महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप ने जब सत्ता संभाली थी उस समय अनेक कठिनाइयाँ  सामने थीं। सिंहासन तो मिला पर राज्य और धन दोनो का अभाव था । फिर भी दृढ़ संकल्पी महाराणा प्रताप निराश  नहीं  हुए । जब कि उस समय अकबर के प्रभाव  में  आकर कई हिन्दू राजा अकबर की अधीनता स्वीकार कर के वैवाहिक  संबंध भी बनाने लगे थे ।

Mar 19, 2024 - 18:49
Mar 19, 2024 - 19:12
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महाराणा प्रताप
Maharana Pratap

मेवाड़  के शूर-वीर  महान पराक्रमी शासक महाराणा प्रताप सिंह का नाम भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में  लिखा गया है ।

महाराणा प्रताप एक ऐसे वीर हिन्दू  शासक थे जिन्होंने आमरण  शक्तिशाली  मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं  की । भले ही इसके लिए  उन्हें और उनके परिवार  को वर्षों  भीषण कष्ट  सहना पड़ा हो।  वे एकलिंग महादेव  के अनन्य भक्त  थे। उन्होंने  एकलिंग  महादेव की  शपथ ले कर प्रण किया  था,  कि किसी भी परिस्थिति  में मुगल  सम्राट अकबर के आगे अपना सिर नहीं  झुकाएंगे ।

महाराणा प्रताप ने जब सत्ता संभाली थी उस समय अनेक कठिनाइयाँ  सामने थीं। सिंहासन तो मिला पर राज्य और धन दोनो का अभाव था । फिर भी दृढ़ संकल्पी महाराणा प्रताप निराश  नहीं  हुए । जब कि उस समय अकबर के प्रभाव  में  आकर कई हिन्दू राजा अकबर की अधीनता स्वीकार कर के वैवाहिक  संबंध भी बनाने लगे थे ।

प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह और माता जीवंत कुंवर थीं ।  जीवंत कुंवर / जैवन्ताबाई के अलावा  भी उदय सिंह की कई रानियाँ  थीं .... सज्जा बाई जिनसे शक्ति सिंह और विक्रम सिंह पैदा हुए । चौथी पत्नी का नाम  वीर बाई झाला  था जिनके पुत्र जेठ सिंह थे ।

महाराणा उदय सिंह के जेष्ठ पुत्र  प्रताप सिंह   उदय सिंह और  जीवंत  कुंवर के पुत्र थे ।

सब से छोटी  रानी धीरबाई उर्फ भटियानी  रानी पर  उदय  सिंह का विशेष प्रेम था ।  सब से छोटी रानी  भटियाणी  रानी  के   जगमल सिंह , चाँद कंवर और मान कंवर बेटियाँ थीं। 

धीर बाई/ भटियानी रानी के प्रेम की खातिर महाराणा  उदय सिंह  ने अपने नौवें  बेटे जगमल , जो भटियानी रानी का पुत्र था , अपना उत्तराधिकारी घोषित  कर दिया । जगमल एक अहंकारी और अयोग्य राजकुमार था । वैसे भी नियम और परंपरा के अनुसार  जेष्ठ पुत्र  ही सिंहासन का उत्तराधिकारी होता  है । महाराणा उदय सिंह की मृत्यु  के पश्चात  सभी सरदारों और सामन्तों  ने  महाराणा उदय सिंह  के फैसले को मानने से इंकार करते हुए प्रताप को उत्तराधिकारी  बनाया । 

इससे क्षुब्ध  होकर जगमल ने अकबर से हाथ मिला लिया । जगमल के साथ ही अन्य  दो भाई अमर सिंह  और  सागर सिंह आदि प्रताप  के विरोधी  बन गये ।

प्रताप का जन्म जेष्ठ शुक्ल की तृतीया को हुआ था  । अंग्रेजी कैलेण्डर  के अनुसार 09 मई 1540 में पाली में हुआ  था । *जेम्स टॉड* के अनुसार उनका जन्म मेवाड़  के कुंभल गढ़  में  हुआ था । किन्तु इतिहासकार *विजय नाहर* के अनुसार उनका जन्म  मारवाड़  के पाली  में  हुआ था , जो उनकी ननिहाल थी । प्रताप की कुंडली की कालगणना के आधार पर पाली ही उनका जन्म स्थान  है ।

देवी प्रसाद  की  लिखित   सरस्वती  के भाग 18 में  सात पंक्तियों में  ताम्र पत्र पर इसका उल्लेख  है ।

महारानी  जीवंत कुंवर का नाम  कई जगह  पर जैवंता बाई भी बताया गया है । प्रताप के जन्म  के समय मेवाड़  बहुत  अधिक  सुरक्षित  नहीं  था । इस लिए  सुरक्षा  की दृष्टि और  परंपरा  के अनुसार पहले बच्चे के जन्म  के लिए जीवंत कुंवर  को मायके भेज दिया गया । जीवंत कुंवर पाली के सोनगरा  अखैराज  की बेटी थीं , जो जोधपुर के सब से शक्तिशाली  राजा  मालदेव के विश्वस्त सामंत एवं सेनानायक थे।

महाराणा प्रताप के बचपन का नाम  *कीका* था ।  चूंकि महाराणा का अतिरिक्त  प्रेम  भटियाणी रानी  के प्रति  था । जिसके कारण  महाराणा  भटियाणी रानी  के वश में  होते चले जा रहे थे । जीवंत कुंवर एक  बहादुर और सीधी सच्ची  राजपूतानी थीं । वे भगवान  श्री कृष्ण की बहुत बड़ी भक्त थीं । महाराणा प्रताप को अपनी माता से नैतिक मूल्य और आदर्श  मिले थे , जो उनके चरित्र के उज्जवल  थे ।

उदय सिंह पर भटियाणी रानी के प्रभाव से विक्षुब्ध  हो कर जीवंत कुंवर  प्रताप को लेकर  मयार  चली गयीं  । फिर कुछ  दिनों  के बाद  घने जंगलों  में  सामान्य स्त्री  के रूप  में  भीलों  के  संरक्षण  में  रहने लगीं । प्रताप ने भीलों  से युद्ध  कौशल सीखा । भील अपने पुत्र  को कीका  कह कर बुलाते  हैं  । आदर और स्नेह से भील प्रताप  को कीका  नाम  से बुलाने लगे । इधर भटियाणी  रानी के कारण  जीवंत कुंवर  और प्रताप  के जंगलों  में  रहने से उदय सिंह  की छवि पर असर पड़ने लगा था।  फिर उदय सिंह ने अनुनय विनय और आश्वासन  के  साथ  जीवंत कुंवर को    प्रताप के  वापस  महल में  बुला लिया । सोच विचार  के बाद  जीवंत  कुंवर  बापस आ गयीं ।

महाराणा उदय सिंह की मृत्यु  के बाद  प्रताप  का प्रथम  राज्याभिषेक  गोगुंदा में  हुआ था ,  किन्तु विधिवत  द्वितीय राज्याभिषेक   01  मार्च  1572  में  हुआ था । तात्कालिक कठिनाइयों के  होते  हुए भी प्रताप के हौसले  में  कोई  कमी नहीं  आई  थी  ।

अकबर  की संपूर्ण  भारत विजय के मार्ग  में  सब से बड़ा  अवरोध  महाराणा प्रताप सिंह  थे । अकबर ने चार बार अपने शान्ति दूत  भेज कर प्रताप  को अपनी अधीनता  स्वीकार  करने  के बदले आधे भारत का सामंत  बनने का प्रलोभन दिया  जिसे प्रताप  ने बेरुखी  से अस्वीकार  कर दिया  था ।

हालांकि कई हिन्दू  राजा अकबर  के भय से उसके प्रभाव  में  आ चुके थे ।

अकबर  ने अजमेर को अपना केन्द्र बना कर बार -बार उदयपुर  पर आक्रमण  करना शुरू कर दिया ।

उदयपुर  महाराणा उदय सिंह  की बनाई  राजधानी थी । 1537 में  जब उदय सिंह  मेवाड़  के शासक  बने तो  मेवाड़  की राजधानी चितौड़ थी । वहाँ  पर काफ़ी  बाहरी आक्रमण  हो रहे थे । कई आक्रमणों  को  झेलने के बाद  महाराणा उदय सिंह  चितौड़  की सुरक्षा का भार अपने विश्वस्तों  पर छोड़  कर राज कोष लेकर अरावली  के घने  जंगलों  में  छिप कर रहने लगे । वहीं  नदी के बाढ़ को रोक कर  उदय सागर झील  बनवाई और  उदय पुर  राजधानी  बनाई जिसे खूब  विकसित किया।

यहीं  की पहाड़ियों  से उदय सिंह  आक्रमणकारियों को परेशान  करके अपने राज्य  को सुरक्षित  करते रहे थे ।

राज्याभिषेक के बाद लगातार आक्रमण  के कारण  प्रताप  ने अपनी सूझ बूझ  और सरदारों  के परामर्श  से कुंभल गढ़  और गोगुंदा के पहाड़ी  इलाकों  को अपना केन्द्र  बनाया।

महाराणा प्रताप ने कई  वर्षों  तक संघर्ष  किया। मगर कभी भी गलत नीति का  सहारा नहीं  लिया । एक बार युद्ध  में उनके सैनिकों  ने मुगल हरम पर कब्जा  कर लिया था  तब महाराणा  ने सम्मान पूर्वक  सभी बेगमों  को वापस  भेज दिया था ।

जब   महाराणा प्रताप को झुकाने की सभी चालें  नाकामयाब हो रहीं  थीं   ,तो  अकबर  ने अपने हिन्दू सेनापति  मान सिंह  और भगवान दास को महाराणा  प्रताप के पास समझने के लिए  भेजा । किन्तु प्रताप  पर इसका कोई प्रभाव नहीं  पड़ा ।
अंततः 15 76 में  *हल्दी घाटी  के मैदान  में  मान सिंह ,  आसफ़ खाँ और   शहजादा  सलीम  के नेतृत्व  में  लगभग 80  हजार से 01 लाख सैनिकों   की सेना के साथ महाराणा प्रताप के 20 हजार सैनिकों  का भीषण  युद्ध  हुआ । इस युद्ध  में  मुगलों की सेना  की  भी भारी क्षति हुई। 

हल्दी घाटी का युद्ध  चेतक  की चर्चा बिना अधूरा  है ।

महाराणा प्रताप  के जैसा ही शक्तिशाली  और बुद्धिमान उनका घोड़ा  चेतक भी  था । उसकी समझ अद्भुत  थी। इस विलक्षण  घोड़े  का रंग नीलिमा युक्त  था । इस लिए  इसे नीला घोड़ा  और महाराणा प्रताप  को 'नीला घोड़ा  रा असवार'  कहा जाता था ।

इतिहास  के पन्नों  में  महाराणा प्रताप के साथ  उनके घोड़े  चेतक का भी सुनहरे अक्षरों  में  नाम लिखा है । चेतक  की बहादुरी  का किस्सा  विख्यात  है कि उसने मानसिंह  के हाथी के सिर परअपने अगले दोनों  पैर से वार कर के उसे क्षति  पहुंचाई थी ।  यह भी विख्यात है कि युद्ध  में चेतक को हाथी का मुखौटा पहनाया  जाता था  जिससे विपक्ष के हाथी उसे  अपना घातक प्रतिद्वंदी समझते  थे ।

हल्दी घाटी के युद्ध  में अनिर्णय  की स्थिति  में  दिन ढ़लने  लगा था , और चेतक  गंभीर  रूप  से घायल  हो गया था । फिर भी प्रताप को बचाने  के लिए एक बड़े  से जंगली  नाले को छलांग लगा कर पार कर लिया । किन्तु उसकी चाल धीमी हो गयी थी । इसी समय प्रताप  के भाई शक्ति सिंह ने  जिसका महाराणा प्रताप  से  वैमनस्य था,  वैमनस्य भूल कर अपना घोड़ा  प्रताप  को दे दिया । यहीं  चेतक  ने अपने प्राण  त्यागे  थे । आज भी वहाँ  चेतक की समाधि को देखा जा सकता है।

हल्दी घाटी के युद्ध  में  महाराणा की क्षति  तो हुई किन्तु  वे स्वतंत्र  ही रहे । भले इसमें  उन्हे अपने परिवार के साथ वर्षों जंगलों  में  भीषण कष्टों का सामना करना पड़ा। इस समय अनेक  राजपूत राजाओं  ने प्रताप  से उनके राज्य में  आकर महलों  में रहने का आग्रह किया था, किन्तु  प्रताप  ने विनम्रता पूर्वक इसे अस्वीकार कर दिया ।

प्रताप अपनी वृद्ध  माता जीवंत कुंवर  की  अवस्था  को देख कर उन्हें  अपने एक भाई के महल में रखने के लिए   भले ही तैयार  हो गये । उनके सौतेले भाई  ने भी अपनी सौतेली माँ को बड़े  मान सम्मान  के साथ  रखा ।

इधर महाराणा प्रताप के  परिवार की स्थिति दिनों दिन और भी अधिक कष्टमय हो रही  थी । एक बार जब उनकी बेटी घास की बनी रोटी खा रही तो एक जंगली बिल्ली उसे छीन कर ले भागी थी। भूखी बच्ची  के रोने से प्रताप विचलित  हो गये थे ।

इसी समय भामाशाह  ने अपनी सारी संपत्ति  महाराणा के  पास रख दी ।  भामाशाह ने बीस लाख अशर्फियाँ और पच्चीस लाख रुपये महाराणा को भेंट स्वरूप दे दिए । इस राशि  से महाराणा ने फिर से अस्त्र शस्त्र जुटा कर सैन्य संगठन किया और कुंभल गढ़ पर कब्जा  कर लिया । एक-एक  करके महाराणा  ने और भी अपने राज्य की टुकड़ियों  पर अधिकार  जमाना शुरू कर दिया । इन्हीं  जंगलों  में  रह कर अचानक  छापामार युद्ध  से दुश्मन  को सबक सिखाने लगे  ।
महाराणा अंततः अकबर के अधीन नहीं  हुए । उनकी मृत्यु न तो  किसी  पराजय में  हुई और ना ही किसी  शत्रु के वार से बल्कि  शेर के शिकार  में  कमान खींचते  हुए  झटके के कारण  आंतों  में चोट के घाव के कारण हुई । 56 वर्ष की आयु में  वीर महाराणा प्रताप सिंह  परलोक सिधार गये । उनके घोर प्रतिद्वंद्वी  अकबर को भी उनकी मृत्यु  पर गहरा दुःख  हुआ  था ।

महाराणा के जीवन अवसान  के पश्चात् उनके जेष्ठ पुत्र  अमर सिंह उनके उत्तराधिकारी  बने ।

मेवाड़ के सिसोदिया  राजवंश  के तीन  कीर्ति स्तंभ  हुए .....महाराणा उदय सिंह द्वितीय ( प्रताप के पिता) और स्वयं महाराणा प्रताप और उनके पुत्र  अमर सिंह। 

महाराणा प्रताप सिंह की वीरता और  स्वाभिमान की गाथा को  शब्दों में बांध पाना संभव नहीं है।
महाराणा प्रताप सिंह की शौर्य गाथा अनंत  है अतः अब यहीं विराम  ।

मंजुला शरण

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