Hill Station : लेंडीर देखो तो हिल स्टेशन, मिलो तो फील स्टेशन 

19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में अंग्रेजों ने मंसूरी से लगे लेंडोर का विकास कार्य यानी समय के साथ सैन्य-कम-बजट का केंद्र बना। कंपनी सरकार के गोरे नौकरशाहों के हिसाबकिताब के कार्य के लिए भारतीय क्लर्कों की जरूरत महसूस हुई। इससे तत्कालीन सरकार ने अंग्रेजी के भाषा ज्ञान के लिए लेंडोर में लैंग्वेज स्कूल की स्थापना की। अंग्रेज राजनीतिक नेता-कम-इतिहासकार थाॅमस मैकाले ने भारत के लिए सुझाई कामचलाऊ शिक्षा पद्धति की बुनियाद पर लेंडोर लैंग्वेज स्कूल में भारतीयों को हिसाबकिताब करने का तथा अंग्रेजी लिखने-पढ़ने-बोलने की पर्याप्त शिक्षा दी जाती थी।

Jun 15, 2024 - 18:35
Jun 15, 2024 - 18:39
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Hill Station : लेंडीर देखो तो हिल स्टेशन, मिलो तो फील स्टेशन 
hill station
If we liked noisa, ew wouldn't live here, if we liked noise, should't be here.
भावार्थ: हमें शोर पसंद होता तो हम यहीं न रहते, आप को शोर पसंद हो तो आप को यहां नहीं आना चाहिए था।
उत्तराखंड की शिवालिक पहाड़ों की रानी के रूप में जानी जाने वाली मंसूरी से करीब सात किलोमीटर दूर ऐतिहासिक और अलौकिक पहाड़ों के समूह लेंडोर के लाल तिब्बा व्यू प्वाइंट पर एक बोर्ड लगा है, जिसमें जो ऊपर लिखा है, वह पढ़ने को मिलता है। यह बात अलग है कि लाल तिब्बा का शोर पिकनिक स्पाट बनाने वाले अधिकतर पर्यटक इस लिखावट पर ध्यान नहीं देते। बाकी वाक्य खुद में गूढ़ और अर्थपूर्ण है। एक ओर लेंडोर समाधि अवस्था जैसे शांत स्वभाव का स्मरण कराता है तो दूसरी ओर समाधि में खलल डालने वाले (प्र)दूषक तत्व को सिफतापूर्वक घुमाता भी है।
लगभग 3 हजार स्थानीय निवासियों के लिए लेंडोर हमेशा आवास है, जहां प्रकृति की गोद में वे अत्यंत शांतिपूर्ण जीवन बिताते हैं। शहरी भीड़भाड़, कोलाहल, वाहनों के हार्न जैसे न्यूसंस अगर वे सह लेते तो मार्डन जीवनशैली छोड़ कर 7,500 फुट ऊंचे चीड और देवदार के जंगलों के बीच 'वनवासी' बन कर न रहते। शांति तथा एकांत उनकी स्वैच्छिक स्वीकार की गई स्थिति है। जिसमें काफी समय से (इंस्टग्राम रील के अनुसार) पर्यटकों की अपार भीड़ से हमेशा खलल पहुंच रही है। इसलिए आज लेंडोर में घूमने निकलें तो 'If we liked noice, we wouldn't live here...' उसी तरह शांति की खोज में हैं तो खुद शांत रहना आवश्यक है...' जैसे बोर्ड पढ़ने को मिलते हैं। शनिवार-रविवार और छुट्टियों में सैकड़ों गाड़ियां सैलानियों के साथ लेंडोर आ पहुंचती हैं। गैरजरूरी हार्न, लाउड म्यूजिक, जंगल के शांत वातावरण को चीरती आवाजें आदि जैसे न्यूसंस पैदा करते हैं, जिसकी वजह से लेंडोर के शांतिप्रिय निवासी अब पर्यटकों को तिरस्कार भरी नजरों से देखने लगे हैं।
मंसूरी से गाड़ी में बैठ कर चार दुकान नामक स्थान तक जाना, वहां नाश्तापानी करने के बाद वहां से आगे लाल तिब्बा व्यू प्वाइंट से हिमालय की चोटी देखने और शाम के पहले मंसूरी वापस आना, यही लगभग लेंडोर यात्रा की रूपरेखा है। परंतु किसी मतलब से यात्रा कर रहे हैं तो ध्यान रखना चाहिए कि लेंडोर टी20 जैसा धमाचौकड़ी भरा नहीं, बल्कि टेस्ट मैच जैसे धीमे आयाम में करने जैसी यात्रा की पिच है। इस पिच पर राहुल द्रविड़ जैसे स्लो और स्थितप्रज्ञ बन कर उतरेंगे, तभी लेंडोर के इतिहास, प्रकृति और खास कर शांति, ये तीनों महत्वपूर्ण पहलुओं का आनंद मिलेगा।
भारत के बहुधा पहाड़ी स्थानों को अंग्रेजो ने ब्रिटिशहिंद शासन के दौरान 'खोजा' और विकसित किया। मंसूरी-लेंडोर का भी समावेश इन्हीं स्थानों की सूची में होता है। 19वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिशहिंद की सेना के अफसर कैप्टन फ्रेडरिक यंग ने मंसूरी में गोरखा बटालियन की छावनी स्थापित की थी तो उसके पहले मंसूरी स्थानीय चरवाहों के लिए भेड़-बकरी चराने का स्थान था। कहा जाता है कि मसूर अथवा मंसूर के रूप में जाना जाने वाला पेड़ यहां व्यापक मात्रा में होने की वजह से इस स्थान का नाम मंसूरी पड़ा। मंसूरी शब्द के मूल में इस नाम का पेड़ निकलता है, जबकि लेंडोर के मूल में तो अंतत: इंग्लैंड के वेल्स प्रांत तक पहुंचा है, जहां Llanddowror/ लेंडोरर नाम का गांव बसा है। समय के साथ लेंडोरर का लेंडोर हुआ और अपभ्रंस का आगामी पड़ाव स्थानीय गढ़वालियों ने लेंडोर का लेण्ढोर कर दिया।
समुद्र तल से लगभग साढ़े 6 हजार फुट की ऊंचाई पर मंसूरी में साल 1825 में पहली बार गोरखा सैनिकों की छावनी स्थापित होने के बाद वहां पक्के मकान, स्कूल, अस्पताल और मंदिर-मस्जिद आदि सुविधाएं खड़ी की गईं। इसी विकास के परिणामस्वरूप 1927 में लेंडोर में सोलारियम के स्वरूप में पहला पक्का मकान बना। विटामिन डी की कमी के कारण हड्डियों के कमजोर हो जाने तथा हड्डियों की टीबी की समस्या वाले अंग्रेज सोलारियम में लंबे समय तक रुकते और दिन में देर तक धूपस्नान द्वारा शरीर की विटामिन डी की आपूर्ति करते। आज वह ऐतिहासिक मकान और उसके आसपास की भूमि भारत के डिफेंस रिसर्च डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन/ डीआरडीओ के अंतर्गत है, जहां वैज्ञानिक भरतीय सेना के लिए आधुनिक उपकरणों की खोज और शोध करते हैं। 
19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में अंग्रेजों ने मंसूरी से लगे लेंडोर का विकास कार्य यानी समय के साथ सैन्य-कम-बजट का केंद्र बना। कंपनी सरकार के गोरे नौकरशाहों के हिसाबकिताब के कार्य के लिए भारतीय क्लर्कों की जरूरत महसूस हुई। इससे तत्कालीन सरकार ने अंग्रेजी के भाषा ज्ञान के लिए लेंडोर में लैंग्वेज स्कूल की स्थापना की। अंग्रेज राजनीतिक नेता-कम-इतिहासकार थाॅमस मैकाले ने भारत के लिए सुझाई कामचलाऊ शिक्षा पद्धति की बुनियाद पर लेंडोर लैंग्वेज स्कूल में भारतीयों को हिसाबकिताब करने का तथा अंग्रेजी लिखने-पढ़ने-बोलने की पर्याप्त शिक्षा दी जाती थी।
कुछ सालों बाल अमेरिका के मिशनरी/ क्रिश्चियन धर्म प्रचारकों का लेंडोर में आनाजाना होने लगा तो स्थानीय लोगों से बातचीत करने के लिए हिदी, गढ़वाली और उर्दू की जरूरत पड़ी। लेंडोर लैंग्वेज स्कूल इन तीनों भाषाओं को सिखाने का वन-स्टाप स्थान बना। सालों से खड़ा यह स्कूल में आज भी अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, गढ़वाली, पंजाबी और संस्कृत का भाषा ज्ञान लेने के लिए देश-विदेश के विद्यार्थी आते हैं। शिक्षा की परंपरागत प्रणाली के अनुसार एक बड़े कक्ष में तमाम विद्यार्थी होते हैं, जिन्हें एक शिक्षक समूह में पढ़ाता है। परंतु लेंडोर लैंग्वेज स्कूल में भाषा ज्ञान इस तरह नहीं दिया जाता। यहां एक विद्रार्थी पर एक शिक्षक होता है और गुरु-शिष्य आमने-सामने बैठ कर ज्ञान का लेनदेन करते हैं।
शिक्षा का अंग्रेजों के जमाने वाला दूसरा महत्वपूर्ण स्थान वुडस्टोक स्कूल है, जिसकी स्थापना साल 1854 में हुई थी। मंसूरी-लेंडोर में नौकरी करने वाले गोरे लाटसाहबों के संतानों को उच्चकोटि की शिक्षा के लिए इस स्कूल का गठन किया गया था। साल की 20-25 लाख रुपए जो लोग फीस दे सकते हैं, इस तरह के मां-बाप की संतानें आज वुडस्टोक स्कूल मे पढ़ती हैं।
पुराने मकान, स्कूल तथा पूजास्थल का स्थापत्य लेंडोर के अतीत की यादगार है। इसी तरह अमुक यादगार चेतना स्वरूप भी है। जैसेकि लाल तिब्बा से आगे जाने वाली शांत सड़क पर एक जगह पुराना श्मशान दिखाई देता है। मंसूरी-लेंडोर में नौकरी करने वाले अंग्रेज अधिकारी तथा अमेरिकी पादरियों की लाशें वहां दफनाई गई हैं। श्मशान जैसी शुष्क और नकारात्मक जगह में चेतना जैसा क्या हो सकता है?
पर लेंडोर का मामला अलग है। क्योंकि पूरा श्मशान देवदार के गगनचुबी वृक्षों से आच्छादित है, जिनकी संख्या सैकड़ो में है। पर इसमें एक देवदार खास है। ब्रिटिश साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया के पुत्र प्रिंस फ्रेडरिक (ड्यूक आफ एडिनबर्ग) साल 1870 में लेंडोर आए थे, तब उन्होंने अपने हाथ से देवदार का वह पेड़ लगाया था। डेढ़ दशक के बाद आज भी उस पेड़ के तने में नीचे देखो तो धातु की एक तख्ती पर 'Planted by HRH Dike of Edinburgh, February 1870', लिखा पढ़ने को मिल जाएगा। वृक्ष का शिखर देखने के लिए सिर को खासा ऊंचा करने पर मन में यही विचार आता होगा कि 150 सालों के दौरान यह वृक्ष न जाने कितने प्रसंगों का साक्षी है। इस हिसाब से उसे सहज वृक्ष मानने के बजाय डेढ़ दशक का इतिहास माना जा सकता है। 
इस तरह की चीजें देखने के बाद मन में आता है कि लेंडोर की यात्रा अर्थपूर्ण है। परंतु इसके लिए सफर की रफ्तार धीमी होनी चाहिए और प्रकृति का रसपान पंचामृत की तरह करना चाहिए। प्राकृतिक सुंदरता तो लेंडोर में चहुंओर फैली है, इसलिए यहां टहलते समय अच्छा लगे तो 'कोना' पकड़ कर आराम से बैठ जाएं तो वन, वातावरण और विपस्यना का आनंद मिलता है। थोड़े में बहुत कुछ कहने वाला उस बोर्ड पर जो लिखा है, 'शांति की खोज मैं हैं, तो खुद का शांत रहना आवश्यक है' सही अर्थ में शब्दश: अमल में ले सकें तो लेंडोर की शांति में अलौकिकता का अनुभव हुए बिना नहीं रहेगा। इस भाव में नगाधिराज के प्रति अहोभाव का बूस्टर डोज मिलाने के लिए नजर के सामने स्वर्गारोहिणी और बंदरपूंछ जैसे उत्तुंग शिखर हों तो एक सच्चे प्रकृति प्रेमी का तन मन स्थिर हो जाएगा। समय भी थम जाएगा।
और सच पूछो तो लेंडोर को पाने का यही सही तरीका है। यहां आने के बाद समय के साथ होड़ में उतर कर फटाफट सब कुछ घूम लेने के बजाय समय के चक्र को मन में ब्रेक द्वारा धीमा कर के आराम से दम लेने जैसा है। प्वाइंट टू प्वाइंट घूमने के बजाय कोनेअंतरे में छुपी प्राकृतिक और उसी तरह ऐतिहासिक अजीबोगरीब खोज निकालने का बालसहज आनंद लेने जैसा है। एक पर्सनल अनुभव : अब तक लेंडोर 9 बार जाने के बाद भी हर बार कुछ नया देखने और जानने को मिला है। अभी दूसरा बहुत कुछ देखने-जानने को बाकी रह गया होगा, यह सोच कर बारबार लेंडोर जाने का मन होता है।
इतिहास, प्रकृति, हिमालत और शांति के अलावा लेंडोर जाने लायक पहलू वहां विशिष्ट खानपान है। जैसे कि 20वीं सदी के शुरू में अंग्रेज नौकरशाहों की पत्नियों द्वारा मिल कर तैयार की गई पाककला की 'The Landour Cookbook' शीर्षक वाली रेसिपी बुक के आधार पर आधुनिक व्यंजन परोसती लेंडोर बेक हाउस में एक बार जाने जैसा है। सिस्टर्स बाजार इलाके में स्थित यह ऐतिहासिक स्वाद से सहज आगे प्रकाश स्टोर्स नाम की दूसरी पुरानी दुकान है, जो गृहउद्योग से बने फ्रूट जाम, चटनी, अंचार तथा पीनट (मूंगफली) बटर के लिए पिछले लगभग सौ सालों से मशहूर है। चार दुकान के रूप में प्रख्यात इलाके में चार अनोखे फूड स्टोब्स पर बनती गरमागरम पकौड़ियां, पनीर पकौड़ा, पेनकेक, अदरक-नींबू-शहद युक्त हरी चाय, मैगी आदि का स्वाद लेने के लिए बैठा जा सकता है। पर्यटकों की सब से अधिक भीड़ यहीं होती है। 
पर आज चार दुकान पर खानपान के लिए इंतजार में बैठने वाले पर्यटकों को मुश्किल से ख्याल आता है कि इन चार दुकानों को मिला कर एक दुकान के ऊपर लेंडोर का अपना छोटा सा पोस्ट आफिस भी है। एक बार में एक ही आदमी ऊपर जा सके इतनी संकरी लकड़ी की सीढ़यों से ऊपर जाने पर पोस्ट आफिस का छोटा सा कद लदेख कर लगता है कि एक अलग ही दुनिया में आ गए हैं। यहां से सादा या फोटो वाला पोस्ट कार्ड स्वयं ही स्वयं के पते पर पत्र भेजें तो वह पत्र आप को हमेशा लेंडोर यात्रा की याद दिलाता रहेगा।
यह है लेंडोर का शिवालिक के पहाड़ों में शांति का स्थान या जहां देखने लायक क्या है? तथा करने लायक क्या है? जैसे सवालों की कोई जगह नहीं है। क्योंकि यहां देखने लायक दृश्यों की कमी नहीं है। करने लायक चिंतन-मनन-निजानंद के अलावा भौतिक प्रवृत्ति नहीं है। यही प्रवृत्ति ही आखिर में लेंडोर की प्रकृति के साथ प्रेम का तंतु बांधती है।
वीरेंद्र बहादुर सिंह 
जेड-436ए  सेक्टर-12,
नोएडा-201301 (उ.प्र.)

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