भागलपुर का बंग साहित्य और शरतचंद्र

अंगप्रदेश’ के नाम से प्रसिद्ध बिहार राज्य के भागलपुर जिले की भूमि ‘बंग’ अर्थात बंगाली संस्कृति और साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र रही है। बांग्ला साहित्य में इतिहास का एक दौर ऐसा भी आया जब भागलपुर में रहकर बांग्ला के मूर्धन्य साहित्यकारों न सिर्फ अपनी लेखनी से समृद्ध किया, वरन उसे एक नयी दिशा भी दी।

Dec 2, 2024 - 18:39
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भागलपुर का बंग साहित्य और शरतचंद्र
Sharat Chandra

‘अंगप्रदेश’ के नाम से प्रसिद्ध बिहार राज्य के भागलपुर जिले की भूमि ‘बंग’ अर्थात बंगाली संस्कृति और साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र रही है। बांग्ला साहित्य में इतिहास का एक दौर ऐसा भी आया जब भागलपुर में रहकर बांग्ला के मूर्धन्य साहित्यकारों न सिर्फ अपनी लेखनी से समृद्ध किया, वरन उसे एक नयी दिशा भी दी। भागलपुर को बांग्ला साहित्य के फलक पर प्रतिष्ठित करने में अमर कथा शिल्पी शरतचंद्र सहित बलायचंद मुखोपाध्याय ‘बनफूल’, विभूतिभूषण बंदोपाध्याय, निरुपमा  देवी, आशालता देवी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।

भागलपुर जैसे ‘ठेठ’ बिहारी क्षेत्र का बांग्ला साहित्य के इतिहास में चर्चित स्थान प्राप्त कर लेना वाकई महत्वपूर्ण बात है। वर्ष १९०७ में बांग्ला की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘भारती’ में एक उपन्यास प्रकाशित हुआ था- ‘बोड़ो दीदी’, जिसमें  इसके लेखक का नाम नहीं दिया  गया था। इस उपन्यास ने बांग्ला पाठकों के बीच सनसनी फैला दी। नारी मनोविज्ञान का जिस तरह का इसमें चित्रण किया गया था, लोगों ने यही अनुमान लगाया की यह रवीन्द्र नाथ टैगोर जैसी विभूति को छोड़ किसी अन्य की कृति हो ही नहीं सकती। किन्तु जब रवीन्द्रनाथ से पूछा गया तो उन्होंने इंकार करते हुए कहा कि ऐसे रचनाकार को मैं बांग्ला साहित्य की मुख्य धारा में देखना चाहता हूँ। 

बाद में लोगों ने यह जाना कि इसके रचनाकार कोई कोलकाता निवासी नहीं, भागलपुर के रहने वाले शरतचंद्र हैं और, इस तरह भागलपुर का नाम बांग्ला साहित्य में प्रकाश में आया। उनकी शुरुआती कहानियाँ, कोरेल और ‘काशीनाथ’ आज भी पाठकों द्वारा व्यापक रूप से पढ़ी जाती हैं। शरतचंद्र के साहित्य की यह ख़ासियत यही रही कि उनके द्वारा वर्णित अधिकांशतः चरित्र कल्पना से प्रेरित न होकर उनकी वास्तविक जीवन यात्रा से जुड़े पात्र रहे हैं। इस कारण उनमें अद्भुत स्वाभाविकता और मार्मिकता है। अमर कथाशिल्पी और सुप्रसिद्ध उपन्यासकारशरतचंद्र का जन्म १५ सितम्बर सन् १८७६ ई. को हुगली ज़िले के एक देवानंदपुर गाँव में हुआ था। अपने माता भुवनमोहिनी और पिता मतिलाल चट्टोपाध्याय की नौ संतानों में शरतचंद्र एक थे। पिता मतिलाल बेफिक्र स्वभाव के थे और किसी नौकरी में टिक पाना उनके वश की बात की बात नहीं थी, परिणामस्वरूप परिवार गरीबी के गर्त में चला गया और उन्हें बाल बच्चों के साथ देवानन्दपुर छोड़कर अपने ससुराल (भागलपुर) में रहना पड़ा। उनके श्वसुर अर्थात् शरत् के नाना केदारनाथ गांगुली का भागलपुर के आदमपुर इलाके के मानिक सरकार मुहल्ले में अपना मकान था। उनकी गिनती खाते-पीते संभ्रांत बंगाली परिवारों में होती थी। बंगाल के निकट स्थित होने के कारण उन दिनों भागलपुर बंगालियों का गढ़ माना जाता था। इस कारण शरतचंद्र का बचपन भागलपुर में गुजरा और पढ़ाई-लिखाई भी यहीं हुई। शरतचंद्र का बचपन गरीबी और अभावों से ग्रस्त था, पर उन्होंने कभी इसकी फ़िक्र नहीं की। रुढ़िवादी और संपन्न गांगुली परिवार में पतंगें उड़ाना जैसे खेल वर्जित थे। परंतु शरतचंद्र को पतंग उड़ाना, कंचे व गुल्ली-डंडे खेलना,लट्टू घुमाना सरीखे खेल अत्यंत प्रिय थे। ननिहाल के उत्तर में बहनेवाली गंगा के दृश्यों को घंटों बैठकर निहारना, टूटे गुम्बदों से नदी में छलांग लगाना, तट पर बंधे मल्लाहों की नौकाओं को चुपके से खोलकर नदी-विचरण करना, दियारा की सैर करना उनकी दिनचर्या थी। पास के बाग़-बग़ीचे से फल चुराना और फूल-पत्तियां इकट्ठे करना, सपेरों द्वारा जड़ी सुंघाकर सांप भगाने के तमाशे देखना, आदि उनके बचपन के खेल थे। उनके द्वारा रचित देवदास, श्रीकांत, सत्यसांची, दुर्दांत राम सरीखे पात्रों में झांके, तो उनके बचपन की इन शरारतों की छाप सहजता से दिखती है। 

अठ्ठारह साल की उम्र में बारहवीं की परीक्षा शरतचंद्र ने पास की थी। अपनी किशोरावस्था के दौरान, वह मैरी कोरेली, चार्ल्स डिकेंस और हेनरी वुड जैसे लेखकों की पश्चिमी रचनाओं के इतने दीवाने हो गए कि उन्होंने अपना उपनाम `सेंट सी. लारा' रख लिया। वे बहुत साहसी और निडर थे। दुर्भाग्य से, विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा पास करने के बाद, वह अपने परिवार की दयनीय वित्तीय स्थिति के कारण अपनी उच्च शिक्षा पूरी करने में असफल रहे। शरतचंद्र ने इन्हीं दिनों `बासा' (घर) नाम से एक उपन्यास लिख डाला, पर यह रचना प्रकाशित नहीं हुई। कॉलेज की पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर वे तीस रुपए मासिक के क्लर्क की नौकरी करने बर्मा वर्तमान में म्यांमार पहुँच गए। उन्होंने १९०६ में शांति देवी से विवाह किया और उनके एक बेटा हुआ। दुर्भाग्य से १९०८ में उनकी पत्नी और बेटा दोनों प्लेग से मर गए। अपने परिवार को खोने से वे पूरी तरह टूट गए। इसलिए, उन्होंने सांत्वना के लिए किताबों की ओर रुख किया। उनके विषयों में समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान आदि शामिल थे। लेकिन १९०९ में स्वास्थ्य समस्याओं के कारण, उन्होंने पढ़ने की अपनी इच्छा को धीमा कर दिया। हालांकि, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने १९१० में एक युवा विधवा मोक्षदा से दोबारा शादी की, जिसका नाम उन्होंने हिरण्मयी रखा। शरतचंद्र ने उसे पढ़ना-लिखना भी सिखाया। 

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की कथा-साहित्य की प्रस्तुति जिस रूप-स्वरूप में हुई, लोकप्रियता के तत्त्व ने उनके पाठकीय आस्वाद में वृद्धि ही की है। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय अकेले ऐसे भारतीय कथाकार हैं, जिनकी अधिकांश कालजयी कृतियों पर फ़िल्में बनीं तथा अनेक धारावाहिक और सीरियल भी बने। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय एक नए यथार्थवाद को लेकर साहित्य क्षेत्र में उतरे थे। यह लगभग बंगला साहित्य में उस समय नई चीज थी। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने लोकप्रिय उपन्यासों एवं कहानियों के द्वारा  सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार किया, घीसे पीटे लीक से हटकर लोगो को सोचने को बाध्य किया। हालांकि कोलकाता बांग्ला साहित्य के सृजनात्मक लेखन का केंद्र बन गया था और राजा राममोहन राय से लेकर रवीन्द्रनाथ तक-सभी प्रख्यात साहित्यकार कोलकाता के स्थायी निवासी थे। लेकिन भागलपुर से शरतचंद का नाम इतनी प्रखरता से उभरा कि पूरे बांग्ला-साहित्य पर छा गया और भागलपुर का नाम पूरी विशिष्टत्ता के साथ स्थापित हो गया। भागलपुर की प्रमुखता का सिर्फ यही कारण नहीं था कि यहाँ से कई प्रमुख लेखक उभरे। भागलपुर में रचित शरत चंद की महत्वपूर्ण रचनाओं ने बांग्ला साहित्य के भावी लेखकों को एक नयी दिशा भी दी। शरत का बचपन गरीबी में बीता था। जीवन की सच्चाई को उन्होंने नजदीक से देखा था। उनकी लेखनी में नारी मन के अनछुए पहलुओं को उकेरने का अद्भुत गुण था। आम लोगों के जीवन से इस तरह तादात्म्य स्थापित कर उन्होंने बांग्ला साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान किया और भावी लेखन की मानों धारा ही बदल दी। शरतचंद्र की कहानियों में भी उनके उपन्यासों की तरह ही मध्यवर्गीय समाज का यथार्थ चित्र अंकित है। शरतचंद्र प्रेम कुशल के चितेरे भी थे। शरतचंद्र की कहानियों में प्रेम एवं स्त्री-पुरुष संबंधों का सशक्त चित्रण हुआ है। इनकी कुछ कहानियाँ कला की दृष्टि से बहुत ही मार्मिक हैं। ये कहानियाँ शरत के हृदय की सम्पूर्ण भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। 

समाज में उस समय हाशिए पर पड़ी नारी के उत्थान से पतन और पतन से उत्थान की करुण कथाओं से शरतचंद्र का सम्पूर्ण साहित्य भरा पड़ा है। अपनी कहानियों में शरतचंद्र केवल पीडित-प्रताड़ित नारी की गाथा नहीं बुनते, केवल उसे समाज में तिरष्कार की नजरों से देखने की व्यथा नहीं उकेरते  बल्कि उसके स्नेह, त्याग, बलिदान ममता और प्रेम की कथा भी सुनाते हैं। शरतचंद्र की कहानियों में नारी के निकृष्टतम और महानतम दोनों रूपों के साथ साथ आस्वादन होते हैं। जब शरतचंद्र नारी के अधोपतन की कथा कहकर उसी नारी के उदात्त और उज्ज्वल चरित्र को उद्घाटित करते हैं, तो पढ़ने वाला भाव विभोर रह जाता है । उसने मन में यह प्रश्न रह रह कर उठता है कि एक ही स्त्री के दो रूप कैसे हो सकते हैं और वह यह नहीं समझ पाता कि आख़िर वह नारी के किस रूप को स्वीकार करे। शरतचंद्र अपनी कहानियों में नारी हृदय की गांठों और गुत्थियों को जिस कुशलता से खोलते हैं, उनकी रचनाओं में नारी का जो बहुरूप सामने आता है, वैसी झलक विश्व-साहित्य में कहीं नहीं मिलती ।

शरतचंद्र एक कट्टर नारीवादी थे और हिंदू रूढ़िवाद के खिलाफ थे। उन्होंने अंधविश्वास और कट्टरता के खिलाफ लिखा। वे मानक सामाजिक व्यवस्थाओं में विश्वास नहीं करते थे। पितृसत्तात्मक समाज की व्यापकता भी शरत चंद्र चट्टोपाध्याय को महिलाओं और उनकी पीड़ा के बारे में लिखने से रोक नहीं सकी । उनका लेखन काफी प्रामाणिक और क्रांतिकारी था। जिस तरह से उन्होंने सामाजिक मानदंडों को खारिज किया, वह उनके लेखन में स्पष्ट रूप से देखा गया- `देवदास', `परिणीता', `बिराज बाउ' और `पल्ली समाज'। इन सबके अलावा, देश में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन ने भी उनके लेखन को प्रेरित किया। `पाथेर देबी', जिसे उन्होंने १९२६ में लिखा था, एक ऐसी कहानी थी जो बर्मा और सुदूर पूर्व में संचालित एक क्रांतिकारी आंदोलन के इर्द-गिर्द घूमती थी। भागलपुर में रचित ‘क्षुदेर गौरव’ हस्त लिखित पत्रिका ‘छाया’ में प्रकाशित हुई। उनकी सुप्रसिद्ध कृति ‘देवदास’ की चंद्रमुखी भागलपुर के मंसूर गंज की तवायफ कालीदासी है। मंसूरगंज में कालिदासी नाम की एक वेश्या थी, जो थी तो पर्याप्त संपन्न किन्तु कुछ सात्विक विचारों की थी। शरत के प्रति वह बहुत ही आदर रखती थी। शरतचंद्र का गला बहुत मधुर था। वे कुछ नाटकों में अभिनय भी करने लगे तथा कालीदासी के साथ इनके संबंध बहुत निकट के हो गए। १९-२० वर्ष की युवावस्था में उन्होनें देवदास की रचना भी प्रारंभ कर दी थी। उनके स्कूल की सहपाठिन जहाँ पारो (पार्वती) के रूप में अवतरित हुई वही भागलपुर के बदनाम बस्ती मंसूरगंज की नर्तकी कालीदासी ने चंद्रमुखी का रूप धारण किया, तो नाना के घर का नौकर धर्मदास के चरित्र का आधार बना। भागलपुर में अपने पिता मोतीलाल की एक घर-जंवाई के रूप में भोगी हुई पीड़ा को उन्होंने अपनी रचना ‘काशीनाथ’ में रूपांतरित किया। देवदास शरतचंद्र के यर्थाथ का वास्तविक चित्रण है । 

उन्होनें इति श्रीकांत चार भागों वाला उपन्यास लिखा जो क्रमशः १९१६, १९१८, १९२७ और १९३३ में प्रकाशित हुआ। शरतचंद्र का उपन्यास ‘श्रीकांत’ भागलपुर की पृष्ठभूमि पर ही लिखा गया है। इसे शरत चंद्र की `उत्कृष्ट कृति' के रूप में सराहा जाता है। उपन्यास में कथावाचक श्रीकांत एक लक्ष्यहीन भटकता हुआ व्यक्ति है। अपने गतिशील पात्रों के माध्यम से शरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्नीसवीं सदी के बंगाल को जीवंत कर दिया था। उस समय समाज पूर्वाग्रह से ग्रस्त था जिसे शरतचंद्र मौलिक रूप से बदलने इच्चा रखते थे। १९१७ में प्रकाशित `चरित्रहीन' चार महिलाओं की कहानी थी जिसमें समाज ने उनके साथ हुए अन्याय को अपनी लेखनी के माध्यम से शरतचंद्र ने प्रस्तुत किया था। `शेष प्रश्न' उनका अंतिम पूर्ण उपन्यास था जो प्रेम, विवाह, व्यक्ति और समाज से जुड़ी समस्याओं पर आधारित था ।

शरतचंद्र की चर्चा हो और विष्णु प्रभाकर का नाम न आए यह नहीं हो सकता है। आवारा मसीहा विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित प्रसिद्ध बांग्ला लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि एकाध को छोड़कर उनकी कोई भी संतोषजनक जीवनी बांग्ला में भी उपलब्ध नहीं थी। इस कार्य को पूरा करने का बीड़ा अनेक वर्ष पूर्व श्री विष्णु प्रभाकर ने उठाया था। वैसे शरतचंद्र के जीवन पर ‘आवारा मसीहा’ के पूर्व अनेक पुस्तकें हिन्दी व बांग्ला में लिखी गयीं, लेकिन आवारा मसीहा न सिर्फ एक अनुपम कृति है बल्कि जीवनीपरक लेखन का विशिष्ट उदाहरण भी है। आज की साहित्यिक गहमागहमी में लोग जोखिम भरा काम करने से परहेज करते हैं । लेकिन पूर्व लेखकों के साथ ऐसी बात नहीं थी वे रचना के प्रति समर्पित ही नहीं अपना काम करते हुए ईमानदारी और निष्ठा का भी भरपूर ध्यान रखते थे और यही कारण है वे दीर्घजीवी रचनाओं का जन्म दे सके। विष्णु प्रभाकर ने शरतचंद्र के किरदारों के स्त्रोत और रचना प्रक्रिया को टटोलने की दुष्कर चुनौती को स्वीकार किया और प्रमाणिकता के साथ निर्वहन भी। विष्णुजी ने इस जीवनी को लिखने के लिये न केवल बांग्ला सीखी, बल्कि उन जगहों पर गये, जहां शरत रहे थे और काम किया था। बंगाल, बिहार और वर्मा में फैली तथा देश में न जाने कहां-कहां के बिखरे कथा सूत्रों को जोड़ने के लिए गहन यात्राएं की। उन दिनों वर्मा जाना आसान नहीं था। वहां जाने के लिये इजाजत मिलना भी कठिन था। कोई सीधी हवाई सेवा भी नहीं थी। फिर वे वहां जाकर इस कार्य को पूरी इमानदारी से निभाया।

इन्द्र ज्योति राय 
 

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