हिमवंत कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
मात्र २८ वर्ष और २४ वर्ष के अल्पतम जीवन में से भी ८ से अधिक वर्ष तत्कालीन समय में असाध्य तथा लगभग लाइलाज तपैदिक से लड़ते हुए ७५० से अधिक कविताएं व २५ से अधिक गद्य रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले कवि चन्द्रकुँवर बर्त्वाल का जन्म उत्तराखंड प्रदेश के अगस्त्यमुनि तीर्थ के नजदीक मालकोटी गाँव में २० अगस्त १९१९ को हुआ
मात्र २८ वर्ष और २४ वर्ष के अल्पतम जीवन में से भी ८ से अधिक वर्ष तत्कालीन समय में असाध्य तथा लगभग लाइलाज तपैदिक से लड़ते हुए ७५० से अधिक कविताएं व २५ से अधिक गद्य रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले कवि चन्द्रकुँवर बर्त्वाल का जन्म उत्तराखंड प्रदेश के अगस्त्यमुनि तीर्थ के नजदीक मालकोटी गाँव में २० अगस्त १९१९ को हुआ था। यह स्थान विश्व प्रसिद्ध शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ धाम वाले रूद्रप्रयाग जनपद में है। चन्द्रकुँवर बर्त्वाल का वास्तविक नाम कुँवर सिंह बर्त्वाल था। चन्द्रकुँवर नाम उन्हें बाद में छायावाद के सुप्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा, कवि की कविताओं को सुनकर दिया गया।
चन्द्रकुँवर जी की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई।प्राथमिक शिक्षा उडामाण्डा नामक विद्यालय से प्राप्त की तथा मिडिल की परीक्षा पिता के विद्यालय से प्राप्त की।
अध्यापक पिता श्री भूपाल सिंह, जो कि नागनाथ के मिडिल स्कूल में प्रधानाध्यापक थे, के साथ घर से विद्यालय जाते हुए विद्यालय के पास प्राचीन नागशिला के पास बाँज की जड़ों से निकलने वाले जलस्रोत से हिमालय के अप्रतिम दर्शनों ने ही संभवतः चन्द्रकुँवर के हृदय में वह हलचल और कौतुहल पैदा कर दिया था कि उन्होंने १२ वर्ष की उम्र में ही जीवन की पहली कविता लिख कर जैसे अपनी कवि प्रतिभा के दर्शन करवा दिये। बाद में १९३२ से १९३५ तक हाई स्कूल की पढ़ाई के दौरान पौड़ी प्रवास में उनके निवास स्थल से हिमालय की विहंगम दृश्यावली का उनके मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होनें लगभग दौ सौ से अधिक कविताओं में हिमालय को विभिन्न रूपों में चित्रित किया। वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल नागनाथ में रहते हुए ही चन्द्रकुँवर ने अपने जीवन की पहली कविता १३ वर्ष की उम्र में 'पुरातन' शीर्षक से लिखी। उनकी पहली कविता कोटद्वार से प्रकाशित कर्मभूमि में सन १९३६ में छपी। तत्कालीन समय में श्री भक्त दर्शन जी कर्मभूमि के सम्पादक थे। संयोग देखिए कि इसी पत्र में सितम्बर १९४७ में कवि के देहांत की खबर भी छपी।
पौड़ी में हाई स्कूल करने के दौरान उनकी मित्रता सहपाठी शम्भु प्रसाद बहुगुणा से हुई। यहीं पर रहते हुए उन्होंने हिमालय शीर्षक सहित दो सौ कविताओं की रचना की। १९३५ से १९३७ तक इन्टरमीडिएट करने के लिए देहरादून में रहे।
यहाँ देहरादून, मसूरी, सहस्रधारा जैसे विषय उनकी कविता और उनके शीर्षक बने। यहीं पर रहते हुए उन्होंने अंग्रेजी राज की शान को भी नजदीक से देखा। इस अनुभव ने कवि हृदय में ज्वारभाटा पैदा किया, जिसे पाठक उनके इस दौर की रचनाओं को पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं। जहाँ देहरादून पहुँचते ही उनकी कविताओं में देहरादून की सुन्दरता इस रूप मुखरित हुई-है बहुत दूर सहस्रधारा का जल, अब यहीं बिताओ दोपहरी।
तुम प्यारी ऋषिपर्णा तट पर आमों की छाया प्रिय गहरी।।
वहीं देहरादून प्रवास में अंग्रेजी राजकाज के रंगढंग ने उन्हें स्वतन्त्रता का पुजारी और परतन्त्रता का मुखर विरोधी बना दिया।उपनिवेश वाद, साम्राज्यवाद के वीभत्स रूप ने कवि हृदय में अंग्रेजी शासन के विरोध के स्वर पैदा कर दिये। मैकाले के खिलौने नामक कविता में अपने विद्रोही स्वर इस तरह से मुखरित किये -
'मेड इन जापान, खिलौने से सस्ते हैं लार्ड मैकाले के'
'ये नये खिलौने इन को लो पैसे के सौ सौ, दौ-दौ सौ!'
'अंगरेजी खूब बोलते ये सिगरेट भी अच्छी पीते ये'
'हो सकते हैं दो-दो सौ, ये नये खिलौने इन को ले!'
मात्र १६ वर्ष की उम्र में जब सन १९३६ में कहानी प्रेमचंद की अध्यक्षता में लखनऊ में पहला प्रगतिशील लेखक सम्मेलन शुरू हुआ तो राहुल सांस्कृत्यायन जी से परिचय हुआ। राहुल सांस्कृत्यायन जी के आग्रह पर सबसे पहले काफल पाक्कू कविता का मंच से वाचन किया।
२९ जुलाई १९३७ को चन्द्रकुँवर बी. ए. करने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुँचे जहाँ वे हालैंड हॉल के कमरा न० ८५ में रहे। १९३९ में उन्होंने बी० ए० पूरा किया। इसी अवधि में कवि ने अपनी डायरियों में बीज रूप में अंकुरित कविताओं को शब्द संयोजन और रेखाचित्रों के माध्यम से अंकित किया। इनमें से बहुत सी कविताओं को कवि के लेख में ही कवि के पारिवारिक सदस्य और कवि के अप्रकाशित साहित्य को देश दुनिया के सामने लाने वाले डॉ० योगम्बर सिंह बर्त्वाल जी ने चन्द्रकुँवर बर्त्वाल का जीवन दर्शन (२०११) में प्रकाशित किया।
फरवरी १९३९ से जून १९३९ तक वे बीमारी बढ़ने से बहुत व्याकुल रहे। मार्च १९३९ में पहली बार चिकित्सक ने चन्द्रकुँवर में तपैदिक के लक्षण बताये तब ही चन्द्रकुँवर को पता चला कि उन्हें तपैदिक है। परीक्षा के बाद वे स्वास्थ्य लाभ के लिए गाँव लौट आये जहाँ वे १९४० तक रहे।
९ अप्रैल १९३८ को रायबहादुर के.एन. दीक्षित का मोहनजोदड़ो और हड़प्पा पर दिये गये भाषण को सुनकर कवि ने तय किया कि वे प्राचीन भारतीय इतिहास से स्नातकोत्तर करेगें। इसी बीच विभिन्न स्थानों पर उनका इलाज भी चलता रहा। यहीं पर रहते हुए कमरे के साथी सुदामा प्रसाद की तपैदिक से मृत्यु हो गई।संभवतः दोनों को नहीं पता था कि सुदामा प्रसाद को तपैदिक है।
पाठकों को बताते चलें कि तत्कालीन समय में तपैदिक लगभग एक लाइलाज बीमारी की तरह थी। भले ही टी.बी. के प्रतिरक्षण टीके ँण्उ का आविष्कार सन १९२१ में ही हो गया था परन्तु भारत में यह सन १९४९ में दिल्ली, मद्रास तक ही पहुंच पाया था। भारत से बाहर तपैदिक का इलाज बहुत मंहगा होने से भारतीयों के लिए लगभग अप्राप्य जैसा ही था। अतः २० वर्ष की कोमल उम्र में ही चन्द्रकुँवर ने समझ लिया कि अब उनके पास साहित्य साधना के लिए बहुत जादा समय नहीं है। अब उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। अब उनके छात्रावास हालैंड हॉल के कमरा न० ८५ में ऊखीमठ क्षेत्र के साथी सदानंद सेमवाल रहते थे। वे प्रायः देखते थे कि चन्द्रकुँवर बरामदे टहलते हुए अपनी ही कविता `लौट चली मेरे जीवन की गंगा अपने ही उद्गम की ओर' को गुनगुनाते रहते थे। संभवतः कवि को अब अपने अल्प जीवन की दशा का आभास हो गया था। फरवरी से जून १९३९ के समय में बीमारी और परीक्षा दोनों के दबाव में कवि का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन खराब होता गया। ऐसे समय में लखनऊ से हैदृयिक मित्र शम्भु प्रसाद बहुगुणा ने इलाहाबाद से आकर उन्हें ढाढस बंधाया और परीक्षा देने के लिए राजी किया। इन्ही दिनों इसी मनोदशा के बीच नंदनी काव्य की प्रथम चरण की रचनाएं भी रची गई। नंदिनी का रचना काल इलाहाबाद में १९३९से प्रारंभ होकर सन १९४५ तक चला।
जुलाई १९४० में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में एम ए प्राचीन भारत में प्रवेश लिया। कवि का लखनऊ प्रवास १९४०-४१ एक वर्ष से भी कम रहा। यहीं पर उनकी मुलाकात सूर्यकांत त्रिपाठी से हुई। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने ही उनकी गेय कविताओं को सुनकर उनके नाम में चन्द्र जोड़कर `चन्द्रकुँवर बर्त्वाल' नाम रखा।
कवि के जीवन काल में ही हैदृयिक मित्र शम्भु प्रसाद बहुगुणा के सहयोग से १९४६में उनका यह पहला संग्रह प्रकाशित हुआ।
फरवरी १९४१ में वे गंभीर रूप से बीमार हो गए। उन्हें भंवाली टी०वी० सैनिटोरियम में स्वास्थ्य लाभ दिया गया। भंवाली से ७-८ दिन में पैदल यात्रा कर वे गाँव पहुँचे। १९४२ में वे जनता के सहयोग से खोले गए जनता जूनियर हाई स्कूल अगस्त्यम्रुनि में प्रधानाध्यापक बनाये गये। १९४५ में उन्होंने अस्वस्थता की वजह से विद्यालय संचालन के लिए अपने पुराने सहपाठी बुद्धि बल्लभ थपलियाल को दिल्ली से बुलाकर उन्हें कार्यभार सौंपा। १९४५ के उत्तरार्ध में ही उन्होंने पंवालिया प्रस्थान किया। कुछ समय स्वास्थ्य लाभ के लिए ऊखीमठ चिकित्सालय में भी भर्ती रहे। बहुगुणा जी ने ही उनके जीते जी सन १९४५ में `हिमंवत का एक कवि श्री चन्द्रकुँवर बर्त्वाल' नामक पुस्तक से कवि का परिचय हिन्दी साहित्य जगत से करवाया। कवि की कविताओं की पहली पुस्तक भी कवि के जीवन काल में ही १९४६ में `नंदनी' नाम से बहुगुणा जी ने प्रकाशित करवाई।
१४ सितम्बर १९४७ में कवि की मृत्यु के बाद १९४९ में पिता भूपाल सिंह और १९६६ में माता जानकी देवी की मृत्यु हुई। पुत्र वियोग में पत्नी पत्नी तथा कवि की चाची कुन्ती देवी, जो उन्हें बहुत प्यार करती थी अपनी मृत्यु पर्यन्त पंवालिया में ही रहे।
२१ वर्ष की उम्र में ही कवि को पता चल गया था कि उन्हें तपैदिक हो गया है। ७-८ वर्षों तक इससे लड़ते हुए २८ वर्ष २४ दिन की अल्पायु में १४ सितम्बर १९४७ को उनकी मृत्यु अगस्त्यमुनि के ही नजदीक पंवालिया नामक स्थान पर हुई।
अल्प जीवन में ही हिन्दी साहित्य का यह सितारा अस्त हो गया, लेकिन उनके साहित्य का मूल्यांकन होना अभी शेष है। ऐसा नहीं कि उनकी रचनाओं का प्रकाशन न हुआ हो। यह चन्द्रकुँवर बर्त्वाल के साहित्य का ही जादू कहा जायेगा कि अभी तक उन पर प्रकाशित तमाम ४० से अधिक पुस्तकें जिस भी पाठक की नजर से गुजरी, उसके लिए वह एक संग्रहणीय दस्तावेज बनकर, उसकी आलमारी में कैद हो गई, जिस कारण अधिसंख्य साहित्य प्रेमी और समालोचक उनके साहित्य से अपरिचित ही रह गये। उनके साहित्य के प्रेमियों की माँग है कि उनकी तपस्थली पंवालिया को हिंदी साहित्य शोध संस्थान के रूप में विकसित कर, कवि को सच्ची श्रद्धांजलि दी जाय।
हेमंत चौकियाल
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