हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों की गोद में बसे देहरादून में वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलाॅजी नाम की संस्था है। साल 1976 में बनी इस संस्था का भले ही इकलौता कार्यालय चंद वर्गमीटर में फैला है, पर इसका कार्यक्षेत्र अत्यंत विशाल है। उत्तर कश्मीर से ले कर उत्तर-पूर्व अरुणाचल प्रदेश तक फैली लंबी हिमालय की जर्जरित पर्वतमाला का 5,50,000 वर्गकिलोमीटर का विशाल प्रदेश वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलाॅजी के वैज्ञानिकों के अध्ययन क्षेत्र में आता है। हिमालय की चोटियां और उसमें स्थित खनिज, नदियां, हिमनदियां, हिमप्रपात और भूगर्भ में उठने वाली हलचल आदि के बारे में इसके काबिल वैज्ञानिक सालों से शोध कर रहे हैं। हिमालय के भूस्तर (जियोलाॅजी) के बारे में आज तक उन लोगों ने कितना गहन अध्ययन किया है, यह जानना समझना हो तो इंस्टीट्यूट के अत्यंत समृद्ध संग्रहालय जाना होगा। संभव है कि उसके बाद हिमालय को पर्वत के रूप में देखने के बजाय एक कुदरती अजायबियों के ओपन एयर म्युजियम के रूप में समझने का दृष्टिकोण आए।
यह अनोखा मौका मिले तो सही। इस बीच वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलाॅजी तथा बद्रीनाथ की डिवीजनल फॉरेस्ट आफिस की ओर से आई एक बैड न्यूज को जानते हैं।
उत्तराखंड के शिवालिक पहाड़ियों में 16,500 फुट की ऊंचाई पर स्थित रूपकुंड नाम का सरोवर इधर कुछ सालों से अपना घेराव समेट रहा है यानी वह सिमट रहा है। विषय चिंता का है, पर चिंता बढ़ाने वाला समाचार यह है कि साल 2024 में रूपकुंड का घेराव अपेक्षा से अधिक सिमटा है। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलाॅजी के तथा हिमालय की बदलती जलवायु का अध्ययन करने वाली संस्थाओं के वैज्ञानिक रूपकुंड के इस संकुचन के लिए ग्लोबल वार्मिंग को कसूरवार ठहराते हैं। पृथ्वी के तापमान में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी की वजह से हो रही ग्लोबल वार्मिंग की समस्या का मानवजाति के पास हाल-फिलहाल कोई हल नहीं है। इसलिए रूपकुंड (इसी तरह अन्य सैकड़ो ऊंची पहाड़ी सरोवरों का) का भविष्य धुंधला नजर आ रहा है। समझा जा सकता है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी का तापमान हिमप्रदेशों का तथा हिमनदियों का 'पसीना' बहा रहा है, इसलिए बर्फ पिघलने से उनकी व्यापकता घट रही है। परंतु रूपकुंड जैसे सरोवर के फैलाव के सिकुड़ने के पीछे आखिर ग्लोबल वार्मिंग की क्या भूमिका हो सकती है? यह रहा सोच के बाहर का खुलासा।
औद्योगिक इकाइयां और मोटर वाहनों ने पृथ्वी के वातावरण में बेहिसाब कार्बन डायोक्साइड छोड़ा है, जिससे पिछले कुछ सालों से पृथ्वी का तापमान नार्मल की अपेक्षा ऊंचा होता जा रहा है। जिसका सीधा असर हिमालय पर पड़ा है। सामान्य रूप से 15,000 फुट से अधिक ऊंचाई वाले पर्वतीय इलाके में जलवायु ठंडी होने के कारण साल में अनेक बार हिमवर्षा होती थी। हवा में नम पानी की बूंदें तेज बरसात की तरह तो नहीं, परंतु रुई की तरह धीरे धीरे गिरती थीं। इस प्राकृतिक आयोजन में ग्लोबल वार्मिंग की वजह से सोचा न जा सके, इस तरह का बदलाव आया है। हिमालय की उत्तुंग ऊंचाई पर थर्मामीटर का पारा धीरे, पर निश्चित आयाम में ऊंचा होता गया है। परिणामस्वरूप जहां पहले हिमवर्षा होती थी, वहां आज मेघराज जल की बूंदों की धुआंधार बाजी खेलते हैं। आकाश से जलधारा बह रही हो, इस तरह अरबों घन मीटर पानी पर्वतों पर गिरता है।
बस, रूपकुंड जैसे सरोवरों के लिए यही मुश्किल पैदा करता है। पर्वतीय ढलानों से नीचे की ओर तेजी से बहने वाली जलधारा अपने साथ पत्थरों को धोते हुए मिट्टी भी ले आती है। असंख्य छोटेबड़े पत्थरों को जकड़ कर रखने वाली और नीचे जाने से रोकने वाली रेत-मिट्टी की बाँडिंग मटीरियल नाबूद होने से यह पर्वतीय ढलान भूस्खलन के लिए उचित उम्मीदवार बन जाता है। मिट्टी का बंधन खो देने से पत्थरों का टनबंध समुदाय फिसलता हुआ नीचे आ जाता है और तल वाली जगह पर स्थाई हो जाता है।
चारों ओर माउंट त्रिशूल (23,360 फुट) जैसे उत्तुंग शिखरों वाला रूपकुंड सरोवर इस तरह के भूस्खलन का भोग बनता आया है। पहले हिमवर्षा में सुरक्षित रहने वाली पहाड़ियों की मिट्टी-ढ़ेला-पत्थरों की जमावट बरसात में टिक नहीं सकती। नीचे खिसक कर रूपकुंड के आसपास जमा होती है। इस तरह के अतिक्रमण ने रूपकुंड की व्यापकता को काफी घटा दिया है। यह घटना अभी चालू है। इतना ही नहीं, 2024 में हुई अपार बरसात में पानी के साथ आए लाखों टन कीचड़ ने रूपकुंड को और समेट दिया है।
हिमालय की गगनचुंबी चोटियों में स्थित हजारों सरोवरों में एकाध सरोवर का अस्तित्व देरसवेर खत्म हो जाएगा तो क्या फर्क पड़ने वाला है?
किसी सामान्य या साधारण सरोवर की बात की जा रही हो तो उपरोक्त सवाल उचित भी लगेगा, पर यहां चर्चा रूपकुंड की हो रही है। यह सरोवर सामान्य नहीं है, असामान्य है। कम से कम 12 सौ साल का भूतकाल इसने संभाल रखा है। जिसके कारण दुनिया में यह रहस्यमय सरोवर के रूप में भी जाना जाता है। भारत में ही नहीं, अमेरिका, ब्रिटेन तथा जर्मनी जैसे देशों के इतिहासकारों तथा नृवंशशास्त्रियों के लिए रूपकुंड ऐसा रहस्य है, जिसका हल आज तक नहीं निकल सका है।
इस पहाड़ी सरोवर को रहस्यमय बनाने वाला इसका छिछला तल और इसके इर्द-गिर्द फैली मानव अस्थिया हैं। कंकाल एक दो नहीं, लगभग आठ सौ हैं। ये सब अस्थियां किस की हैं? सोलह हजार फुट की ऊंचाई पर ये कैसे पहुंचीं? मानलीजिए कि किसी प्राकृतिक आपदा का सैकड़ो लोग शिकार हुए हों तो वह प्रकृतिक आपदा कौन सी थी? हिमभूकंप, हिमप्रपात या फिर भूस्खलन? कंकाल के रेडियो कार्बन डेटिंग परीक्षण से पता चला है कि वे साल 800 के आसपास की हैं। जबकि कुछ अस्थियां सन 1800 का समय बताती हैं। एक ही स्थान पर दो अलग-अलग समय काल के हाड़पिंजर मिलना, इसे संयोग माना जाए तो यह संयोग भी कितना अजीब है।
सन 1942 में हरिकिशन मेघवाल नाम के वन क्षेत्रपाल (फॉरेस्ट रेंजर) ने पहली बार रूपकुंड सरोवर के पास मानव अस्थियां खोज निकाली थीं। इस घटना को 8 दशक हो गए हैं। इस बीच देश-विदेश के तमाम शोधकर्ताओं ने इन अस्थियों का रहस्य उजागर कर ने की अपनी अपनी रीति से अलग-अलग थ्योरी दी है।
जम्मू-कश्मीर के डोगरा वंशी महाराजा गुलाब सिंह के सेनापति जनरल जोरावर सिंह अपनी सशस्त्र सैनिकों की फौज के साथ सन् 1842 में चीन शासित तिब्बत युद्ध के लिए गए थे। चीन को तो उन्होंने खदेड़ दिया। परंतु लौटते समय रूपकुंड सरोवर के पास किसी रहस्यमय दुर्घटना में जोरावर सिंह के सैकड़ो सैनिक मारे गए। पर यहां सवाल यह है कि अगर पहले ऐसा कुछ सच में हुआ है तो रूपकुंड और उसके आसपास युद्ध के कुछ सबूत जैसे कि ढ़ाल, तलवार और भाला आदि कुछ तो मिलना चाहिए। जबकि आज तक कोई हथियार वहां नहीं मिला है। जबकि वहां मिले कंकालों में कुछ अस्थियां महिलाओं की भी हैं। जिसकी वजह से जोरावर सिंह की सेना वाली थ्योरी गलत लगती है।
शोधकर्ताओं द्वारा किया गया दूसरा अनुमान बीमारी फैलने का है, जिसके अनुसार रूपकुंड से अमुक किलोमीटर के अंदर कोई ऐसी जानलेवा बीमारी फैली होगी कि मृतकों के विषाणयुक्त शरीर को दफनाने के लिए रूपकुंड के आसपास की जगह को दफनाने के लिए पसंद किया गया होगा। परंतु यह मान्यता भी गलत साबित हुई, क्योंकि जब आधुनिक जिनेटिक विज्ञान द्वारा मानव अस्थियों का संकीर्ण अध्ययन किया गया तो जैविक परीक्षण में पेथोजन यानी कि छुआछूत वाले विषाणु (वैक्टीरिया) की उपस्थिति नहीं पाई गई थी। इसलिए यह थ्योरी भी गलत साबित हुई।
अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक शोध से पता चला है कि अधिकांश मृतकों की खोपड़ियों में छोटी-बड़ी दराजें थीं यानी वे फटी थीं। हथौड़ी जैसो किसी ठोस चीज का जबरदष्त प्रहार इसके लिए जिम्मेदार था। हिमालय में साढ़े सोलह हजार फुट की ऊंचाई पर कभी कभी हेलस्टाॅर्म बर्फ की बरसात होती है। जिसमें बड़े बड़े चीकू के फल की बराबर के बर्फ के टुकड़े तेज रफ्तार से जमीन की ओर आते हैं। इनका प्रहार झेलने वाले व्यक्ति की खोपड़ी सलामत नहीं रह सकती।
देखा जाए तो यही थ्योरी काॅमन सेंस के साथ मेल खाती है। पर चाहें तो इसे रहस्यमय रूपकुंड के रहस्य का 50 प्रतिशत जवाब मान सकते हैं।
बाकी का 50 प्रतिशत रहस्य अभी रहस्य ही है। ओलावृष्टि में मारे गए मृतक आखिर कौन थे?
पौराणिक कथा के अनुसार पृथ्वी पर असुरों का वध करने के बाद पार्वतीजी स्नान करना चाहती थीं। तब शिवजी ने त्रिशूल के प्रहार से एक सरोवर की रचना की थी। निर्मल और नीलवर्णी जल में स्नान कर के पार्वतीजी बाहर निकलीं तो उनका अलौकिक रूप सरोवर के पानी में प्रतिबिंबित हुआ। इसलिए यह सरोवर रूपकुंड के नाम से जाना गया और स्थानीय लोगों में पवित्र जल के रूप में पूजा जाने लगा।
बारहवीं सदी के शुरू में कन्नौज के राजा यशधवल अपनी गर्भवती पत्नी तथा नौकरों-चाकरों के साथ यात्रा पर निकले थे। नौटी गांव से पहाड़ी रास्ते से होते हुए वह रूपकुंड पहुंचे तो हिमप्रपात होने लगा। पहाड़ी ढलान से खिसक कर आने वाली बर्फ ने सभी यात्रियों को मौत की सफेद चादर ओढ़ा दी।
रूपकुंड की कुछ खोपड़ियां समूची हैं। इसलिए मृतक ओलावृष्टि के बजाय हिमप्रपात का शिकार भी हो सकते हैं। फिर भी रेडियो कार्बन डेटिंग से निकाली गई मानव अस्थियों का समय सन 800 और सन 1800 है। इसलिए कन्नौज नरेश यशधवल की यात्रा का समय सन 1150 से मेल नहीं खाता।
संक्षेप में रूपकुंड का रहस्य अभी खुलता नजर नहीं आ रहा, बल्कि यह कहा जा सकता है कि जितना हल करने की कोशिश की जा रही है, वह उतना ही उलझता जा रहा है। शिव-पार्वती के साथ जुड़ी आस्था, कंकाल और इसका रहस्य रूपकुंड को एक अनोखा सरोवर बनाता है। दुर्भाग्य से ग्लोबल वार्मिंग का शिकार होता यह सरोवर अपने साथ आस्था और रहस्यों को भी ले जाने वाला है।
वीरेंद्र बहादुर सिंह
जेड-436ए, सेक्टर-12,
नोएडा-201301 (उ.प्र.)