हिंदी  की ऊँची वैश्विक उड़ान 

आचार्य हजारी प्रसाद  द्विवेदी जिस मंगल कार्य  की बात की और  गाँधी जी  की जो अभिलाषा  थी वह कब तक सही अर्थों में  पूरी  होगी ओओ? ब्रिटिश सत्ता को  भारत  छोड़े हुए 75 वर्ष  पूरे हो" गए हैं। फिर  भी अंग्रेजी का वर्चस्व कायम है। अंग्रेजी के मोह से भारत पूर्ण रूप से अभी भी मुक्त नहीं हो पाया है।  मोटूरि सत्यनारायण ने ठीक  ही कहा - " अंग्रेजी की छवि  ज्यों की त्यों है और उसके प्रति लोगों का प्रेम ,आकर्षण  , उसे अपनाने और  आगे बढ़ाने की कामना  कम होती नजर नहीं आती।सभी क्षेत्रों में  अंग्रेजी का पाया  आज भी वैसा ही मजबूत है,जैसा पहले था।"

Nov 24, 2023 - 19:08
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 हिंदी  की ऊँची वैश्विक उड़ान 
Hindi's global soar

भाषा मनुष्य  के भावों - विचारों के आदान-प्रदान का सशक्त- समर्थ माध्यम  है।पूरे विश्व में  बोली जाने वाली लगभग  तीन  हजार  भाषाओं को बारह भाषा परिवारों  में रखा जाता है।हमारी हिन्दी उसी भारत- यूरोपीय  भाषा परिवार में आती है, जिसमें अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, फारसी, रूसी आदि भाषाएं शामिल  हैं। भारत में 1700 ईस्वी पूर्व  के आसपास  प्रयोग  की जाने वाली संस्कृत  भारतीय आर्यभाषाओं का प्राचीनतम  रूप  है।

लगभग 3700 वर्षों की दीर्घ अवधि में संस्कृत के वैदिक और लौकिक रूप से कालांतर  में पालि , प्राकृत और अपभ्रंश  विकसित  हुई। अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से आज से लगभग 1000  वर्ष  पूर्व  आधुनिक  भारतीय भाषाएं - पंजाबी ,मराठी , गुजराती , हिन्दी , बांग्ला आदि विकसित  हुई। इतना ही नहीं दक्षिण भारत में द्रविड़ कुल की चारों भाषाओं - तमिल, तेलगू , कन्नड़ और  मलयालम  भी संस्कृत  से ही विकसित  हुई  हैं।खड़ी बोली हिन्दी का विकास  लगभग 1000 ईस्वी के आसपास शौरसैनी अपभ्रंश  से हुआ। अपनी विकास  यात्रा में हिन्दी ने अरबी, फारसी और अंग्रेजी से शब्द ग्रहण  करके स्वयं को इतना सजीव और  समृद्ध  बनाया कि
आज उसकी गणना विश्व  की प्रमुख  भाषाओं  में  होती है। भाषा की उन्नति सच्ची उन्नति की माप है।यह एक बहुत  बड़ी सच्चाई है।तभी तो भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने स्पष्ट शब्दों में लिखा-

"  निज भाषा उन्नति अहे ,सब उन्नति को मूल।
बिन निज  भाषा ज्ञान के ,मिटत न हिय  को सूल ।"

प्रख्यात लेखक  हृदयनारायण दीक्षित  ने लिखा है- " भाषा से समाज बना।समाज ने भाषा का संवर्धन  किया ।भाषा सामूहिक  संपदा है। भारतीय  संस्कृति और  सभ्यता का  समूचा ज्ञान भारतीय भाषाओं से उगा। विचारों का जन्म और विकास  मातृभाषा की ही गोद में होता है। मातृभाषा अभिव्यक्ति का स्वभाविक  माध्यम  होती है। भारत में अनेक  समृद्ध भाषाएं हैं।" भारतीय  जनमानस  को आन्दोलित करने के लिए, पूरे भारत को अंग्रेजों के विरूद्ध  एकजुट करने के लिए जिस  संपर्क  भाषा  को अपनाया गया ,वह अन्य कोई  नहीं हिन्दी  ही थी ।  हिन्दी ही क्यों? यह प्रश्न  उपस्थित  होना स्वभाविक है।

प्रसिद्ध साहित्यकार रवि शर्मा के अनुसार  इस प्रश्न  का स्पष्ट  उत्तर  है-" हिन्दी भारतीय अस्मिता का द्योतक है, विश्व  में हमारी पहचान है और समृद्ध संस्कृति  की वाहिका है। अधिसंख्य  भारतीय  जनता की अभिव्यक्ति का  माध्यम  हिन्दी ही है।" इसके अलावे उक्त प्रश्न का उत्तर  यह भी है कि हिन्दी  में ही देश  को एकता के  सूत्र  में  बाँधे रखने की क्षमता है।यह एकता का प्रतीक है। यह जनमानस की भाषा है। भारतीय  स्वतंत्रता संग्राम  के दौरान भारत की राष्ट्रभाषा के रूप  में हिन्दी का विकास एक महत्वपूर्ण  घटना है। निस्संदेह  इसका श्रेय अहिन्दीभाषी क्षेत्र  के भी समाजसुधारकों, साहित्यकारों और  राजनीतिज्ञों को है । इनमें गाँधी जी का नाम  सर्वोपरि है।

हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा के रूप  में स्वीकृत  कराने , उसका सारे  देश  में  प्रचार  करने और  उसे राष्ट्रभाषा  के योग्य  बनाने में गाँधी जी का योगदान  अद्वितीय  है।यद्यपि  उन्होंने ,बाद में, ' हिन्दी 'के स्थान पर' हिन्दुस्तानी '
शब्द  को स्वीकार  किया पर उनकी राष्ट्रभाषा  सम्बन्धी अवधारणा में कोई  मौलिक  परिवर्तन  नहीं हुआ। हिन्दी को गौरव प्रदान करने में  अन्य राजनीतिज्ञों में पुरुषोत्तम दास टंडन ,सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस और राजेन्द्र प्रसाद  के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। 

15 अगस्त  1947  को बी•  बी• सी• लंदन द्वारा महात्मा गाँधी ने अपने संदेश  में कहा था कि "दुनियावालों  से कह दो कि गाँधी अंग्रेजी नहीं जानता। करोड़ों  लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालना जैसा है।हिन्दी  ही हिन्दुस्तान के  शिक्षित  समुदाय  की सामान्य  भाषा हो सकती है ,यह बात निर्विवाद  है। जिस स्थान  को आजकल अंग्रेजी  भाषा लेने का  प्रयत्न कर रही है और  जिसे लेना उसके लिए असंभव है वही स्थान हिन्दी को मिलना चाहिए, क्योंकि हिन्दी का उसपर पूर्ण अधिकार  है।यह स्थान अंग्रेजी को  नहीं  मिल सकता ,क्योंकि वह विदेशी भाषा है।

हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। देश के नौजवानों पर एक विदेशी भाषा थोप देने से  उनकी प्रतिभा कुंठित  हो रही है।इसलिए  शिक्षित भारतीय  जितनी जल्दी ही विदेशी माध्यम के  भयंकर वशीकरण से बाहर निकल जाएं  ,उतना ही उनका
और जनता का लाभ  होगा । अंग्रेजी भाषा भारतीय राष्ट्र के पाँव में बेड़ी बनकर पड़ी हुई  है।" हिन्दी साहित्य के विख्यात लेखक  आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भारतीय हिन्दी  परिषद् के नागपुर  अधिवेशन के अध्यक्षीय पद से अपने दिए भाषण  में  कहा था -" मैं हिन्दी  को संसार  की श्रेष्ठ  भाषाओं के समकक्ष  बनाने के कार्य को बिल्कुल  ही असाध्य  नहीं   मानता।यदि यह असाध्य   भी होता तो भी हमें करना तो पड़ता ही।

हमारे सौभाग्य  से हमें संस्कृत  भाषा की अपार निर्मात्री  शक्ति  प्राप्त है।देशी भाषाओं में हजारों की संख्या में ऐसे अर्थप्रसू शब्द हैं जो अन्यत्र मिलना संभव नहीं है।कोई  कारण नहीं कि हम अपनी भाषा को संसार की श्रेष्ठ  भाषाओं के समकक्ष नहीं बना सकें।इस  महान् देश  के निवासी हैं और महान् साहित्य और सांस्कृतिक परम्परा के उत्तराधिकारी  हैं।हम हार मानने को तैयार नहीं  हैं-
उत्थातव्यं जागृतव्यं  योक्तव्यं  भूतिकर्मसु। 
भविष्यतीत्येव मनः कृत्वा  सतनमव्यथेः।।
उठो, जागो , कल्याणमय कर्मों में जुट जाओ।बिल्कुल  परेशान हुए बिना, मन में हमेशा यही सोचो कि यह मंगल  कार्य  होकर ही रहेगा।" उन्होंने  यह भी कहा था -"देश की जनता को अपनी भाषा में उच्च्तर  ज्ञान प्राप्त  करने , कौशल सीखने और  न्याय  प्राप्त  करने का  जन्मसिद्ध  अधिकार है।किसी कठिनाई का बहाना बनाकर इस अधिकार  की उपेक्षा नहीं की जा सकती।" लेकिन  दुःख के साथ  कहना पड़ता है कि अपने देश  में अनेक  समृद्ध  भाषाओं के होते हुए  भी आज भी  विदेशी भाषा अंग्रेजी की ठसक है।

आचार्य हजारी प्रसाद  द्विवेदी जिस मंगल कार्य  की बात की और  गाँधी जी  की जो अभिलाषा  थी वह कब तक सही अर्थों में  पूरी  होगी ओओ? ब्रिटिश सत्ता को  भारत  छोड़े हुए 75 वर्ष  पूरे हो" गए हैं। फिर  भी अंग्रेजी का वर्चस्व कायम है। अंग्रेजी के मोह से भारत पूर्ण रूप से अभी भी मुक्त नहीं हो पाया है।  मोटूरि सत्यनारायण ने ठीक  ही कहा - " अंग्रेजी की छवि  ज्यों की त्यों है और उसके प्रति लोगों का प्रेम ,आकर्षण  , उसे अपनाने और  आगे बढ़ाने की कामना  कम होती नजर नहीं आती।सभी क्षेत्रों में 
अंग्रेजी का पाया  आज भी वैसा ही मजबूत है,जैसा पहले था।"

प्रख्यात साहित्यकार और संपादक  प्रवीण उपाध्याय ने भी लिखा है -" आज भी हमारे सभी उच्च  शैक्षणिक  संस्थानों , विशेष रूप से वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में ,अंग्रेजी   का ही बोलबाला है। भाषा की दृष्टि से संपन्न होते हुए  भी हम अभी तक विदेशी भाषा अंग्रेजी  के गुलाम  बने हुए  हैं। रोजगार से संबद्ध प्रतियोगी परीक्षाओं  का माध्यम  भी  दो या तीन  प्रतिशत  लोगों की भाषा अंग्रेजी ही है। इस क्षेत्र  में भी हिंदी तथा अन्य भारतीय  भाषाएं उपेक्षित  हैं। हिंदी और  भारतीय  भाषाओं की उपेक्षा के पीछे  जहां हमारा 
मनोवैज्ञानिक  संकोच है वहीं अंग्रेजी से जुड़ी हुई झूठी प्रतिष्ठा  भी इसके लिए  उत्तरदायी है।

जबतक हमारी  अंग्रेजी से मानसिकता नहीं बदलेगी और  हम भाषाई स्वाभिमान  के प्रति जागरूक नहीं होगें  तब तक अंग्रेजी से पीछा छूटना कठिन  प्रतीत  होता है। आज जब चीन, जापान,  जर्मनी, और  रूस  जैसे देश अनेक देशों में अपनी भाषा के माध्यम  से उच्च से उच्च  स्तर  की पढ़ाई  संभव  है। तो हमें संकोच  क्यों,बात भाषाई  प्रेम  लकी ,व्यावहारिक रूप  देने की है, पहचान करने की है।"

14 सितंबर  1949  ईस्वी को सर्वसम्मति से हिन्दी  को भारत  की राजभाषा घोषित  कर  दिया गया। लेकिन अपने अंग्रेजी ज्ञानके आधार  पर सरकारी और गैर सरकारी  नौकरियों पर एकाधिपत्य  जमाए लोगों का वर्ग नहीं चाहता था कि प्रशासन,  न्यायपालिका और  व्यवसायिक  प्रतिष्ठानों  में अंग्रेजी के स्थान  पर हिन्दी का प्रयोग हो क्योंकि उस स्थिति में उसके एकाधिकार  में खलल पहुँचने की आशंका थी।तत्कालीन  हुक्मरानों को भी हिन्दी में कोई  खास दिलचस्पी नही थी।इसका परिणाम  यह हुआ  कि1950 से 1955  के बीच  हिन्दी को राजभाषा के रूप  में  विकसित  करने की दिशा में कोई  उल्लेखनीय  प्रयास  नहीं हुआ।

संघ की राजभाषा के रूप  में हिन्दी के प्रति विरोध  का स्वर  देश के अंदर बहुत  उग्र भी हुआ तथा  हिन्दी के विरूद्ध षड्यंत्र और कुचक्र रचे गए लेकिन हिन्दी  अपनी आन्तरिक संजीवनी शक्ति के बल पर आगे बढ़ती रही। कालांतर में राजभाषा अधिनियम 1963  तथा राजभाषा नियम 1976 पारित  हुए। लेकिन  दुःख के साथ  कहना पड़ता है कि अपने देश  में अनेक  समृद्ध  भाषाओं के होते हुए  भी आज भी विदेशी भाषा अंग्रेजी की ठसक है। आचार्य हजारी प्रसाद  द्विवेदी जिस मंगल कार्य  की बात की और  गाँधी जी  की जो अभिलाषा  थी वह कब तक सही अर्थों में  पूरी  होगी? ब्रिटिश सत्ता को  भारत  छोड़े हुए 75 वर्ष  पूरे हो गए हैं। फिर  भी अंग्रेजी का वर्चस्व कायम है।

अंग्रेजी के मोह से भारत पूर्ण रूप से अभी भी मुक्त नहीं हो पाया है।  मोटूरि सत्यनारायण ने ठीक  ही कहा - " अंग्रेजी की छवि  ज्यों की त्यों है और उसके प्रति लोगों का प्रेम ,आकर्षण, उसे अपनाने और आगे बढ़ाने की कामना  कम होती नजर नहीं आती।सभी क्षेत्रों में अंग्रेजी का पाया  आज भी वैसा ही मजबूत है,जैसा पहले था।"

दप्रख्यात साहित्यकार और संपादक  प्रवीण उपाध्याय ने भी लिखा है -" आज भी हमारे सभी उच्च  शैक्षणिक  संस्थानों , विशेष रूप से वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में ,अंग्रेजी   का ही बोलबाला है। भाषा की दृष्टि से संपन्न होते हुए  भी हम अभी तक विदेशी भाषा अंग्रेजी  के गुलाम  बने हुए  हैं। रोजगार से संबद्ध प्रतियोगी परीक्षाओं  का माध्यम  भी  दो या तीन  प्रतिशत  लोगों की भाषा अंग्रेजी ही है। इस क्षेत्र  में भी हिंदी तथा अन्य भारतीय  भाषाएं उपेक्षित  हैं। हिंदी और भारतीय भाषाओं की उपेक्षा के पीछे  जहां हमारा 
मनोवैज्ञानिक  संकोच है वहीं अंग्रेजी से जुड़ी हुई झूठी प्रतिष्ठा  भी इसके लिए उत्तरदायी है।

जबतक हमारी  अंग्रेजी से मानसिकता नहीं बदलेगी और  हम भाषाई स्वाभिमान  के प्रति जागरूक नहीं होगें  तब तक अंग्रेजी से पीछा छूटना कठिन  प्रतीत  होता है। आज जब चीन, जापान, जर्मनी, और  रूस  जैसे देश अनेक देशों में अपनी भाषा के माध्यम  से उच्च से उच्च  स्तर  की पढ़ाई  संभव  है। तो हमें संकोच  क्यों,बात भाषाई  प्रेम  की ,व्यावहारिक रूप  देने की है, पहचान करने की है।" तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि हिन्दी का विकास  अवरुद्ध  है।

14 सितंबर 1949  को सर्वसम्मति से हिन्दी को  भारत  की राजभाषा घोषित  कर  दिया गया। लेकिन अपने अंग्रेजी ज्ञान  के आधार  पर सरकारी और गैर सरकारी  नौकरियों पर एकाधिपत्य  जमाए लोगों का वर्ग नहीं चाहता था कि प्रशासन,  न्यायपालिका और  व्यवसायिक  प्रतिष्ठानों  में अंग्रेजी के स्थान  पर हिन्दी का प्रयोग हो क्योंकि उस स्थिति में उसके एकाधिकार  में खलल पहुँचने की
आशंका थी।तत्कालीन  हुक्मरानों को भी हिन्दी में कोई  खास दिलचस्पी नही थी।इसका परिणाम  यह हुआ  कि1950 से 1955  के बीच  हिन्दी को राजभाषा के रूप  में  विकसित  करने की दिशा में कोई  उल्लेखनीय  प्रयास  नहीं हुआ।

संघ की राजभाषा के रूप  में हिन्दी के प्रति विरोध  का स्वर  देश के अंदर बहुत  उग्र भी हुआ। लेकिन हिन्दी  अपनी आन्तरिक संजीवनी शक्ति के बल पर   तमाम षड्यंत्रों और कुचक्रों के बाद  भी  अपने मार्ग पर आगे बढ़ती रही। हालांकि  कालांतर में राजभाषा अधिनियम 1963  तथा राजभाषा नियम 1976 पारित  हुए।हिन्दी  के विरूद्ध षड्यंत्र, कुचक्र  निरन्तर  चलते रहे ,फिर  भी हिन्दी आगे बढ़ती रही। हिन्दी की सेवा कर हिन्दी  को आगे बढ़ाने में  योगदान  देने वाले साहित्यकारों  की चर्चा यहाँ अपेक्षित  है।हिन्दी साहित्य  के विकास को  बीसवीं सदी के आरंभिक दो दशकों में गति मिली जिसका श्रेय  महावीर प्रसाद द्विवेदी , मैथिलीशरण शरण गुप्त ,  जयशंकर प्रसाद , सूर्यकांत त्रिपाठी निराला , सुमित्रानंदन पंत ,महादेवी वर्मा ,सुभद्रा कुमारी चौहान, 
हरिऔध , रामनरेश त्रिपाठी , प्रेमचंद , अज्ञेय,  यशपाल, दिनकर, बच्चन, नरेन्द्र शर्मा,रामचरित  उपाध्याय,  मुटुकधर पाण्डेय, रेणु
इत्यादि  को है।  केवल भारतीयों ने ही ,बल्कि विदेशियों ने भी हिन्दी की भरपूर  सेवा की ।

बेल्जियम केईसाई विद्वान  फादर कामिल बुल्के के योगदान  को भुलाया नहीं जा सकता है।वे हिन्दी और संस्कृत  सशक्त हस्ताक्षर और तुलसी साहित्य के अनन्य  साधक थे।प्रोफेसर  राम मोहन पाठक  का कहना है कि दक्षिण  भारत  सहित  संपूर्ण देश  में
हिंदी का आज  जिस तेजी से प्रसार हो रहा है,उससे स्पष्ट है कि हिन्दी  भारत  की प्राण भाषा है और इसे थोपे जाने का विवाद व्यर्थ  है।आज हिन्दी अखिल भारतीय स्वरूप  में उभर रही है।वर्तमान युग  हिन्दी के प्रयोग  का स्वर्णिम युग है।विपुल शब्द  भंडार, साहित्य भंडार और  तकनीक  के पंखों पर हिंदी की ऊँची वैश्विक उड़ान  दर्शनीय  है।हिन्दी का जो परचम विश्व पटल पर
फहराया जा रहा है ,वह भारत और हिंदी प्रेमियों के लिए  गर्व और  गौरव  का विषय है।"

हिन्दी भारत ही नहीं ,पूरे विश्व  में एक विशाल क्षेत्र  की भाषा है।आज दुनिया के करीब 150 ऐसे देश  हैं जहाँ हिन्दी भाषी लोग  रहते हैं। अंग्रेजी , Mandarinऔर  स्पेनिश के बाद हिन्दी दुनिया भर में बोली जाने वाली चौथी सबसे बड़ी भाषा है।अमेरिका के 45 विश्व विद्यालयों सहित 176 विश्व विद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है।अनेक हिन्दी पुस्तकों का विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद  हो चुका है।गोदान  का तो विश्व  की अनेक प्रमुख  भाषाओं अंग्रेजी ,जापानी  फिनिश, पोलिश,  चेक ,फ्रांसिसी ,रूसी आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। विदेशों से अनेक हिन्दी पत्र- पत्रिकाएं  आज प्रकाशित  हो रही हैं।

हिन्दी अब बाज़ार और  अर्थव्यवस्था  की भाषा बन चुकी है।बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पादों को जनसामान्य  तक पहुँचाने के लिए  ,आम उपभोक्ताओं  की सोच और आवश्यकताओं  को पहचानने के लिए  हिन्दी को अपनाने के लिए  विवश हो चुकी हैं। संसद के दोनों सदनों  में  हिन्दी में  कामकाज का प्रतिशत बढा है।संयुक्त राष्ट्र ने हिन्दी में कामकाज शुरू किया। राष्ट्रीय  शिक्षा नीति 2020 के क्रियान्वयन के अभियानों के साथ- साथ हिन्दी ज्ञान और अनुसंधान की भाषा के रूप  में  भी विकसित होने लगी है।अब देश  की प्रतिष्ठित प्रौद्योगिकी  संस्थाओं  में हिन्दी  के माध्यम  से पढाई  की पहल हुई है। अब हिन्दी वैश्विक स्तर पर अपनी
सक्रिय भूमिका के निर्वहन  के लिए तत्पर है।

अरूण कुमार यादव

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