पलायन
ये बंजर ज़मीनें, ये खण्डर मकां, राहों को तकते, ये जर्जर मकां,
ये बंजर ज़मीनें, ये खण्डर मकां,
राहों को तकते, ये जर्जर मकां,
इक अर्सा हुआ सुन के कदमों की आहट,
के अब रह गए सिर्फ कंकर मकां।
ये नदियां जो बहतीं पहाड़ों को लेकर,
कभी मुड़ के वापस क्यों आती नहीं हैं,
ये गलियां ये पगडंडियां और ये सड़कें,
क्या घर वापसी की मुनादी नहीं हैं?
वो बचपन, जवां हो के निकला जो घर से,
क्या घर की वो कीमत समझता न होगा?
वो संगीत पेड़ों, नदी, पंछियों का,
क्या कानों में उसके वो बजता न होगा?
तो सीनों में धड़कन धड़कती है कैसे?
क्या चुभते नहीं बन के खंज़र मकां?
ये बंजर ज़मीनें...
वो कहते हैं पल पल है बढ़ता हिमालय,
मैं देखूं इसे रोज घटते हुए,
ये पानी-जवानी, ये पत्थर ये मिट्टी,
खुले हाथ लोगों में बंटते हुए,
ये बूढ़ी सी लाठी, ये टूटे से चश्मे,
यही रह गए अब यहाँ पर सुनो,
बंधे मोह डोरी के धागों से ऐसे,
के जाएं तो जाएं कहाँ पर सुनो,
चले भी गए गर कभी ये कहीं तो,
रहेगा दिलों के ही अंदर मकां।
ये बंजर ज़मीनें....
मुकेश जोशी 'भारद्वाज'
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