हिन्दी साहित्य पर रवींद्र- चिंतन का प्रभाव
रवीन्द्रनाथ टैगोर वैश्विक कवि थे। वे केवल कवि ही नहीं , कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार, निबंधकार ,चित्रकार और संगीतकार के रूप में भी विश्व के पटल पर विख्यात हैं।देशकाल की सीमाओं से वे परे हैं।उनकी प्रतिभा का परिचय चिरंतन विश्व की व्यापकता में ही मिलता है। उनकी प्रतिभा और उनके व्यक्तित्व का प्रभाव न केवल बांग्ला साहित्य पर बल्कि अपने समकालीन और परवर्ती अन्य भारतीय साहित्य पर भी व्यापक रूप से पड़ा है।
प्रख्यात साहित्यकार हुमायून कबिर ने रवीन्द्रनाथ टैगोर के बारे में लिखा है -" टैगोर अपनी अस्सी वर्ष की लंबी उम्र में अपनी अन्तः प्रेरणा को जिस प्रकार से जिलाए रखा , वह उन्हें युग- युग तक जीवित रहने
वाले महान् कवियों की कोटि में रख देता है।जिस उद्दाम तेज ,उद्दम और जीवनी शक्ति से वे ऐसा करने में
समर्थ हो सके उसके पीछे उनके व्यक्तित्व की पूर्णता और अखण्डता है ।उन विभिन्न सूत्रों को उन्होंनें अपने में एकत्र कर लिया था जिनसे आज के भारत की समन्वयात्मक संस्कृति का निर्माण हुआ है।
यह गौरव उन्हीं को प्राप्त है कि उन्होंने भारत के बहुमुखी जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं को लिया और उन्हें आलोकित किया।संस्कृत साहित्य से उन्होंने बहुत कुछ लिया और बंगला की शब्दावलि और छन्द को समृद्ध किया।वैष्णव- गीति - काव्यात्मकता और सूफी रहस्य भावना के पूर्ण एकीकरण का श्रेय उन्हीं को प्राप्त है। थोड़े में , प्राचीन भारतीय साहित्य की विरासत, मध्य युग के विशिष्ट तौर- तरीके ,बंगाल के सर्वसाधारण के जीवन के सहज सत्य और आधुनिक यूरोप की उद्दाम शक्ति और बौद्धिक सबलता के सम्मिश्रण से रवीन्द्रनाथ की कविता का प्रादुर्भाव हुआ। वे सभी युगों और संस्कृतियों के उत्तराधिकारी हैं। इन भिन्न-भिन्न सूत्रों और प्रसंगों ने उनकी कविता को लोच , सार्वभौमिकता और अशेष हृदयग्राहिता प्रदान की है।"
आइये,अब रवीन्द्रनाथ टैगोर के चिंतन पर विचार- विमर्श करें। रवींद्र- साहित्य के एक प्रसिद्ध अध्येता और शोधकर्ता का अभिमत है -" रवीन्द्रनाथ के चिंतन में सागर की गहराई है। वे भावना में उदार, मानवता के प्रति संवेदनशील, सौंदर्य के प्रेमी और अत्यधिक सार्वभौमिक थे। उनके चिंतन में जीवन की एकता और ब्रह्म की सर्वव्यापकता सन्निहित है।उनमें अंधविश्वासों और रूढ़ियों के प्रति आलोचनात्मक भाव विकसित थे।उनकी साधना में व्यक्ति और सार्वभौमिकता के बीच सामंजस्य मूल संकल्पना पायी जाती है ,जो कि भारतीय संस्कृति का आधार है। उनके हृदय में क्रियात्मक सौंदर्य के प्रति गहरा झुकाव पाया जाता है।
निष्क्रिय जीवन और स्थिर चिंतन, संसार के प्रति उदासीनता और अनभिज्ञता की जगह उनमें जीवन की दृढ़ता और अमरता के प्रति स्पष्ट आकर्षण है।उनकी दृष्टि में सत्य को सुंदरता से अलग नहीं किया जा सकता है।उनके चिंतन में अत्यधिक नैतिक तनाव एवं मानवता के प्रति गहरी निष्ठा के भाव अंतर्निहित हैं।कमजोर और निर्धनों के प्रति उनमें गह सहानुभूति पाई जाती है जिसका आधार सामाजिक न्याय है।
" उनके चिंतन को और स्पष्ट करते हुए विख्यात लेखक और प्राध्यापक पंकज साहा लिखते हैं-" रवींद्र - चिंतन की मूल भावना शांति , प्रेम ,और मानवता है।वे उस सत्य की खोज के पथिक थे ,जिस सत्य का संधान युगों से हमारे मनीषी करते आए हैं।रवीन्द्रनाथ का उद्देश्य था - प्राणवान सृष्टि में सृष्टिकर्ता का साक्षात्कार करना और उस सृष्टिकर्ता का साक्षात्कार उन्होंने मध्ययुगीन अपार्थिव अध्यात्मवादी दृष्टि या निर्गुणों की रहस्यवादी दृष्टि से नहीं किया ,जो निवृत्ति मार्गियों का साध्य था।
उन्होंने उस प्रवृतिमूलक अध्यात्मवाद की प्रतिष्ठा की जिसमें रस की आत्मा - परमात्मा है , मानवता ही ईश्वर है और पृथ्वी ही स्वर्ग है ।" प्रख्यात साहित्यकार कुंवर नारायण ने कहा है-" टैगोर की कविताओं ने भारतीय भाषाओं के साहित्य को कई तरह से प्रभावित किया और उनकी भाषा शैली की झलक इनमें मिलती है।हिन्दी में तीस (30) के दशक के छायावाद में मुहावरे और वाक्य- संरचना का गहरा प्रभाव है।"
प्रख्यात साहित्यकार अमन कुमार ने लिखा है-" कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रतिभा से सारी दुनिया के साहित्यकार प्रभावित हुए हैं।मसलन , उन्होंने ' काव्य की उपेक्षिताएं ' नामक अपने निबंध में ' उर्मिला ' को काव्य की उपेक्षिताओं में गिनाया था। इससे प्रभावित होकर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने' कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता ' नामक निबंध लिखा और इसी निबंध के प्रभाव ने हिन्दी को ' साकेत ' ( मैथिलीशरण गुप्त) जैसा महान ग्रन्थ दिया ।
रवीन्द्रनाथ के नवीन मानवतावादी विचारधारा और चिंतन से अनुप्रेरित होकर गुप्त जी ने राम के चरित्र में मानवतावाद के गुणों का चरमोत्कर्ष का इन शब्दों में सुन्दर वर्णन किया है-" भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया/ नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया/ संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया / इस भू- तल को ही स्वर्ग बनाने आया।"
वैसे जिन दिनों रवीन्द्रनाथ का साहित्य हिन्दी जगत में आया ,उन दिनों हिन्दी का साहित्यकार काफी समर्थ हो चुका था ।
हिन्दी के साहित्यकार रवीन्द्रनाथ का अन्धानुकरण नहीं किया , परन्तु रवीन्द्रनाथ के साहित्य से मिलने वाली प्रेरणा को वे स्वस्थ भाव से ग्रहण किए।रवीन्द्रनाथ ने अपने साहित्य के द्वारा हिन्दी साहित्य के प्राणों को स्पन्दित किया है। "रवीन्द्रनाथ के ' विश्व मानवतावाद ' का प्रभाव हजारीप्रसाद द्विवेदी के सम्पूर्ण साहित्य पर पड़ा है। नरवणे जैसे साहित्यकार ने ' एन इंट्रोडक्शन टू रवीन्द्रनाथ टैगोर ' में लिखा है - आधुनिक लघुकथा
भारतीय साहित्य को रवीन्द्रनाथ टैगोर की देन है।"
डाॅक्टर रामेश्वर मिश्र ने अपने एक लेख में लिखा है-" गीतांजलि तथा नोबेल पुरस्कार के कारण रवीन्द्रनाथ सम्पूर्ण भारतवर्ष तथा विश्व में ख्यात हो चुके थे , किन्तु हिन्दी- जगत् इसके पूर्व ही उनके महत्व से परिचित हो चुका था।इलाहाबाद के इंडियन प्रेस द्वारा संचालित सरस्वती पत्रिका में 1901 से ही उनकी रचनाओं के अनुवाद छपने लगे थे।नोबल पुरस्कार की प्राप्ति के पश्चात उनकी ख्याति में अभूतपूर्व अभिवृद्धि हुई और उनकी सम्पूर्ण
रचनाओं का अनुवाद हिन्दी में होने लगा।इन अनुवादों के साथ- साथ हिन्दी - साहित्य पर रवींद्र नाथ के साहित्य का एवं विचारों का प्रभाव पड़ने लगा।"
हिन्दी - साहित्य में रवीन्द्रनाथ का प्रभाव छायावाद काल तक और विशेषकर काव्य- क्षेत्र तक रहा।उसके बाद यह प्रभाव नगण्य है।इस संदर्भ में प्रख्यात समालोचक नन्ददुलारे वाजपेई का भी यही अभिमत है। उपन्यास- सम्राट प्रेमचंद ने भी अपने एक पत्र में स्वीकार किया है -" कहानी लिखने की प्रेरणा मुझे रवीन्द्रनाथ से मिली ।बाद में मैनें अपनी शैली का निर्माण किया। " छायावाद काल के अतिरिक्त रवींद्र- चिंतन का प्रभाव नागार्जुन, अज्ञेय, मुक्तिबोध एवं बाद के कुछ कवियों की कविताओं में देखी जा सकता है।
महादेवी वर्मा ने रवींद्र ' साहित्य से उच्च कोटि के सौंदर्य- बोध, रहस्यवादी रंग की रागात्मकता , कला - प्रेम और मनुष्य की अपराजेय शक्ति में विश्वास के लिए प्रेरणा प्राप्त की।महादेवी वर्मा ने स्वयं स्वीकार किया है कि " रवीन्द्रनाथ की छाया में हमारे युग की यात्रा आरंभ हुई और उनकी वाणी में हमने ने जीवन की प्रथम पुकार सुनी और उनकी दृष्टि ने ही अंधकार को भेदकर हमें भविष्य का पहला उज्ज्वल संकेत दिया।"
छायावादी कवियों में निराला का रवींद्र- साहित्य से सर्वाधिक परिचय था।उन्होने ' रवींद्र कविता कानन '
नामक एक पुस्तक भी लिखी।निराला जी ने तो रवीन्द्रनाथ की कुछ पंक्तियाँ हु- ब- हू प्रभावित होकर लिख डाली। इसक मतलब यहाँ उनकी मौलिकता पर प्रश्न खड़ा करना कदापि नहीं है।रवीन्द्रनाथ की इन पंक्तियों को पढ़िए-" कौन थेके पथ चेये आर काल गुने/ एसइ आछि तोमार लागि हाय प्रिय/ टुटल जखन सकल अवगुंठन - इ / रइल जखन केवल सुखे लुंठन- इ/ काल अकालेर बाद विचारे चुप प्रिय।"
इन पंक्तियों से निराला की निम्नलिखित पंक्तियों का मिलान कीजिए -" कबसे मैं पथ देख रही प्रिय/ और न तुम्हारी रेख रही प्रिय / तोड़ दिए जब सब अवगुंठन/ रहा एक केवल सुख लुंठन / तब क्यों इतना विस्मय कुंठन/ असमय न करो खड़ी प्रिय! " सुमित्रानंदन पंत ने भी रवींद्र के प्रभाव को इन शब्दों में स्वीकार किया है-" मैं रवींद्र के गहरे प्रभाव को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करता हूँ और यदि लिखना एक अनकांशस-कांशस प्राॅसेस है तो मेरे उपचेतन ने इनकी निधियों का यत्र- तत्र उपयोग भी किया है।"
पंत की प्रसिद्ध कविता ' प्रथम रश्मि 'पर रवींद्र के ' भोरेर पाखी ' की छाया स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
छायावादी कवियों में जयशंकर प्रसाद रवीन्द्रनाथ से सबसे कम प्रभावित दिखते हैं,पर उनकी आरंभिक कविताओं में , विशेषकर ' चित्राधार ' , ' कानन कुसुम 'आदि में रवीन्द्रनाथ का प्रभाव दिखाई देता है। ' कामायनी ' में मनुष्य की चिंता , उसके पौरूष , श्रद्धा का सौंदर्य- चिंतन के बहाने नारी का उदात्त एवं नवीन रूप , श्रद्धा का समर्पण- भाव आदि में रवींद्र- चिंतन का प्रभाव परिलक्षित होता है।"
खड़गपुर कालेज के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर पंकज साहा जी का ऐसा मानना है।अपने एक लेख में उन्होंने रवींद्र और प्रसाद की पंक्तियों का प्रमाणिकता के साथ तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है। इसके अलावे मोहनलाल महतो 'वियोगी ' की' एकतारा ' काव्य और अज्ञेय की ' असाध्य वीणा ' और ' कितनी नावों में कितनी बार ' जैसी कविताओं में रवींद्र- चिंतन का स्पष्ट प्रभाव है। 7 ( सात) मई को उनके जन्मदिन पर गुरूदेव को कोटि कोटि नमन समर्पित कर राष्ट्र का मस्तक गौरव से ऊँचा हो रहा है।
अरूण कुमार यादव
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