मानवीय मूल्यों की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान

जमीदार परिवार में जन्मी सुभद्रा कुमारी चौहान ने कक्षा ८ तक शिक्षा ग्रहण की तभी उनका विवाह कर दिया गया। मध्य प्रदेश के खंडवा निवासी ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाह कर सुभद्रा कुमारी चौहान को जीवन का एक सच्चा हमसफ़र मिला। विवाह के उपरांत में शिक्षा और लेखन सुचारू रूप से चलता रहा। लेकिन शिक्षा का क्रम कक्षा ९ के बाद टूट गया। देश प्रेम के स्वर मन में प्रबल होते गए और सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने नाटककार पति के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया।

Dec 2, 2024 - 16:18
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मानवीय मूल्यों की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान
Subhadra Kumari Chauhan
मैं बचपन को बुला रही थी  
बोल उठी बिटिया मेरी।
नन्दन वन-सी फूल उठी यह  
छोटी-सी कुटिया मेरी।।
`माँ ओ' कहकर बुला रही थी
मिट्टी खाकर आई थीं।
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में
मुझे खिलाने लाई थी।।
पुलक रहे थे अंग, दृगों में
कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आहृलाद-लालिमा
विजय-गर्व था झलक रहा।
मैंने पूछा `यह क्या लाई'?
बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से
मैंने कहा- `तुम्हीं खाओ'।।
पाया मैंने बचपन फिर से
बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर
मुझ में नवजीवन आया।।
मैं भी उसके साथ खेलती
खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं
भी बच्ची बन जाती हूँ।
जिसे खोजती थी बरसों से
अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर
वह बचपन फिर से आया।
कविता की इन पंक्तियों से यह अनुमान लगाना अथवा कल्पना करना सर्वथा सहज है कि, यह शब्द बिल्कुल घरेलू, घर-परिवार तक सीमित एक चुलबुली  और अपार ममतामई मां के स्वर हैं। लेकिन अगर कहें कि यह स्वर उनके ही हैं जिन्होंने जलियांवाला बाग झांसी की रानी जैसी कालजई रचनाएं लिखीं, तो शायद एक बार विश्वास करना मुश्किल हो जाए।
घर की दहलीज के अंदर अपनी जिम्मेदारियां, अपने स्वाभिमान को जागृत रखने के लिए शिक्षा और लेखन, और देश के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान ने इन कविताओं को ऐसे रचा कि जन जन के जुबान में बस गया।  मर्दानी और झांसी की रानी ये शब्द ऐसे प्रचलित हुए कि घर घर जुबान जुबान पर बस गए और बालिकाओं के लिए उत्साह और उल्लास की एक अनोखी वजह बने।
१६ अगस्त १९०४ में प्रयागराज के निकट निहालपुर में जन्म लेने वाली  नन्हीं बच्ची कब पालने से उतर कर, नन्हे कदमों से चलते हुए कलम की एक मजबूत सिपाही बन गई पता ही नहीं चला। सुभद्रा कुमारी चौहान नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं। उनकी सोच सामान्य नहीं थी। मजबूत और दृढ़ निश्चयी विचारधारा के साथ देश-काल, समाज और स्वाभिमान के हर पक्ष को परखने वाली पारखी थी सुभद्रा कुमारी चौहान। उन्होंने स्त्री सम्मान के लिए संघर्ष किया। स्त्री सुरक्षा और अधिकारों के लिए उनके स्वर बहुत बेबाकी से उठे। मात्र ९ वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी और वह प्रकाशित भी हुई। बाल्यावस्था में ही उनका काव्य कौशल लगातार निखरता गया। थोड़ी ही देर में कविता लिख लेना उनकी विशेषता बन गयी। अध्ययन में रुचि ने सुभद्रा जी की विचारशीलता को लगातार निखारा...
आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार।
प्राची पश्चिम भू नभ अपार
सब पूछ रहे हैं दिग-दिगन्त ।
वीरों का कैसा हो वसंत?
जमीदार परिवार में जन्मी सुभद्रा कुमारी चौहान ने कक्षा ८ तक शिक्षा ग्रहण की तभी उनका विवाह कर दिया गया। मध्य प्रदेश के खंडवा निवासी ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाह कर सुभद्रा कुमारी चौहान को जीवन का एक सच्चा हमसफ़र मिला। विवाह के उपरांत में शिक्षा और लेखन सुचारू रूप से चलता रहा। लेकिन शिक्षा का क्रम कक्षा ९ के बाद टूट गया। देश प्रेम के स्वर मन में प्रबल होते गए और सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने नाटककार पति के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। अनेक आंदोलनों में सहभागिता के साथ स्त्रियों के आजादी की अलख जगाने के लिए सुभद्रा कुमारी चौहान ने दिन रात काम किया। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में स्त्रियों की मौजूदगी को बढ़ाया। पति-पत्नी दोनों ने गांधी जी के साथ असहयोग आंदोलन में शामिल होना तय किया और सक्रिय रुप से उसमें शामिल हो गए। आजादी की चाहत और मन के जुनून की झलक सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं में बड़ी सहजता से मिल जाती है। वीर रस से सराबोर मन में उन्माद भर देने वाली कविताओं का स्पष्ट उदाहरण हम झांसी की रानी कविता में पाते हैं। जिसने झांसी की रानी को हर घर की नायिका बना दिया।
सिंहासन हिल उठे
राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई
 फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की
कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जलियांवाला बाग कांड में सुभद्रा कुमारी चौहान अत्यंत आहत हुई। इतनी बड़ी संख्या में एक साथ नरसंहार  उनके कवि हृदय को द्रवित कर गया।
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।
उनकी रचना ‘बिखरे मोती’ के पहले पेज किया गया निवेदन दिल को छू लेने वाला है। पढ़ें इसका छोटा सा टुकड़ा-
‘हृदय के टूटने पर आंसू निकलते हैं, जैसे सीप के फूटने पर मोती। हृदय जानता है कि उसने स्वयं पिघलकर उन आंसुओं को ढाला है। अतः वे सच्चे हैं। किंतु उनका मूल्य तो कोई प्रेमी ही बतला सकता है। उसी प्रकार सीप केवल इतना जानती है कि उसका मोती खरा है, वह नहीं जानती कि वह मूल्यहीन है अथवा बहुमूल्य। उसका मूल्य तो रत्नपारखी ही बता सकता है। मैं भूखे को भोजन खिलाना और प्यासे को पानी पिलाना अपना परम धर्म समझती हूं। ईश्वर के बनाए नियमों को मानती हूं।'
सुभद्रा कुमारी चौहान की भाषा शैली अत्यंत सरल और सुगम थी, जिससे आम जनमानस में उनकी कविताओं के प्रति लगाव आसानी से हो जाता था। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं के दो संग्रह `मुकुल' और त्रिधारा प्रकाशित हुए। जिनमें उनकी काव्यात्मक अभिरुचि के प्रत्येक पहलू नजर आते है। उन्होंने अपनी कविताओं में  देश- प्रेम और मानवीय संवेदना को प्रमुखता से स्थान दिया। उन्होंने स्त्रियों के स्वाधीनता और जातियों के उद्भव और उत्थान जैसे विषय पर भी अपनी धारदार और बेजोड़ लेखनी चलाई। उनकी कविता में एक स्त्री के सभी रूप मां, बहन पत्नी के साथ ही सच्चे देशभक्त की पुकार भी स्पष्ट रूप से सुनाई देती है।
सुभद्रा कुमारी चौहान ने सिर्फ कविताएं ही नहीं लिखी उन्होंने बड़ी संख्या में कहानियां भी लिखीं। उनकी कहानियों के तीन संग्रह प्रकाशित है, जिनमें `बिखरे मोती' `उन्मादिनी' `सीधे-सादे चत्रि' शामिल हैं। आपका साहित्य संसार कितना गहरा था उतना ही ग्राह्य भी। उनकी कहानी संग्रह बिखरे मोती के आरंभ में निवेदन के कुछ शब्दों ने अनायास ही अपनी ओर आकर्षित किया। पढ़ें इसका छोटा सा टुकड़ा-
‘हृदय के टूटने पर आंसू निकलते हैं, जैसे सीप के फूटने पर मोती। हृदय जानता है कि उसने स्वयं पिघलकर उन आंसुओं को ढाला है। अतः वे सच्चे हैं। किंतु उनका मूल्य तो कोई प्रेमी ही बतला सकता है। उसी प्रकार सीप केवल इतना जानती है कि उसका मोती खरा है,वह नहीं जानती कि वह मूल्यहीन है अथवा बहुमूल्य। उसका मूल्य तो रत्नपारखी ही बता सकता है। मैं भूखे को भोजन खिलाना और प्यासे को पानी पिलाना अपना परम धर्म समझती हूं। ईश्वर के बनाए नियमों को मानती हूँ ‘सीधे साधे चित्र' सुभद्रा कुमारी चौहान की अंतिम कहानियों का संग्रह था, जिसमें १४ कहानी शामिल की गई। जिनमें रूपा,कैलाशी, नानी, बी आल्हा, कल्याणी, साथी, प्रोफ़ेसर मित्रा, दुराचारी व मंगला जैसी कहानियां हैं। जिनमें अधिकांश नारी प्रधान कथावस्तु पर एवं पारिवारिक सामाजिक समस्याओं से सरोकार रखने वाली कहानियां हैं। सुभद्रा जी का काव्य जीवन और उनका दैहिक जीवन मात्र ४३ वर्ष की अवस्था में १५ फरवरी १९४८ में समाप्त हो गया। लेकिन उनकी मौजूदगी उनकी कविताओं के माध्यम से हमेशा है और हमेशा रहेगी।
उर्वशी उपाध्याय

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