सुबह सात बजे अचानक यह दुखदायी घटना घटी थी। रामपुर छोटा सा गांव था, इसलिए दस मिनट में ही पूरे गांव में यह बात फैल गई थी। जिस-जिस ने उस घटना के बारे में सुना, अपना कामधाम छोड़ कर पंडित टोला की ओर दौड़ पड़ा। देवशंकर तिवारी गांव की इज्जत थे। उनकी पत्नी सविता की अचानक मौत की खबर सुन कर पूरा गांव उनके घर इकट्ठा हो गया था दहलीज में देवशंकर दोनों हाथ सिर पर रखे उकड़ूंमुकुड़ू बैठे थे। गांव के सात-आठ बड़े-बुजुर्ग उनके पास बैठे थे। देवशंकर कांपती आवाज में उन्हें बता रहे थे, "रोज की तरह दरवाजे के चबूतरे पर बैठा मैं दातून कर रहा था। 'तुम जल्दी से दातून करो, मैं चाय बना रही हूं।' कह कर वह घर में गई। थोड़ी देर बाद मैं अंदर गया तो देखा वह आंगन में चित्त पड़ी थी।"
इतना कह कर देवशंकर ने एक आह भरी और निराशा से सिर घुमाया, "पचास साल का साथ छोड़ कर आंख झपकते वह परलोक सिधार गई। यह कैसे हो गया, विश्वास नहीं हो रहा है।"
"इस तरह की सुंदर मौत तो नसीब वालों को ही मिलती है देवशंकर भाई। किसी से सेवा चाकरी कराए बगैर देह छोड़ कर प्राण निकल गया।" देवशंकर की बगल में बैठे पड़ोसी रामानुज शुक्ल ने उनके कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना देते हुए कहा, "दोनों बेटियों और दामादों को सूचना दे दी?"
देवशंकर और सविता की संतानों में दो बेटियां ही थीं- बड़ी बेटी सुशीला और छोटी श्रीदेवी। दोनों बेटियों की ससुराल नजदीक के ही गांवों में थीं। देवशंकर इस हद तक टूट चुके थे कि क्या जवाब दें, उन्हें होश ही नहीं था। रामानुज शुक्ल ने सारी जिम्मेदारी संभाल ली थी। गांव के लड़कों से कह कर उन्होंने अंतिम संस्कार की सारी तैयारी करवा ली थी। दोनों दामादों को फोन भी करवा था।
सविता की लाश को अर्थी पर रखने से ले कर अगरबत्ती सुलगाने और घी का दिया जलाने तक का काम पड़ोसियों ने संभाल लिया था। दोनों दामाद गाड़ियों से दोनों बेटियों को ले कर आ गए थे। लाश के पास बैठ कर दोनों बेटियां एकदूसरे को भेंटते हुए जोरजोर से रो रही थीं। बड़ी बेटी सुशीला के पति प्रशांत ने आते ही सारी जिम्मेदारी संभाल ली थी। श्रीदेवी का पति भी प्रशांत की मदद कर रहा था।
गांव के श्मशान में अग्नि की ज्वालाओं के बीच सविता की लाश जल रही थी। गांव के तमाम पुरुष वहां इकट्ठा थे। उनके बीच धीमी आवाज में चर्चा कल रही थी। शांतिलाल ने बगल में खड़े रमणलाल से कहा, "देवशंकर का यह जो बड़ा दामाद है न, उससे उनकी ज्यादा नहीं पटती। बेटी ने उससे अपने मन से विवाह किया था न, इसलिए तीन साल तक देवशंकर ने उसे अपने घर बुलाया ही नहीं। लेकिन आज देखो, आते ही सगे बेटे की तरह सेवा में लग गया।"
"ऐसे ही समय में आदमी के खानदान का पता चलता है।" रमणलाल ने कहा, "खबर पाते ही सारी कड़वाहट भूल कर भाग कर आ गया।"
शांतिलाल ने कहा, "देवशंकर भाग्यशाली हैं। बेटा भले नहीं हैं, लेकिन दोनों दामाद हीरा हैं।"
"इस उम्र में पत्नी का मरना बहुत तकलीफ देता है। हेडमास्टर से रिटायर हुए हैं, इसलिए अच्छीखासी पेंशन मिलती होगी। पैसे की भले तकलीफ न हो, पर पत्नी के बिना जिंदगी बोझ लगने लगती है। कभी कोई तकलीफ हो तो आदमी किससे कहे? दोनों में से किसी एक बेटी के घर रहने चले जाएं तो उनके लिए अच्छा रहेगा।" रमणलाल ने कहा।
"देवशंकर बहुत स्वाभिमानी आदमी हैं। पूरी जिंदगी अपने सिद्धांतों पर जीने वाले मास्टर इस उम्र में बेटी के घर का पानी भी नहीं पीना चाहेंगे। वह चाची से अच्छा खाना बना लेते हैं, इसलिए उनका बेटी के घर गुजर होना मुश्किल है।"
सभी श्मशान से वापस आए तो बेटियां रो ही रही थीं। वे बाप को पकड़ कर जोरजोर से रोने लगीं। यह दृश्य इतना कारुणिक था कि देखने वालों की भी आंखें नम हो गईं।
"तुम्हारी मां तो साक्षात देवी थी। उसके पीछे रोना शोभा नहीं देता। उसकी पवित्र आत्मा को पीड़ा होगी।" दुखी पिता देवशंकर ने खुद को स्वस्थ करतें हुए बेटियों को समझाया, "प्रभुस्मरण से उसकी आत्मा को खुश करने के बदले रोने से उसकी आत्मा को तकलीफ होगी।"
अगले दिन दोनों दामाद तो चले गए, पर बेटियां रुक गईं। बेटियों ने पिता से कहा कि सारी विधि हो जाने के बाद वह उनके साथ रहने के लिए उनके घर चलें। पर देवशंकर ने हाथ जोड़ कर मना कर दिया था। बीच-बीच में दामाद आ जाते थे। काम और तेरहवीं में दोनों दामाद एक पैर पर खड़े रहे।
दामाद सुबह लेने आने वाले थे। इसीलिए रात को देवशंकर ने दोनों बेटियों को सामने बैठा कर कहा, "ईश्वर साक्षी है कि मैंने तुम दोनों के बीच कभी भेदभाव किया हो।" आवाज और आंखों में नमी लाते हुए उन्होंने सुशीला की ओर देख कर कहा, "इसने अपने मन से विवाह कर लिया, इसलिए इसे तीन साल नहीं बुलाया। इसकी वजह मेरी जिद थी। पर अंदर से तो हृदय जलता ही था। मेरे डर से तुम्हारी मां कुछ कह नहीं पा रही थी। पर वह बेचारी मन ही मन घुटती रहती थी। अब जब आज बात चली है तो सुनो, उसकी दशा देख कर इतनी तकलीफ होती थी कि मैंने खुद को सजा दी। तुम्हारी कसम, घर में सब कुछ होते हुए कभी कोई अच्छा खाना थाली में नहीं आया। आखिर जब नहीं रहा गया, तब हार कर भारी मन से तुम्हें और दामाद को घर बुलाया।"
गले में फंसे थूक को निगलने के लिए देवशंकर रुके। उसके बाद दोनों बेटियों को ताकते हुए बोले, "तुम्हारी मां लखपति नहीं थी, फिर भी किसी तरह दस-बीस रुपिया जोड़ कर तुम लोगों के लिए बचाती रहती थी। उसका सामान खंगाला तो उसमें सोलह हजार रुपए निकले। ये रहे तुम दोनों के आठ-आठ हजार रुपए। बाकी उसके बक्से में रखी साड़ियां और छोटा-मोटा सामान बांट कर ले लेना।"
"पिताजी मुझे कुछ नहीं चाहिए।" आंखों में आंसू भर कर सुशीला ने बाप के सामने हाथ जोड़ कर कहा, "आप का और मां का आशीर्वाद मिला, यही हमारी सारी संपत्ति है। मैं प्यार से कह रही हूं कि यह सब छोटी को दे दो।"
सुशीला की बात पर ध्यान दिए बगैर देवशंकर ने कुरते की जेब से वेल्वेट की एक छोटी सी पोटली निकाल कर बेटियों के सामने रखते हुए कहा, "बाकी का मालमुद्दा इसमें है। मैं तो शुरू से ही मस्तमौला था। विवाह के समय न कोई पूंजी थी और न कोई बचत थी तुम्हारे बाप के पास। इतने सालों में एक बाल की चिमटी तक नहीं दिलाई बेचारी को। अपने मायके से जो गहने ले आई थी, उसे जिंदगी की तरह संभाले रही। तिथि-त्योहार या हौके-मौके पर उन्हीं को पहन कर मेरी इज्जत बचाती रही।"
देवशंकर ने पोटली खोलते हुए आगे कहा, "अपनी मां का प्रसाद समझ कर इन गहनों को बांट लो, समझो मैं मुक्त हो गया।"
सोने की चार चूड़ियां, कान के एक जोड़ी टाप्स, नाक की दो कील और चांदी की झांझर को दोनों बेटियां ताक रही थीं। कमरे के कोने में सविता के फोटो के आगे घी का दीया जल रहा था। देवशंकर स्थितप्रज्ञा से उसी ओर देख रहे थे।
"पिताजी बक्से में रखे सामान को ठीक से देखा था न?" श्रीदेवी ने हड़बड़ा कर पूछा।आश्चर्य से अपनी ओर ताक रहे बाप की ओर ताकते हुए उसने कहा, "चार तोला का एक हार भी था, वह नहीं दिखाई दे रहा है। उस नेकलेस को तो मेरी मां जिंदगी की तरह संभालती थी। वह कहां है?"
देवशंकर की स्थितप्रज्ञता वैसी ही थी। उन्होंने कहा, "सब कुछ देख लिया है। उस तरह का कोई नेकलेस या हार घर में कहीं नहीं है। अगर होता तो इसी सब के साथ होता।" सविता के फोटो की ओर देखते हुए वह बड़बड़ाए, "इस तरह की बातों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया, इसलिए उसके खजाने में क्या-क्या है, मुझे पता नहीं। तुम्हारी स्वर्गवासी मां की जो प्रसादी थी, वह तुम लोगों के सामने रख दिया।" उन्होंने श्रीदेवी को विश्वास दिलाते हुए कहा, "फिर भी तुम्हारे संतोष के लिए दोबारा पूरा घर खंगालूंगा।"
"इस सबकी की कोई जरूरत नहीं है पिताजी।" भीनी आवाज में सुशीला बड़बड़ाई और अगले ही पल दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप कर रोने लगी। श्रीदेवी और देवशंकर एक-दूसरे को आश्चर्य से ताकने लगे।
थोड़ी देर तक रोने के बाद सुशीला ने पिता और श्रीदेवी की ओर देखते हुए कहा, "मैं गुनहगार हूं पिताजी। आप दोनों की अपराधी हूं मैं।" हिचकी के कारण उसकी आवाज टूट रही थी। उसने आगे कहा, "विवाह के दो साल बाद उनकी नौकरी में एक बड़ा घोटाला हो गया था। आफिस में घोटादा किसी और ने किया, पर नाम इनका लगा। भरोसे पर आंख मूंद कर दस्तखत कर दिए और फंस गए। इनके साहब ने कहा कि अगर एक सप्ताह में पैसा भर दो तो नौकरी बच सकती है।"
श्रीदेवी और देवशंकर स्तब्ध हो कर सुन रहे थे और सुशीला रो-रो कर सुना रही थी, "पिताजी उस समय तो आप ने मुझे मरी हुई मान लिया था। ससुराल वालों से भी कोई उम्मीद नहीं थी। मैं अभागन उस दशा में अपनी जान लेने के बारे में सोच रही थी। अंतिम उपाय के रूप में मुझे मां की याद आई। मुझे पता ही था कि वह हर सोमवार को महादेव के मंदिर दर्शन करने जाती थी। इसलिए वहां जा कर उसे पकड़ कर उसके सामने अपना दुखड़ा रोया। वह भी रोई। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था, इसलिए मां-बेटी एकदूसरे को पकड़ कर खूब रोई। अचानक मां का चेहरा चमक उठा। उन्होंने कहा, "जिंदगी में पहली बार तुम्हारे बाप से छुपा कर मुझे यह काम करना पड़ रहा है। उनका स्वभाव तो नरसिंह मेहता जैसा है। मेरे पास कौन कौन गहना है, उस भोले देवपुरुष को यह भी पता नहीं है। गांव के सुनार के पास तो जाया नहीं जा सकता। कोई बहाना कर के दोपहर को शहर जाऊंगी। चार तोला का हार बेच डालूंगी। मुझे सीने से लगा कल बोलीं कि 'मेरी बिटिया की जान पर आई है तो नेकलेस की क्या बिसात। नेकलेस मेरी बिटिया की जान से बढ़ कर नहीं है।
कांपती आवाज से यह सब कबूल करते हुए सुशीला की आंखों से बेधार आंसू बह रहे थे। जगदंबा जैसी मां ने झूठ का सहारा ले कर बेटी की जिंदगी बचा ली थी। पिताजी उन्होंने मुझे सौगंध दिलाई थी कि उनके जीते जी मुंह मत खोलना।" फिर देवशंकर की ओर देखते हुए कहा, "पर छोटी के साथ अन्याय करूं तो यह अन्याय पूरी जिंदगी मन को शांति से नहीं रहने देगा। इसलिए मैं ने पहले ही कह दिया था कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। सब कुछ छोटी को दे दो। छोटी बहन को धोखा देने से सौगंध तोड़ना ज्यादा ठीक है।"
इतना कह कर सुशीला उठी और मां की फोटो के सामने गिर पड़ी। फिर हाथ जोड़ कर बोली, "मां तेरी सौगंध तोड़ने का जो अपराध मैंने किया है, उसके लिए मुझे माफ करना।"
सुशीला फफकफसक कर रो रही थी। देवशंकर और श्रीदेवी की भी आंखें कोरी नहीं थीं।
वीरेंद्र बहादुर सिंह
जेड-436ए, सेक्टर-12,
नोएडा-201301 (उ.प्र.)