साहित्य और विज्ञापन
भारत सदैव से विभिन्नताओं वाला देश रहा है। कहा यह भी जाता है कि यहाँ पर हर कोस पर पानी और दस कोस पर वाणी यानी भाषा बदल जाती है। मगर यदि कुछ नहीं बदलता, तो वे हैं - हमारे पारिवारिक मूल्य, सांस्कृतिक रूप से हमारी एकरूपता।
कहा जाता है कि भारतवर्ष कथाओं का देश है। यहाँ की मिट्टी में कई-कई कथाएँ बिखरी पड़ी हैं। यहाँ की कथाओं में मानवता है, प्रेम है, वात्सल्य है, स्नेह है, प्रेरणा है, संदेश है। भारतवर्ष ने ही 'नर' के 'नारायण' बनने की कल्पना की है। प्रत्येक मानव का जीवन अपने मानवीय गुणों से ऊपर उठकर देवत्व को प्राप्त करे, हमारे साहित्य में इसका प्रारंभ से बड़ा ही ध्यान रखा गया है। आख़िरकार, साहित्य का लक्ष्य ही मानव की संवेदनाओं को ऊर्ध्व गति की ओर प्रेरित करना है। सद्गुरु जग्गी वासुदेव भी कहते हैं कि "हम हिन्दू लोग बिलीवर (अकारण विश्वास करने वाले) नहीं, बल्कि सीकर्स (खोजक) हैं।"
बकौल शायर सुदर्शन फ़ाकिर साहब -
"सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं,
जिसको देखा ही नहीं, उसको ख़ुदा कहते हैं।"
यही हिन्दुस्तानी सभ्यता है, यही हमारा विश्वास है। हम सबको अपने-अपने पथ का अनुकरण कर 'उसे' ढूँढना है, उसे प्राप्त करना है।
भारत सदैव से विभिन्नताओं वाला देश रहा है। कहा यह भी जाता है कि यहाँ पर हर कोस पर पानी और दस कोस पर वाणी यानी भाषा बदल जाती है। मगर यदि कुछ नहीं बदलता, तो वे हैं - हमारे पारिवारिक मूल्य, सांस्कृतिक रूप से हमारी एकरूपता। और यही हमारे ग्रंथ, हमारी विचारणा, हमारी कथाओं, हमारे साहित्य में परिलक्षित होता है। बात कथाओं की चल रही है, तो भारत में हरएक व्यक्ति के पास सैकड़ों कथायें हैं - कहने के लिए। कथाएँ छोटी भी होती हैं और बड़ी भी। कुछ कथाओं की यात्रा अनवरत चलती ही रहती हैं, गोया अपूर्णता में ही उनकी सार्थकता होती है। मनुष्य ही यात्रा भी कुछ इसी ढंग की यात्रा है। बड़ी कहानी को उपन्यास की शैली में कहा जाने लगा और जीवन के एक हिस्से को दिखाने वाली शैली, कहानी के रूप में विकसित हुई। जहाँ उपन्यास जीवन की मुख्य-मुख्य घटनाओं की बात करने लगा, वहीं कहानी जीवन की किसी एक महत्त्वपूर्ण घटना की बात करने लगी। समय के साथ क्षणिक घटनाओं पर सार्थक कथाओं का दौर आया, जिसे 'लघुकथा' कहा जाता है। बहुत से लोग लघुकथा को छोटी कहानी समझने की भूल करते हैं, जबकि दोनों में भिन्नता है। लघुकथा एक क्षण विशेष की आग्रहपूर्वक अभिव्यक्ति है, जो सीमित शब्दों के माध्यम से बड़ी बात कहती है।
मौजूदा दौर टेक्नोलॉजी का दौर है। जीवनशैली में रोज़ाना कई परिवर्तन आते ही जा रहे हैं। समय की कमी की समस्या और शिकायत हर आदमी कर रहा है। ऐसे में लघुकथाओं की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। आपने ध्यान दिया है अथवा नहीं, मगर कई विज्ञापन अपने आप में लघुकथा की तरह हैं। 30 से 60 सेकंड के विज्ञापन कमाल की लघुकथाएँ कह रहे हैं। कंपनियाँ विज्ञापन के माध्यम से अपने उत्पादों का प्रचार करती हैं। मात्र अपने उत्पाद की बात करना और कहानी के माध्यम से कोई संदेश देकर अपने उत्पाद की ओर इंगित करना दोनों में बड़ा भेद है। टीवी पर आजकल एक विज्ञापन आता है, जिसमें एक बुजुर्ग महिला किसी अस्पताल की वैटिंग लाॅबी में बैठी है और अपने बाजू में बैठे एक बिल्कुल ही अनजान व्यक्ति से चाय का पूछती है। वह व्यक्ति चाय के लिए मना कर देता है। बुजुर्ग महिला चाय का थर्मस खोलती है। चाय की गंध बाजू वाले व्यक्ति के नासापुटों में जाते ही वह चाय पीने के लिए मचल जाता है और चाय का आग्रह करता है। चाय पीते हुए वह बुजुर्ग महिला से पूछता है कि अस्पताल में आपका कौन भर्ती है। बुजुर्ग महिला मुस्कराकर उत्तर देती है कि उसका कोई भी रिश्तेदार यहाँ भर्ती नहीं है। आदमी अचंभित होता है कि जब उसका कोई भर्ती ही नहीं है तो फिर वह अस्पताल में क्या कर रही है! तब महिला उसे बताती है कि उसका घर अस्पताल के ठीक सामने ही है और वह अकेली ही रहती है। अस्पताल में लोगों को अकेला देखकर चाय पिलाने आ जाया करती है। विज्ञापन समाप्त! क्या ही अद्भुत विज्ञापन है! यह विज्ञापन एक साथ कई चीज़ें कह जाता है। अकेलेपन का दंश, अस्पताल के चक्कर में पड़े मध्यमवर्गीय आम आदमी की टीस, स्वयं की पीड़ा को परे रखकर भी दूसरों की सेवा का भाव और सबसे बड़ी बात संकट के समय सकारात्मकता की बात करता है। उत्पाद का प्रचार का प्रचार हो गया और समाज में सार्थक संदेश भी चला गया। यही हमारे साहित्य की विशेषता है। विश्वास है कि आने वाले समय में इस विधा में और भी अच्छे नवाचार देखने में आएँगे। ऐसी छोटी-छोटी सार्थक अभिव्यक्तियों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की जानी चाहिए और इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जा सकता है। कसर सिर्फ एक ही है - अवसर की। राम राम
दुर्गेश कुमार 'शाद'
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