सामाजिक समरसता की कवयित्री अनामिका
अपनी रचनाओं से भारतीय समाज एवं जीवन आम परिचित भाषा और शैली से रेखांकित करने वाली अनामिका के बगैर आधुनिक हिन्दी साहित्य का परिचय अधूरा है। वे अपनी रचनाओं में दृश्य बुनती चलती हैं और एक तीखा व्यंग्य पाठक के अवचेतन पर दर्ज होता जाता है। उनकी कविताएं स्त्री पक्ष में कही गई सबसे सशक्त आवाज हैं तो इसलिए कि वे अतीत से होते आए भेदभाव और पक्षपात से लेकर वर्तमान आधुनिक काल के रिश्तों के पेंच में उलझी स्त्री के मनोभावों को सहजता से रख रही हैं।
१७ अगस्त १९६१ को बिहार के मुजफ्फरपुर में जन्मी अनामिका ने अपनी शुरुआती शिक्षा बिहार से ही प्राप्त की और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में पीएच.डी. की। अंग्रेज़ी की प्राध्यापिका होने के बावजूद अनामिका ने हिंदी साहित्य और हिंदी कविता को जिस तरह समृद्ध किया है, उनका यह प्रयास किसी से छुपा नहीं है। अनामिका का नाम आधुनिक समय में हिन्दी भाषा की प्रमुख कहानीकार, उपन्यासकार और कवयित्री के रूप में लिया जाता है। वह समकालीन हिन्दी कविता की उन सर्वाधिक चर्चित कवयित्रियों में शामिल हैं जिनकी रचनाओं का हिंदी साहित्य प्रेमी बेसब्री से इंतज़ार करते हैं।
अनामिका बिहार से दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की छात्रा के रूप में एम ए में दाखिला लेने आई थीं तब से ही उनकी कविताएं पढ़ने को मिलती रहीं हैं। वैसे वह पहले भी कविताएं लिखती रही थीं और जब बिहार विश्वविद्यालय में छात्रा थीं तब भी उनकी काव्य प्रतिभा से लोग रूबरू हुए थे लेकिन उनकी कीर्ति दिल्ली आने पर फहराने लगी। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, स्त्री विमर्श, अनुवाद और संपादन सभी क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। उन्हें साहित्य विरासत में मिला। उनके पिता श्याम नंदन किशोर अपने समय के चर्चित कवि और लेखक थे जो बाद में बिहार विश्वविद्यालय के कुलपति बने। उनकी माता आशा किशोर जी भी हिंदी की विभागाध्यक्ष रहीं। भाई महाराष्ट्र कैडर में घ्Aए अधिकारी रहे जो अभी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इस तरह से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि अनामिका को कविता संस्कार में बचपन से ही मिली लेकिन उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर अपना नया मुकाम हासिल किया। अनामिका दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में अध्यापन कार्य किया ।
हिंदी साहित्य के इतिहास में अनामिका साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली कवयित्री बन गई हैं। उन्हें यह सम्मान ‘टोकरी में दिगंत’ कविता संग्रह के लिए मिला है। निर्णायक मंडल में रामबचन राय, चित्रा मुद्गल और के एल वर्मा थे। यूं तो पिछले तीन दशकों से अनामिका जिस तरह साहित्य की दुनिया में सक्रिय थीं और उनका जिस तरह ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा था, उससे यह उम्मीद लगने लगी थी, एक न एक दिन उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार जरूर मिल जाएगा। पिछले तीन दशकों में हिंदी कविता में स्त्रियां बड़ी तादाद में सामने आई हैं और उन्होंने हिंदी कविता के परिदृश्य को बदल दिया है। अनामिका उसकी एक प्रतिनिधि कवयित्री बन गईं।
अनामिका की कविता में जीवन की बहुत ही सामान्य घटनाओं और वस्तुओं का हवाला है। उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी में से कविता खोजने की कोशिश की है । उनकी कविता में कोई बौद्धिक विलास नहीं है लेकिन उनकी कविता में एक विचार जरूर मौजूद है। उस विचार का शोर और आतंक दिखाई नहीं पड़ता है। वह बहुत ही सहज और सामान्य है। कई लोग उनकी कविताओं के शिल्प और भाषा के अनगढ़ होने के आरोप लगाते रहे है पर यह खुरदुरापन ही उनकी कविता की पहचान है।
अनामिका के पास बेजान शब्दों में भी जान फूंक देने की कला है। उनकी कविताएं कभी-कभी उस सच की तरह मालूम होती हैं, जो मन के दृश्यों को सजीव कर कर देती हैं। बिम्बधर्मिता पर उनकी पकड़ देखते बनती है। वे जिस दुनिया में रहती है, उस दुनिया को बखूबी पहचानती हैं, और शायद यही वजह है कि उनकी वह पैनी नज़र, जब उनकी कलम में बैठ कर कुछ गढ़ने की कोशिश करती है तो ठहरे हुए चित्र चलना शुरु कर देते हैं। उनकी रचनाओं में स्त्री-मुक्ति के नये आयाम खुलते हैं। वह कभी अपने परिवेश से बाहर नहीं जातीं, लेकिन व्यक्तिगत और आसपास से अर्जित अनुभवों को अनगिनत रूपों में गढ़ना अच्छे से जानती हैं।
अपनी रचनाओं से भारतीय समाज एवं जीवन आम परिचित भाषा और शैली से रेखांकित करने वाली अनामिका के बगैर आधुनिक हिन्दी साहित्य का परिचय अधूरा है। वे अपनी रचनाओं में दृश्य बुनती चलती हैं और एक तीखा व्यंग्य पाठक के अवचेतन पर दर्ज होता जाता है। उनकी कविताएं स्त्री पक्ष में कही गई सबसे सशक्त आवाज हैं तो इसलिए कि वे अतीत से होते आए भेदभाव और पक्षपात से लेकर वर्तमान आधुनिक काल के रिश्तों के पेंच में उलझी स्त्री के मनोभावों को सहजता से रख रही हैं। आधी आबादी के बुनियादी अधिकारों और अस्तित्व के प्रश्न उनकी कविता की धुरी हैं। उदहारण स्वरुप, ‘स्त्रियां’ कविता में वे लिखती हैं :-
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है कागज
बच्चों की फटी कॉपियों का
चना जोर गरम के लिफाफे बनाने के पहले!
अनामिका की कविता में स्त्री और पुरूष के बीच हमेशा मौजूद रही खाई का उल्लेख है तो इस उपेक्षा के खिलाफ उठ खड़े होने की घोषणा भी है। ‘स्त्रियां’ कविता में ही वे कहती हैं :-
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान है
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।
उन्हें जिस संग्रह ‘टोकरी में दिगन्त, थेरी गाथा: २०१४’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है उसमें उन्होंने बौद्ध-धर्म की परंपराओं और स्मृतियों की वाहक थेरी गाथाओं के बहाने स्त्री जीवन के स्याह पक्ष को उजागर करने का प्रयास किया है। बुद्ध की समकालीन मानी जानेवाली भिक्षुणियों का जीवन और विचार इस काव्य संग्रह का आधार है। ध्यान देने वाली बात यह है कि ७० से ज्यादा बौद्ध भिक्षुणियों के विचार उनकी विभिन्न गाथाओं में शामिल हैं। अनामिका ने इन गाथाओं के माध्यम से स्त्री देह और मन के प्रश्नों को अपनी कविताओं में बुना है। जैसे, ‘कमरधनियां’ कविता में वे कहती हैं :-
अब करधनियाँ नहीं हैं
कमर अब कसी है इरादों से
और औरतों ने आवाज़ उठा ली है
दादियों की बात मानते हुए
कि ऐसा भी धीरे क्या बोलना
आप बोलें कमरधनी सुने!
अनामिका की कविताएं केवल पीड़ा, भेदभाव, संघर्ष ही उजागर नहीं करती हैं, वे समाधान की बात भी करती हैं। वहां केवल प्रश्न और तंज ही नहीं हैं, उत्तर भी हैं। कोरोना काल में सोशल मीडिया पर संवाद की शृंखला ‘मुक्तिपथ’ में अनामिका ने ‘हमारा समय हमारी कविता’ विषय पर बात की थी। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा था कि कविता में मजिस्ट्रेट नहीं बनना है, चीख पुकार नहीं मचाना है। कविता संवाद मुखी भाषा में हो। अगर आप मीठे नहीं होंगे, कुमति का निराकरण कुमति से, क्रोध का निराकरण क्रोध से करने जाएंगे तो कोई आपको सुनने नहीं आएगा। अनामिका की एक कविता कहती है :-
जो बातें मुझको चुभ जाती हैं
मैं उनकी सुई बना लेती हूँ
चुभी हुई बातों की ही सुई से मैंने
टाँकें हैं फूल सभी धरती पर।
अनामिका ने १९७५ में चौदह वर्ष की आयु में `शीतल स्पर्श एक धूप को' नामक संग्रह से हिंदी कविता के परिसर में प्रवेश किया था। दूसरा संग्रह `गलत पते की चिट्टी' सन् १९७९ में आया, तब तक उनकी समवयस कवयित्रियों के एक भी संग्रह नहीं आए थे। ये दोनों संग्रह इस बात के गवाह हैं कि अपनी समवयस कवयित्रियों में अनामिका का प्रवेश कविता में काफी पहले हो गया था हालांकि 'बीजाक्षर' १९९३ से उनके कवि व्यक्तित्व को एक बड़ी पहचान मिली।
अनामिका ने गद्य में भी रचनात्मक योगदान किया है। ‘पर कौन सुनेगा’, ‘मन कृष्ण मन अर्जुन’, ‘अवांतर कथा’, ‘दस द्वारे का पिंजरा’ और ‘तिनका तिनके के पास’ उनके उपन्यास हैं। उनकी कहानियों का संकलन ‘प्रतिनायक’ में हुआ है जबकि उनके चार शोध-प्रबंध, छह निबंध-संग्रह और पाँच अनुवाद-ग्रंथ भी प्रकाशित हैं। उन्होंने हिंदी के स्त्री-विमर्श में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया है जिस क्रम में ‘स्त्रीत्व का मानचित्र’, ‘मन माँजने की ज़रूरत’, ‘पानी जो पत्थर पीता है’, ‘स्वाधीनता का स्त्री-पक्ष’ का प्रकाशन हुआ है। उनकी कविताओं का अनुवाद विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं में हुआ है। कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्न हैं :-
कविता संग्रह: गलत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, अनुष्टुप, समय के शहर में, खुरदुरी हथेलियाँ, दूब धान।
आलोचना: पोस्ट -एलियट पोएट्री, स्त्रीत्व का मानचित्र , तिरियाचरित्रम, उत्तरकाण्ड, मन मांजने की जरूरत, पानी जो पत्थर पीता है।
शहरगाथा : एक ठो शहर, एक गो लड़की
कहानी संग्रह : प्रतिनायक
उपन्यास: अवांतरकथा, पर कौन सुनेगा, दस द्वारे का पिंजरा, तिनका तिनके पास
अनुवाद: नागमंडल (गिरीश कर्नाड), रिल्के की कवितायेँ, एप्रâो- इंग्लिश पोएम्स, अटलांट के आर-पार (समकालीन अंग्रेजी कविता), कहती हैं औरतें (विश्व साहित्य की स्त्रीवादी कविताएँ) अनामिका को साहित्य अकादेमी पुरुस्कार के साथ ही साथ बहुत सारे पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए हैं जिनमे कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं : साल १९८७ में ‘राजभाषा परिषद् पुरस्कार’, १९९३ में ‘गिरिजाकुमार माथुर सम्मान’, १९९५ में ‘भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार’, १९९७ में ‘साहित्यकार सम्मान’, २००१ में ‘परंपरा सम्मान’, २००४ में ‘साहित्य सेतु सम्मान’, २००८ में ‘केदार सम्मान’, २०१४ में ‘शमशेर सम्मान’, २०१५ में ‘मुक्तिबोध सम्मान’ और २०१७ में ‘वाणी फाउंडेशन डिस्टिंग्विश्ड ट्रांसलेटर अवॉर्ड’ जैसे सम्मानों से विभूषित किया जा चुका है।
रचना दीक्षित
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