादेवी जी मूलत: रहस्यवाद की कवयित्री है और उनकी विरह- अनुभूति रहस्यात्मक है। उनकी विरह अनुभूति पारंपरिक धार्मिक भावनाओं से सर्वथा परे है। इन्होंने लौकिक रूपकों के माध्यम से अपनी आध्यात्मिक विरह- वेदना को व्यक्त किया है -
उजियारी अनुगुंठन से, विधु ने रजनी को देखा।
तब से मैं ढूंढ रही हूं उनके चरणों की रेखा।
महादेवी वर्मा का प्रेम उनकी व्यथा, पीड़ा लौकिक स्तर से उठकर व्यापक विस्तृत होकर उस अनंत असीम तक पहुंच जाती है। प्रेम का यही  विस्तार यही उदात्त भावना उनके प्रेम को महान से महानतम की श्रेणी में पहुंचा देती है और प्रेम लौकिक क्षुद्रता खोकर विस्तृत,अलौकिक और आध्यात्मिक हो जाता है। उनका प्रेम मीरा की तरह सगुण ना होकर निर्गुण है। वह निराकार ब्रह्म की उपासक है।उनका प्रेम, उनकी विरह वेदना अलौकिक और आध्यात्मिक है और यही उनका रहस्यवाद है। इनका मूल दर्शन सर्वात्मवाद है और प्रकृति को उन्होंने अपना साधन बना लिया है। उनके संपूर्ण काव्य में ब्रह्म से मिलने की आतुरता का सुंदर चित्रण है।
महादेवी के काव्य संकलन में संग्रहित गीतों में उनकी आध्यात्मिक चिंतन एवं रहस्यमय भावना का पता चलता है। परमात्मा के मिलन की व्याकुलता का उनका आध्यात्मिक क्रंदन उनके संपूर्ण काव्य में व्याप्त है। आत्मा और परमात्मा की एकात्मकता, भारतीय अद्वैतवाद, वेदांत की, सुंदर छवि वह अपने काव्य में प्रस्तुत करती है -
`तुम मुझ में फिर परिचय क्या? 
चित्रित तू, मैं हूं रेखा-क्रम
मधुर राग तू, मैं स्वर संगम 
तू असीम मैं सीमा का भ्रम 
काया छाया में रहस्यमय, 
प्रेयसी प्रिय का अभिनय क्या?' 
आत्मा के महत्व को स्वीकारते हुए वह अमरता को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत करती हैं- `अमरता है, जीवन का ह्रास। मृत्यु जीवन का चरम विकास।'
किंतु यह अमरता,आत्मा के परमात्मा में लीन होने तक ही है। जब आत्मा मुक्ति का लाभ उठा लेती है तो फिर बाद में दोनों एक ही है-
`जब असीम से हो जाएगा, मेरी लघु सीमा का मेल 
देखोगे तब देव! अमरता ,खेलेगी मिटाने का खेल।'
वास्तव में निर्वाण के बाद आत्मा और परमात्मा अलग कहां रह जाते हैं - 
`सृष्टि का है यह अमिट विधान । 
एक मिटने में सौ वरदान।' 
उनके रहस्यवाद का एक अन्य उदाहरण देखते ही बनता है -
वे कहते हैं उनको मैं, अपनी पुतली में देखूं।
यह कौन बता पाएगा?, किसको पुतली में देखूं!'
अलौकिक प्रेम का इतना सुंदर उदाहरण सहज सुलभ नहीं है। प्रिय से उनका संबंध समानता एवं स्वतंत्रता का है। उनका मान, उनका हठ, उनका निवेदन, सब समता का भाव समेटे हैं।
`मेरी लघुता पर आती जिस दिव्य लोक की व्रीड़ा।
उसके प्राणों से पूछो वह पाल सकेंगे पीड़ा? 
उनसे कैसे छोटा है? मेरा यह भिक्षुक जीवन।
उनमें अनंत करूणा है, इसमें अनंत सूनापन।'
उनके सात्विक वियोग की उनकी यह हृदयगत पीड़ा प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है 
`कण-कण में बिखरा है, निर्मम मेरे मन का सूनापन।'
उनके काव्य में आध्यात्मिक विरह की यह विशेषता देखते ही बनती है। अपनी भावना का प्रकृति पर आरोपण करते हुए वह कहती हैं -
'आज मेरे नयन के तारक हुए जलजात देखो'
विरह की इतनी नैसर्गिक, स्वाभाविक भाव प्रवण अभिव्यक्ति देखते ही बनती है। आंखों में आंसू लिए किसी विरहिणी की सूरत अनायास नेत्रों के समक्ष आ जाती है। अब ऐसी सूक्ष्म, हृदयग्राही बिम्ब योजना महादेवी जी की प्रतिभा ही कर सकती है। प्रेम की अनुभूति का आदर्श और प्रेम वेदना के सौंदर्य का इतना संवेदनशील चित्रण महादेवीजी के काव्य की विशेषता है। महादेवी जी ने सौंदर्य का मूल्य स्मृति रेखाओं से नहीं अश्रुओं से आंका है-
`आली मैं कण-कण जान चली, सब का क्रंदन पहचान चली'।
महादेवी जी के काव्य में गहन प्रेम, तीव्र विरह और चिर  वेदना का  सागर हिलोरें मार रहा है। यह विरह वेदना की कुशल चितेरी है। महादेवी जी की वेदना करुणामयी है। उनकी करुणा में ना अंधेरा है, ना निराशा है, ना अवसाद है अपितु दूसरों के दुख में द्रवित होना उनकी मानवीय सक्षमता है - `सजनी मैं इतनी करूण हूं, करुण जितनी रात। 
सजनी मैं इतनी सजल हूं, सजल जितनी बरसात।'  
डॉक्टर कुमार विमल के शब्दों में 'वेदना महादेवी के काव्य का अर्थ है और करुणा उसकी गति।' इस प्रकार करुणा उनके व्यथावाद का मेरुदंड है और वेदना का चरम रूप भी। इनकी पीड़ा की विराट व्यापकता एवं वेदना की गहन संवेदनात्मक अभिव्यक्ति, हिंदी कविता का वैभव है। महादेवी वर्मा, मीरा के पश्चात हिंदी साहित्य की एकमात्र विरह वेदना की कवयित्री थी। वेदना की जैसी संवेदनशील, मार्मिक अभिव्यक्ति अपने काव्य में महादेवी जी ने दी है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य जगत की अमूल्य निधि है। इनके अंतःकरण की वेदना ही नि:सरित होकर कविता में ढल गई है। हृदय की सूक्ष्म भावनाओं की सफलतम अभिव्यक्ति उनके काव्य में परिलक्षित होती है। इन्होंने अपनी रचनाओं में वेदना को साकार कर दिया है। इनके गीतों में आध्यात्मिक वेदना व रहस्यवाद की चेतना मुखर है। उनकी कविता भाव प्रधान एवं कल्पना प्रधान है, निर्मम बुद्धिवाद का उनके गीतों में कहीं कोई स्थान नहीं है और सोने पर सुहागा यह है कि इनका भाव पक्ष जितना श्रेष्ठ है, कला पक्ष भी उतना ही सुदृढ़ है। एक ओर भावों का ऐसा सहज सुलभ संसार तो, दूसरी ओर उत्कृष्ट, सुंदर, परिष्कृत भाषा शैली, इनके काव्य में भाव व कला का सुंदर व पावन संगम स्थापित करती है। भाव और कला की सबल और प्रबुद्ध प्रतिभा महादेवी वर्मा, हिंदी साहित्य जगत की चिर स्मरणीय विभूति हैं।
सीमा तोमर

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