चिकित्सा क्षेत्र में अंग प्रत्यारोपण में हो रही प्रगति

वैैज्ञानिकों ने सुअरों के अंगों में आनुवंशिक परिवर्तन करके इस समस्या का समाधान किया है। प्रत्यारोपण शल्य चिकित्सक स्वर्गीय कार्ल जी ग्रोथ ने २००७ के एक अध्ययन में लिखा था, 'भविष्य में मनुष्यों में प्रत्यारोपण के लिए सुअर के अंगों और कोशिकाओं का उपयोग प्रत्यारोपण में क्रांतिकारी बदलाव लाएगा।' १९७० के दशक में गैर-मानव प्राइमेट्स से मनुष्यों में किडनी, लीवर और हृदय प्रत्यारोपण का दौर चला। इनमें से अधिकांश असफल रहे। इसका प्रमुख कारण अंग अस्वीकृति रहा क्योंकि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर के लिए विदेशी एजेंटों को अस्वीकार कर देती है।

Dec 2, 2024 - 12:36
Dec 2, 2024 - 14:56
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चिकित्सा क्षेत्र में अंग प्रत्यारोपण में हो रही प्रगति
organs in medicine

अंग प्रत्यारोपण चिकित्सा जगत का ऐसा क्षेत्र है जहाँ चिकित्सक चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते क्योंकि मानव अंग की उपलब्धता अत्यधिक सीमित है। भारत में हिन्दू अखबार के आंकड़ों के अनुसार तो पूरे देश में ३,१७ लाख मरीज अंग प्रत्यारोपण का इन्तजार कर रहे है जिनमें से आधे से ज्यादा(५५ज्ञ्) किडनी के मरीज हैं, जबकि केवल ३ प्रतिशत मरीज ही अंग प्रत्यारोपण के लिए अंग मिलने में सफल हो पाते हैं। इस समस्या का समाधान के लिए वैज्ञानिकों के प्रयास निरंतर जारी हैं और वैज्ञानिकों को लगता है कि जानवरों के अंगों का मानव शरीर में प्रत्यारोपण इस समस्या का एक स्वीकृत और सफल समाधान हो सकता है। इस अंतर को पाटने के लिए विशेषज्ञ जेनोट्रांसप्लांटेशन (पशुओं से मनुष्यों में) की ओर रुख कर रहे हैं। किसी भी प्रत्यारोपण में सबसे बड़ी बाधा शरीर में प्रत्यारोपित अंग की अस्वीकृति है और जब अंग जानवरों से लिए जाने हो तो यह समस्या और भी बड़ी हो जाती है।

वैज्ञानिकों ने सुअरों के अंगों में आनुवंशिक परिवर्तन करके इस समस्या का समाधान किया है। प्रत्यारोपण शल्य चिकित्सक स्वर्गीय कार्ल जी ग्रोथ ने २००७ के एक अध्ययन में लिखा था, `भविष्य में मनुष्यों में प्रत्यारोपण के लिए सुअर के अंगों और कोशिकाओं का उपयोग प्रत्यारोपण में क्रांतिकारी बदलाव लाएगा।' १९७० के दशक में गैर-मानव प्राइमेट्स से मनुष्यों में किडनी, लीवर और हृदय प्रत्यारोपण का दौर चला। इनमें से अधिकांश असफल रहे। इसका प्रमुख कारण अंग अस्वीकृति रहा क्योंकि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर के लिए विदेशी एजेंटों को अस्वीकार कर देती है। विफलता के पीछे सर्जिकल जटिलताएँ भी थीं। १९८४ में एक मानव शिशु को बबून का हृदय लगाया गया था। समाचार रिपोर्टों के अनुसार प्रत्यारोपण के २१ दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई । १९९० के दशक में दूसरे प्राइमेट्स का चलन कम हो गया क्योंकि वे वायरस के फैलने के प्रति ज्यादा संवेदनशील थे। 

भारत में भी चिकित्सकों और वैज्ञानिकों ने इस ओर गंभीर प्रयास किये गए और १९९७ में दो शल्य चिकित्सकों-असम के प्रत्यारोपण शल्य चिकित्सक डॉ. धनी राम बरुआ और हांगकांग के शल्य चिकित्सक डॉ. जोनाथन हो केई-शिंग ने एक साहसिक कदम बढाया और दोनों ने गुवाहाटी में ३२ वर्षीय किसान पूर्णो सैकिया का सुअर से लिए गए अंगों से मानव हृदय और फेफड़े में प्रत्यारोपण किया।

अस्वीकृति की समस्या से निपटने के लिए, बरुआ ने बताया कि उन्होंने `डोनर के हृदय और फेफड़े का इलाज करने और उसकी प्रतिरक्षा प्रणाली शमन करने के लिए एक नया एंटी-हाइपरएक्यूट अस्वीकृति जैव रासायनिक विकसित किया था उसका प्रयोग भी किया लेकिन, दुर्भाग्यवश, सैकिया जीवित नहीं बच सके। एक सप्ताह बाद संक्रमण से उनकी मृत्यु हो गई। परिणामस्वरूप बरुआ और केई-शिंग को गैर इरादतन हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया और ४० दिनों के लिए जेल में रखा गया। इस कारण से इन प्रयासों को गहरा धक्का लगा और फिर ऐसे प्रयोग नहीं हुए । 

विदेशों में इस संबंध में लगातार शोध चल रहे हैं और कई क्षेत्रों में सफलता भी मिली है। वर्ष २०१७ में, चीनी शल्य चिकित्सकों ने कथित तौर पर एक मानव में दृष्टि बहाल करने के लिए सुअर के कॉर्निया का प्रत्यारोपण किया था। २०२० में, अमेरिकी विशेषज्ञों ने एक ब्रेन-डेड व्यक्ति को आनुवंशिक रूप से परिवर्तित किडनी लगाई। उन्होंने अगले ५४ घंटों तक नए अंग की निगरानी की। न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, प्रत्यारोपित किडनी ने अच्छी तरह काम किया। लेकिन इसके दीर्घकालिक परिणाम अभी भी अज्ञात हैं । शोधकर्ता यह भी अध्ययन कर रहे हैं कि सुअरों से इंसुलिन बनाने वाली आइलेट कोशिकाओं को मनुष्यों में कैसे प्रत्यारोपित किया जाए। इससे इंसुलिन इंजेक्शन की ज़रूरत खत्म हो सकती है। दुनिया का पहला सुअर से मानव हृदय प्रत्यारोपण यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड स्कूल ऑफ मेडिसिन (बाल्टीमोर, एमडी, यूएसए) में किया गया, जहां आनुवंशिक रूप से संशोधित सुअर के हृदय को हृदय रोग के अंतिम चरण में ५७ वर्षीय मरीज डेविड बेनेट में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया गया। अत्यधिक प्रयोगात्मक सर्जरी के बाद, रोगी कार्डियोपल्मोनरी बाईपास मदद की अनुपस्थिति में भी स्वतंत्र रूप से घूमने में सक्षम था। ऐतिहासिक ऑपरेशन ने हाइपरएक्यूट इम्यून रिजेक्शन के कारण होने वाली सबसे बड़ी संभावित बाधा को पार कर लिया और एक अच्छा अल्पकालिक परिणाम प्राप्त किया। लेकिन मरीज की हालत बिगड़ने लगी और प्रत्यारोपण सर्जरी के दो महीने बाद ९ मार्च, २०२२ को उसकी मृत्यु हो गई।

इसी तरह का दूसरा प्रयोग ५८ वर्षीय लॉरेंस फॉसेट के साथ हुआ जब २० सितम्बर २०२३ को आनुवंशिक रूप से संशोधित सुअर का हृदय लगाया गया, तब वे हृदयाघात से मरने ही वाले थे और पारंपरिक हृदय प्रत्यारोपण के लिए अयोग्य थे। लेकिन दुर्भाग्यवश यह प्रयोग भी एक तरह से असफल ही कहा जायेगा लारेंस की भी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु अत्यधिक जटिल सर्जरी के लगभग छह सप्ताह बाद हुई। यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड स्कूल ऑफ मेडिसिन के अनुसार, पहले महीने तक हृदय स्वस्थ लग रहा था, लेकिन कुछ दिनों में इसमें अस्वीकृति के लक्षण दिखने लगे थे। अस्पताल द्वारा जारी एक बयान में, फॉसेट की पत्नी ने कहा कि उनके पति जानते थे कि हमारे साथ उनका समय कम है और यह उनका आखिरी मौका था। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वे इतने लंबे समय तक जीवित रहेंगे। फॉसेट को जो दिल मिला वह १० आनुवंशिक संशोधनों वाले सुअर से आया था जो अस्वीकृति की संभावना को कम करता था। उनके डॉक्टर एक नई दवा के साथ उनका इलाज भी कर रहे थे जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं को सक्रिय करने में शामिल प्रोटीन को अवरुद्ध करती थी। फिर भी वैज्ञानिक इन परिणामों से निरुत्साहित नहीं हैं और उन्हें पूर्ण विश्वास हैं कि यह प्रत्यारोपण चिकित्सा और मानवता के लिए एक और उल्लेखनीय उपलब्धि है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण छलांग है और उन्हें लगता है कि बहुत जल्दी ही ऐसे लोग जिन्हें जीवन रक्षक अंग प्रत्यारोपण की आवश्यकता है उन्हें जानवरों से अंगों की आपूर्ति की जा सकेगी।

डॉ. रवीन्द्र दीक्षित

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