भारतीय संस्कृति बहुत ही समृद्ध संस्कृति है जो, अनेक प्रकार के त्योहार, उत्सव, परंपराएं, रीति रिवाज स्वयं में समेटे है। परंपरा का अर्थ होता है अनवरत रूप से प्रवाहमान बने रहना। जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित विश्वासों और रीति रिवाजों को संदर्भित करता है। यह रीति रिवाज, यह परंपराएं हमारी सामूहिक सामाजिक विरासत होती है जो समाज में प्रत्येक स्तर पर व्याप्त रहती है। इस विरासत को संभालना और प्रवाहमान बनाए रखना हम सब के लिए आवश्यक है। भारत में अनेक भिन्न-भिन्न परंपराओं और रीति-रिवाजों की प्रधानता रही है। `पग पग बदले बोली पग पग बदले भेष' वाले देश में साल भर कोई ना कोई उत्सव, त्यौहार मनाये जाने की परंपरा अनवरत रूप से चलती ही रहती है। इन उत्सव और त्योहारों को मनाने के नियम और ढंग को ही हम रीति रिवाज कह सकते हैं। भारत की धरती में संस्कृति रीति रिवाज, परंपराओं को लेकर बहुत कुछ विशेष रहा है भारत में अनेक संस्कार और अनेक प्राचीन रीति रिवाजों की प्रधानता है जिनमें से कुछ तो आज भी हमारे समाज में विद्यमान है और कुछ धीरे-धीरे बिसरते चले जा रहे हैं या फिर उनका स्वरूप ही परिवर्तित हो चला है। टेसू मांगने का रिवाज भी एक ऐसा ही रिवाज है जो लगभग बिसराया जा चुका है और विलुप्त होने के कगार पर है ।
टेसू मांगने का रिवाज :-
टेसू उत्तर भारत का बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय त्यौहार है। `टेसू-संझा' या `झंझा' अब लुप्तप्राय हो चुके हैं। एक समय था जब बच्चे हाथ में टेसू लेकर घर-घर जाकर टेसू के प्रचलित गीत गाते हुए चंदा मांगते थे और हर घर से उन्हें नेग के रूप में अनाज या धन देकर विदा किया जाता था। जब तक बच्चों की टोली दक्षिणा नहीं पा लेती, दरवाजे से हिलती नहीं थी। इस दक्षिणा के धन को बच्चे टेसू और सांझी के विवाह में लगाते हैं वैसे यह उनके व्यक्तिगत मनोरंजन में भी खर्च हो सकता है । दक्षिणा का धन कैसे व्यय किया जाय यह पूर्णतया बालकों के अधिकार क्षेत्र की बात है। वर्तमान में टेसू दूर दराज के गांवों में ही कहीं- कहीं मनाया जाता है समान्यत: तो, टेसू का रिवाज लगभग खत्म ही हो चला है।
टेसू इंसान जैसी आकृति का एक खिलौना होता है जिसे लेकर बच्चे घर-घर घूमते हैं। टेसू के गीत गाकर पैसे मांगते हैं। पूर्णिमा के दिन टेसू और संझा का ब्याह कराया जाता है। लड़कियां सांझी बनती है और सांझी बनाते समय जो गीत गए जाते हैं वह स्थानीय भाषा में होते हैं। टेसू का खांचा बांस का बनाया जाता है। जिसमें मिट्टी की तीन पुतलियां लगाई जाती है जो क्रमशः राजा टेसू, दासी और चौकीदार की होती हैं या टेसू राजा और दो दासियां होती है। इसके बीच में दिया रखने की जगह बनाई जाती है। वर्तमान में तो टेसू के गीत भी किसी को ठीक से याद नहीं है। यह खेल दशहरे से प्रारंभ होकर शरद पूर्णिमा तक चलता है। दशहरे से ही गीत गाये जाने लगते हैं। गीत गाते हुए लड़कों की टोलिया गली मोहल्ले में हाथ में टेसू लिए घूमती फिरती है -
मेरा टेसू यहीं अड़ा
खाने को मांगे दही बड़ा
दही बड़े में पन्नी
धर दो झिंया अठन्नी
टेसू के यह गीत बड़े ऊंटपटांग और अद्भुत से होते हैं किंतु, बड़े ही मनोरंजक होते हैं। संझा व टेसू का यह खेल उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय है, जिसकी अपनी ही निराली छटा है। इसे बच्चे ही नहीं, युवा भी खेलते हैं। बाद में टेसू और संझा को जलाशय में विसर्जित कर दिया जाता है। मान्यता है कि टेसू और संझा के चेहरों पर जो कौड़ियां लगाई जाती हैं वह बहुत ही भाग्यशाली एवं कार्य सिद्धि में सहायक होती है।
टेसू के विषय में प्रचलित कहानियां:-
टेसू की उत्पत्ति के विषय में अनेक किवदंतियां हैं। एक मान्यता के अनुसार टेसू की एक कहानी महाभारत से भी जुड़ी बताई जाती है। कहते हैं कि, श्री कृष्ण ने भीम पुत्र बर्बरीक का सिर काटकर पेड़ पर रख दिया था परंतु वह शांत नहीं हुआ। तो कृष्ण ने अपनी माया से झंझा उत्पन्न की और उससे उसका ब्याह करा दिया तब कहीं जाकर बर्बरीक का सिर शांत हुआ।
दूसरी कथा के अनुसार एक ब्राह्मण की सुंदर कन्या पर टेसू नामक राक्षस मोहित हो गया और उससे विवाह रचा लिया। विवाह आधा ही संपन्न हो पाया था कि ब्राह्मण के परिवार के लोगों ने राक्षस को मार डाला क्योंकि कन्या का आधा विवाह राक्षस से हो चुका था तो उन लोगों ने कन्या को भी मार दिया। इसी कारण संझा व टेसू का आधा विवाह होने के बाद उन्हें तोड़ दिया जाता है। मान्यतानुसार किसी भी विवाह के आरंभ होने से पूर्व टेसू-संझा का विवाह करवाया जाता है ताकि जो भी विघ्न बाधा आए इसी विवाह में आ जाए और घर में विवाह कार्य सुगमता से संपन्न हो सके। यह त्यौहार दशहरा से प्रारंभ होकर शरद पूर्णिमा तक चलता है बाद में टेसू और संझा को विसर्जित कर दिया जाता है।
सदियों पुरानी टेसू खेलने की परंपरा छोटे-छोटे नन्हे हाथों द्वारा संपन्न होती है। कई स्थानों पर इसका प्रारंभ पितृपक्ष के प्रथम दिन से माना जाता है। कुमारी कन्याएं घर की दीवारों पर कुछ कलात्मक रंगीन चित्रों द्वारा संझा को प्रतीक रूप में बनाती हैं । यह पर्व बाल सुलभ रचनात्मक प्रवृत्तियों का पारंपरिक मूर्त रूप है। बच्चियां प्रत्येक संध्या को मंगल गीत गाते हुए गोबर और रंग बिरंगी चमकीली पन्नी के टुकड़ों से दीवार पर गोल थापी से निर्मित ाfचत्र रचती हैं । स्थानीय विशेषता के साथ तरैया बनाने की यह परंपरा संपूर्ण उत्तर भारत में प्रचलित है। इसे हम दक्षिण भारत की रंगोली के परंपरा का विकल्प कह सकते हैं। टेसू के कुछ प्रचलित गीत इस प्रकार है:-
१. टेसू के भाई टेसू के
पान पसेरी के
उड़ गए तीतर रह गए मोर
सड़ी डुकरिया लै गये चोर
चोरन के जब खेती भई
खाय डुकरिया मोटी भई।
कुछ लोग इसी को आगे बढ़ते हुए इस प्रकार भी गाते हैं
टेसू के भाई टेसू के....... मोटी भई
मोटी है के दिल्ली गई
दिल्ली से दो बिल्ली लाई
एक बिल्ली कानी
सब बच्चों की नानी
यह गीत आगरा और ब्रृज क्षेत्र में अधिक प्रचलित है।
२. टेसू भैया बड़े कसाई
आंख फोड़ बंदूक चलाई
सब बच्चन से भीख मंगाई
दोनों मर गए लोग लुगाई
ग्वालियर क्षेत्र का टेसू गीत इस प्रकार
३. टेसू के रे टेसू के
टेसू बैठो अंगना में
टेसू रे टेसू घंटार बजाइयो
नौ नगरी नौ गांव बसाईयो
बस गई नगरी बस गए मोर
हरी चिरैया ले गए चोर
आंगन में बोली कोयल
पिछवाड़े बोले मोर
चली है प्यारी संझा
हम सबसे मुखड़ा मोड़
एक और सुंदर टेसू गीत-
४. मेरा टेसू यही अड़ा
खाने को मांगे दही बड़ा
दही बड़े में पन्नी
धर दो झियां अठन्नी
टेसू अगर करे
टेसू मगर करे
टेसू कती ना डरे
टेसू लेकर ही टरे
कन्या पक्ष वाले एक मटकी बनाते हैं जिसमें चारों ओर छिद्र रहते हैं जिसमें एक दिया रखा जाता है। मटकी के छिद्रों से प्रकाश छनकर बाहर आता है इसे संझा नाम दिया जाता है इसके भीतर दीपक रखकर लड़कियां समूह बनाकर घर-घर जाकर चंदा एवं अनाज मांगती है। यह कार्य लड़कियां टेसू से नजर बचाकर करती है। पूरे ६ दिन लड़कियों और लड़कों की अलग-अलग टोलियां रोज गीत गाकर घरों से चंदा एकत्रित करते हैं। गोधूलि बेला में गाया जाने वाला एक संझा गीत इस प्रकार है:-
झांझी के भई झांझी के
फूल बतासे
सरवर तेरी दाढ़ी
महावर तेरे फूल
सास के आए लेंदी पैंदा
बेलन से लुढ़काए
मां के आए कुंवर कन्हाई
भर भर गोद खिलाए
अत्यंत धूमधाम से मनाया जाने वाला यह उत्सव अब अपनी चमक होता जा रहा है । अब तो टेसू मांगने का रिवाज लगभग सभी भूल चुके है।आधुनिकता की दौड़ में अब यह प्रथा बिसरती जा रही है। अब ना तो बच्चों में पहले सा उत्साह ही है ना ही कोई टेसू और संझा बनता है। टेसू के यह मधुर गीत जो कभी कानों में रस घोलते थे अब सुनाई नहीं देते। बच्चे बच्चियों का यह संयुक्त खेल अब विलुप्ति के कगार पर है। वर्तमान में बच्चों सहित हमारा पूरा समाज मोबाइल और कंप्यूटर की दुनिया में मस्त है। टेसू सहित इसी प्रकार के अन्य कई रीति रिवाज अब भूले बिसरे हो चुके हैं।
और हां! अंत में मैं, आप सब के साथ अपने पूजनीय पिताश्री (ससुर जी) के द्वारा उनके बचपन में गया जाने वाला दिल्ली- ६ का यह टेसू गीत जरूर साझा करना चाहती हूं, जिसे वह बड़े आनंद से गुनगुनाया करते थे। अब से लगभग २५ -३० वर्ष पहले गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर जब लाइट चली जाती थी तब घर के सभी नाती पोतों को अपने पास घेर कर बिठा लेते और उन्हें बहलाने के लिए यह टेसू सुनाया करते थे -
मेरा टेसू यहीं अड़ा
खाने को मांगे दही बड़ा
दही बड़े में मिर्चें भौत
आगे देखो काजी हौज
काजी हौज में चली छुरी
उससे आगे फतेहपुरी
फतेहपुरी में बैठा नाई
उसके आगे जमुना माई
जमुना जी में उड़े गये तोते
सब बच्चों ने लगाए मिलकर
जमुना जी में गोते
और
घर घर आकर अड़ेगें टेसू
लेकर ही नेग टलेंगे टेसू
दादा जी के साथ-साथ सभी बच्चे टेसू गायन में उनके साथ सुर मिलाया करते थे। आज इस प्रकार का आनंद लगभग दुर्लभ हो गया है। पारिवारिक आनंद भी इन्हीं रिवाजों की भांति मुट्ठी से फिसलता हुआ, स्मृति से लुप्त होता जा रहा है। अपनी संस्कृति, प्राचीन उत्सव और रीति रिवाजों को जीवित रखने का सामाजिक उत्तरदायित्व हम सबका है। जिसके प्रति हमें जागरूक होना ही चाहिए।
सीमा तोमर