नियति की चिंता और मानव - मुक्ति का प्रश्न
बीसवीं शताब्दी के साहित्य में खोए हुए आत्म की तलाश अपने चरम रूप में परिलक्षित होती है। निर्मल वर्मा आत्म- विस्मृति को सर्वाधिक भयंकर और दयनीय स्थिति मानते हैं। इस तरह वे अपनी जातीय स्मृति की पहचान पर विशेष बल देते हैं ।
हर मनुष्य अपने प्रति अजनबी बना रहेगा जब तक वह स्वयं अपने को अपने आत्म,अपने सेल्फ से संयुक्त नहीं कर लेता।अपने से बिछुड़ने का आतंक आधुनिक युग में मनुष्य के 'आत्म उन्मूलन ' का सबसे मर्मांतक अनुभव है।' ( दूसरे शब्दों में- निर्मल वर्मा ) बिना अपने परिवेश से कटे होने पर भी व्यक्ति अपने घर या आत्मा में अजनबीपन महसूस करने लगता है और अपनी जानी पहचानी वस्तुओं से घबराकर नितांत अपरिचित स्थान
में पहुँच जाना चाहता है।इस आत्म- निर्वासित अनुभूति को 'अस्मिता का संकट' कहा जाता है।निर्मल वर्मा अस्मिता के संकट का एक बड़ा कारण मनुष्य की आध्यात्मिक शून्यता मानते हैं।
यह स्मृति न सिर्फ हमें अपनी परम्परा से जोड़े रखती है बल्कि अस्मिता के संकट से भी हमें उबारती है।हिन्दी कथा साहित्य में तरल ,रूमानी, भावुकता, यथार्थता तथा पूर्व और पश्चिम का अद्भुत सामंजस्य स्थापित करने वालों में निर्मल वर्मा अग्रणी कहानीकार के रूप में सामने आते हैं।
उनकी कहानियाँ आधुनिक परिवेश में व्याप्त माहौल की देन है। उनकी कहानियाँ कोई विशेष चरित्र या उद्देश्य को लेकर नहीं चलती है बल्कि व्यक्ति के आंतरिक यथार्थ, संघर्ष और उसकी संवेदना को लेकर आगे
बढ़ती है। प्रख्यात साहित्यकार प्रमोद कोव्वप्रत ने लिखा है-' निर्मल वर्मा की कहानियों में एक प्रकार की रोमांटिक संवेदना एवं पीड़ा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में व्याप्त है।अस्तित्ववादी मनोवृत्ति, अनिश्चय बोध , मृत्यु-बोध तथा अजनबीपन उनकी कहानियों को अधिक संवेदनशील बना देते हैं।प्रेम की कोमलता, काम की भूख, घुटन ,
जीवन का निरर्थकता बोध , मानसिक द्वन्द्व, मानव नियति की चिन्ता आदि वर्तमान जीवन के, विशेषकर
महानगरीय जीवन के जीवन- बोध उनकी कहानियों में उभर आते हैं।'
कहानी के माध्यम से मानव - मुक्ति का प्रश्न उठाने के साथ अपनी कहानियों को हिन्दी कहानी की परिपाटी से मुक्त करने का प्रयास करने वाले निर्मल वर्मा एक कथाकार, निबंधकार और चिंतक के रूप में बहुश्रुत और बहुपठित हैं। ये नयी कहानी के पुरस्कर्ता के रूप में भी जाने जाते हैं। ' नयी कहानी ' नाम का प्रचलन जनवरी 1956 में हुआ था । मन के चेतन- अवचेतन स्तरों को जानने और उन्हें विश्लेषित करने की प्रवृत्ति इन कहानियों में विशेष रूप से दिखाई देती है।यह परम्परागत मूल्यों और विश्वासों के खण्डित हो जाने की प्रक्रिया का परिणाम था।
कहानियों में घटनाओं या स्थितियों के बजाय मनःस्थितियों, मनोदशाओं, उधेड़बुनों, और तनावों का अन्वेषण अधिक होने लगा।' नयी कहानी ' आन्दोलन में वस्तु को अनुभव के रूप में ग्रहण करके अंतर्वस्तु बना देने की प्रवृत्ति बढ़ी।कहानी के रचना विधान में एक मौलिक परिवर्तन हुआ। निर्मल वर्मा ने अपनी कहानियों में संगीत जैसी सूक्ष्म संवेदना व्यंजित की है ।यह नयी कहानी की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
निर्मल वर्मा की प्रकाशित कृतियों में प्रमुख हैं- परिन्दे, जलती झाड़ी, पिछली गर्मियों में , बीच बहस में ,
कर्वे और काला पानी - ये कहानी संग्रह हैं। वे दिन, लाल टीन की छत ,एक चिथड़ा सुख, रात का रिपोर्टर, - ये उपन्यास हैं।चीड़ों पर चाँदनी , शब्द और स्मृति, हर बारिश में ,कला का जोखिम ,ढलान से उतरते हुए- ये निबंध और संस्मरण हैं। उनकी बहुचर्चित कहानी ' मायादर्पण' पर फिल्म बन चुकी है।
डॉक्टर वीरभारत तलवार केअनुसार,' निर्मल की कहानियों का अनूठापन मुख्यतः तीन बातों में है- काव्यात्मक भाषा ,चमत्कारपूर्ण कल्पना और रहस्यात्मकता। यही तीन मुख्य विशेषताएं हैं जो उन्हें ' नई कहानी ' के दूसरे सभी कहानीकारों से और शायद हिन्दी की पूरी कथा- परम्परा से अलग करती है।' निर्मल वर्मा की भाषा के बारे में नामवर सिंह ने लिखा है-' इन कहानियों को पढ़ते हुए एक नए गद्य से परिचय होता है- अपने प्रयोजन के लिए बनाया हुआ लेखक का अपना गद्य।
संभवतः कहानी का गद्य इतना संवेदनशील तो पहले कभी नहीं था। या तो भावोच्छवसित गद्य या नितांत कामकाजी 'परिंदे' को देखकर लगता है कि भाषा के क्षेत्र में जो काम इतने दिनो से प्रयोगशील 'नई कवित ' भी न कर सकी , उसे अंततः कहानी के गद्य ने कर दिखाया।'
'परिन्दे' संग्रह की कहानियों की समीक्षा करते हुए नामवर सिंह ने कहा था कि, 'स्वतंत्रता या मुक्ति का प्रश्न, जो समकालीन विश्व का मुख्य प्रश्न बन चला है , निर्मल की कहानियों में अलग- अलग कोण से उठाया गया है।" निर्मल वर्मा की कहानियों में अकेलापन से मुक्ति की छटपटाहट स्पष्ट देखी जा सकती है।उनकी एक प्रसिद्ध कहानी ' एक दिन का मेहमान ' में इस छटपटाहट को समझने के लिए इन पंक्तियों को पढ़िए-
"औरत की आवाज ऊपर उठी और तब उसे पता चला कि यह उस स्त्री की आवाज है जो उसकी पत्नी थी,
वह उसे बरसों बाद भी सैकड़ों आवाजों की भीड़ में पहचान सकता था ऊँची पिच पर हल्के से काँपती हुई , हमेशा से सुप्त, आहत, परेशान, उसकी देह की एकमात्र चीज, जो देह से परे आदमी की आत्मा पर खून की
खरोंच खींच जाती थी.
वह जैसे उठा था, वैसे ही बैठ गया।" अकेलापन या अधूरापन मानवीय नियति में स्थित है। जैसा कि निर्मल वर्मा ' कला का जोखिम' में करते हैं-" मनुष्य का यह लावारिस अलगाव और अधूरापन कोई आधुनिक, पश्चिमी बोध की देन नहीं है- वह मनुष्य के मनुष्यत्व के बीच एक की ड़ेकी तरह है, धरती पर महज उसके होने के बोध में निहित है।उसकी समूची मिथक संरचना, धर्म- विधान , ईश्वर- कल्पना और हमारे समय में संपूर्ण क्रांति का स्वप्न इसी
अभिशप्त अनाथावस्था से छुटकारा पाने का गौरवपूर्ण, ट्रैजिक और बीहड़ प्रयास है।
कला यदि इनसे अलग है तो इसलिए नहीं कि वह इस अधूरेपन के पाप से मुक्ति का स्वप्न नहीं देखती- यह स्वप्न और आकांक्षा ही तो उसकी सतत् प्रासंगिकता के केन्द्र में है- फर्क केवल इतना है कि यह स्वप्न कहीं बाहर और परे न होकर स्वयं उसकी सृष्टि, उसके फार्म,उसकी संरचना में सन्निहित है।"
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निर्मल वर्मा की कहानियों के पात्रों के बीच का तनाव जहाँ एक आधुनिक मन का तनाव है, वहीं कहानियों की लय भी इस तनाव को पूरी तरह संप्रेषित करती है।इस तथ्य को समझने के लिए निर्मल वर्मा की कहानी ' एक दिन का मेहमान ' कहानी की इन पंक्तियों को ध्यान से पढ़िए-
' लड़की ने ऊपर कमरे की तरफ देखा ,ऊपर सन्नाटा था, जैसे घर की एक देह हो, दो में बंटी हुई जिसका
एक हिस्सा सुन्न और निस्पन्द पड़ा हो, दूसरे में वे दोनों बैठे थे और तब उसे भ्रम हुआ कि लड़की कोई कठपुतली का नाटक कर रही है।ऊपर के धागे से बँधी हुई , जैसे वह खींचता है, वैसे वह हिलती है , लेकिन वह न धागे को देख सकता है , न उसे ,जो उसे हिलाता है।"
उद्धृत पंक्तियों में निहित लय आधुनिक मन के तनावों की एक लयात्मक व्यंजना करती है और विभिन्न शब्दों और वाक्यों के बीच का तनाव भाषा- विन्यास को खरा बनाता है ।निर्मल की कहानियों की संरचना की तुलना अक्सर संगीत से की जाती रहीं। ऐसा उनकी कहानियों में व्याप्त लयात्मकता के कारण ही है। हर सशक्त लेखक के सृजन में कुछ कमजोरियाँ भी होती है।निर्मल वर्मा भी इससे अछूता नहीं रहे।
आलोचकों का कहना है कि " निर्मल वर्मा के चरित्र परिस्थितयों से लड़ते नहीं, बल्कि आत्म- पीड़ा के भाव से ग्रस्त रहते हैं।उन्होेंने सामाजिक- पारिवारिक क्षेत्र के चिर- परिचित अनुभवों को लेखन का विषय नहीं बनाया।इनकी जगह उन्होंने ऐसे सवाल उठाए हैं जैसा कि पश्चिमी देशों में उठाए जाते रहे हैं- मसलन अकेलापन और अस्मिता के प्रश्न । निर्मल वर्मा के कथ्य और शिल्प को देखकर हम कह सकते हैं कि काव्यात्मक भाषा में कहानी लिखने से अमूर्तन और रहस्यीकरण की प्रवृत्ति ही बढ़ेगी , हमारे सामाजिक यथार्थ को , उसमें निहित पाखंड, विषमताओं और अंतर्विरोधों को उद्घाटित करने की शक्ति क्षीण होगी।ऐसा करना गद्य जैसी सशक्त और यथार्थ को अनावृत्त करने वाली विधा की प्रकृति के अनुकूल नहीं होगा।"
कथित दोषों के बावजूद निर्मल वर्मा की अहमियत कम नहीं है। ' नयी कहानी ' के कहानीकार आदि से अंत तक एक ही बात से अनेक बातें निकालता रहता है, जो कहानी का रूप ले लेती है।यह कौशल वही दिखा सकता है जिसके पास बातचीत की उत्कृष्ट कला हो और भाषा की बारीकी भी।इस संबंध में प्रसिद्ध आलोचक डॉक्टर नामवर सिंह ने लिखा है-'नये कहानीकार ने अपने अभीष्ट विचार की अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत प्रभावशाली तथा
साभिप्राय घटना- प्रसंग का उपयोग किया, जिसकी सारी शक्ति आद्योपांत व्याप्त उद्देश्य में है।ऐसी कहानियों में
अंत तक जाते- जाते संपूर्ण कथानक एक सारगर्भी विचार के रूप में झंकृत हो उठता है।"
निर्मल वर्मा को हिन्दी साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए कई पुरस्कार प्राप्त हुए।1984 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1995 में मूर्तिदेवी पुरस्कार तथा 1999 में साहित्य का देश का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिला।निर्मल वर्मा ( 3 अप्रैल 1929-25 अक्टूबर 2005 ) अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर भारतीय और
पश्चिम की संस्कृतियों के अंतर्द्वंद्व पर गहनता और व्यापकता से विचार किया है। इनके लेखन और चिंतन को
अंतर्राष्ट्रीय आयाम प्राप्त हुआ। उन्होंने साहित्य और कला की निष्काम साधना की और जीवनपर्यंत अपने मूल्यों का निर्वाह किया। राष्ट्र को अपने इस महान साहित्यकार पर सदा गर्व रहेगा।
अरूण कुमार यादव
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