कविता

सखी री होली आई

छा रही  अजब बहार, सखी री होली आई है।

अरे, ओ फागुन

युगों -युगों से भीगी नहीं बसंती चोली  रही सदा ही सूनी -सूनी मेरी होली 

होली की यादें

बचपन  में  खेली  होली, की  यादों  ने  गुदगुदाया।

नारी

नारी दुर्गा रूप को ,अबला कहे समाज। पहना कर फिर बेड़ियां,निर्बल करता आज ।

नारी की परिभाषा

सीखो जीना अब समाज तुम एक काबिल नारी के संग

दोषी तुम नहीं थे

प्रेम मेरे हिस्से उतना ही आया जितना जाल में फंसी मछली के हिस्से जीवन

लौटना

बेटियाँ जब लौट आती हैं पीहर देखती है रूठा घर -द्वार अपना

सृजनकारी है वनिता

सहना मत अन्याय को, इससे बड़ा न पाप। लो अपना अधिकार तुम, छोड़ो अपनी छाप ।

अब न कुछ आस ना ही अंकुरण

प्रेम और अनुराग से सिक्त था हृदय जो  अब   हमारे  दिल  से  उठती  वेदना है| 

मेरी पहचान

इस समाज की खातिर अबला,  होती है बदनाम भला क्यों ? 

महिला दिवस

लड़की पैदा होने पर जब लड्डू सारे गाँव बँटेगा.

हमसफर

आंधी तूफान चलती है साथ साथ, पर कर नही पाती

जलता चला गया

शिकायत बहुत थी जिंदगी से, पर बताता किसको? हर शख्स मुझे देखकर, बचता चला गया।

बदल कर तो देखो

न रहेगी जिंदगी से शिकायत तुमको कभी, कई दिन से भूखे बच्चे की तरह,पल कर तो देखो।

तितली

उड़कर फुनगी पर चढ़े,रंगीली सी गात। कैसे वह पहचानती, होने वाली प्रात।।

रंगीला फाग

पहला मधुकर रंग हो, इतना तो अधिकार। गोरी कोरी देह पर,दे पिचकारी मार।।