बिहार में दरभंगा के पास चंदन पट्टी नाम का एक गांव है,जहां परवीन शाकिर का कुंबा रहता था.भारत-पाक विभाजन के पहले उनके पिता रोज़गार की तलाश में कराची चले गए जहां 24 नवंबर 1953 को परवीन की पैदाइश हुई.ख़ुदा ने उन्हें वह सब कुछ दिया था, जिसकी एक लड़की सपने देखती है. देखने में वह निहायात ही खूबसूरत और सलीके मंद थीं.विदेशों से पढ़ाई हुई..अंग्रेज़ी से एम फ़िल करने के बाद वो प्रोफ़ेसर बनीं, फिर जल्दी ही अपने क़ाबिलियत और मेहनत के बल पर पाकिस्तान की सिविल सेवा में शामिल हो गईं. कॉलेज के दिनों में ही उन्होंने ख़ुशबू नाम की ग़ज़ल की एक किताब लिखी,और इस किताब का यह जादू हुआ कि परवीन शाकिर रातों-रात पूरी दुनिया की चहेती शायरा बन गईं. उनकी शायरी का यह जादू था कि इश्क में डूबा और छला हुआ हर नाकाम शख्स उनका क़ायल हो गया.ख़ुशबू के बाद सदबर्ग इंकार,खुद कलमी, कफ़े आईना जैसे कई संग्रह उनके प्रकाशित होते गए, पर उन्हें ख़ुशबू से ही इतनी लोकप्रियता मिल चुकी थी कि अगर वह आगे कुछ न भी लिखतीं तब भी परवीन शाकिर की शायराना अज़मत उतना ही बड़ा होता.परवीन शाकिर ने ग़ज़ल को ख़ालिस ग़ज़ल बनाकर पेश किया. प्रेम और वियोग तथा उनके बीच जलती हुई एक नाज़ुक स्त्री की व्यथा- कथा परवीन शाकिर की शायरी की अपनी ज़मीन है. परवीन की यह विशेषता है कि उन्होंने मर्दों की दुनिया में मर्द बनकर नहीं औरत बनकर अपनी पहचान दर्ज की.परवीन शाकिर पढ़ी-लिखी और एक बड़े घराने से ताल्लुक़ रखतीं थीं,पर सब कुछ होने के बावजूद परवीन का जीवन सुखमय नहीं रहा. उन्हें जिस लड़के से प्यार हुआ वह उनके समुदाय का नहीं था,और उनकी मर्ज़ी के खिलाफ जिस चिकित्सक नसीर अली से शादी हुई, उसमें दम्भ और ग़ुरुर भरा हुआ था.उसकी नज़रों में स्त्री की कोई इज़्ज़त नहीं थी.जहां तक हो सका परवीन ने इस रिश्ते को संभालने की कोशिश की.पति परवीन को ऑफिस जाने, शायरी करने और मुशायरे में शिरकत करने को भी गवारा नहीं करता था,और अंततःपरवीन इतनी प्रताड़ित हुईं कि एक बेटे सैयद मुराद के जन्म के बाद दोनों का दाम्पत्य संबंध विच्छेद के रूप में समाप्त हो गया.परवीन की पूरी शायरी इसी वियोग में तड़पती हुई एक स्त्री की व्यथा- कथा है.ऐसा नहीं है कि उसमें संयोग के चित्र कम हैं.परवीन शाकिर की ज़्यादातर ज़िन्दगी जुदाई में बीती इसलिए उसमें वियोग का पक्ष अधिक प्रबल है.ख़ुशबू की यह अल्हड़ लड़की अपने महबूब का शिद्दत से इंतज़ार करती है.कभी उसकी मोहब्बत तो कभी उसकी बेवफ़ाई और कभी उसके सौंदर्य पर रीझ जाती है, और तब वह कहती है -
रुके तो चांद चले तो हवाओं जैसा था
वो शख्स धूप में देखूं तो छांव जैसा था
.........
और फिर यह भी कि -
हवा महक उठी रंगे -चमन बदलने लगा
वो मेरे सामने जब पैरहन बदलने लगा
पर परवीन को क्या पता था कि वह शख्स जिसका वह इंतज़ार करती है. एक दिन उसकी ही भावनाओं से खेलेगा अरमानों को कुचलेगा और जिंदगी में जब उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होगी तो उसे बीहड़ स्थान में तन्हा छोड़ कर चला जाएगा.परवीन तब कहती हैं -
मैं जिसके इश्क में घर बार छोड़ बैठी थी
यही वह शख्स है मुझको यकीं नहीं आता
परवीन शाकिर की शायरी में यह बात साफ़ तौर से उभरती है कि वह अपने जीवनसाथी से अलग होने के बाद भी उसे भुला ना सकीं.
कमाल शख्स था जिसने मुझे तबाह किया
खिलाफ़ उसके यह दिल हो सका है अब भी नहीं.
लेकिन इन सब से उनके पति को क्या वह तो आप दूसरी शादी की तैयारी में मशरूफ़ था.परवीन अपने इस दर्द को यों बयां करती हैं -
अब उसका फ़न तो किसी और से हुआ मंसूब
मैं किसकी नज़्म अकेले में गुनगुनाऊंगी
फिर धीरे-धीरे ऐसा हुआ कि उन्होंने अकेले जीना सीख लिया-
वक़्ते रुख़सत आ गया दिल फिर भी घबराया नहीं
उसको हम क्या खोयेंगे जिसको कभी पाया नहीं
असल में परवीन शाकिर की शायरी मैं जो बेकसी दर्द तड़प और कलात्मकता है. वह हर पाठक को अपनी ओर खींच लेती है. पाकिस्तान के होने के बावजूद परवीन शाकिर की शायरी हिंदुस्तान में भी उतनी ही लोकप्रिय है.राजकमल और वाणी प्रकाशन समेत एक दर्जन से अधिक प्रकाशकों ने उनकी किताबें हिंदी में प्रकाशित की है.
अस्सी -नब्बे के दशक में परवीन की गिनती सबसे ताक़तवर शायरा के रूप में होती थी.आज भी पूरी दुनिया में ऐसी कोई ऐसी शायरा नहीं हुई जिसने ख़ुद को परवीन से बड़ा माना हो.कहते हैं कि जब वह सिविल सर्विसेज का एग्जाम दे रही थीं, तो उसमें एक सवाल उन्हीं की शायरी से पूछा गया था.
पाकिस्तान की आबो -हवा में पलने के बावजूद परवीन का कृष्ण प्रेम भी जग ज़ाहिर है. अपनी शायरी में कभी वह राधा बन जाती हैं तो कभी गोपियां बनकर कृष्ण को रिझाती हैं -
आंख जब आईने से हटाई
श्याम सुंदर से राधा मिल आई
आए सपनों में गोकुल के राजा
देने सपनों को आई बधाई
अपनी कविता में भी कृष्ण के प्रति उनकी दीवानगी झलकती है-
तू है राधा अपने कृष्ण की
तेरा कोई भी होता नाम
क्या मोल तू मन का मांगती
बिकना था तुझे बेदाम
इस पूरी कविता में कृष्ण के लिए कहीं मुरलीधर कहीं श्याम तो कहीं घनश्याम मोहन,गिरधर, धाम, जोगन आदि पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग हुआ है,जो उनके कृष्ण प्रेम के साथ भाषा ज्ञान को भी दर्शाता है.अपनी ग़ज़लों में भी उन्होंने कृष्ण और राधा को अवलंब के रूप में प्रस्तुत किया है. कुछ शेर आप भी देखें -
यह हवा कैसे उड़ा ले गई आंचल मेरा
यों सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी
या फिर-
हवा मेरे जूड़े में फूल सजाती जा
देख रही हूं अपने मनमोहन की राह.
परवीन की जिंदगी के तजुर्बे और क़िस्से भी कम नहीं हैं. कहते हैं कि वाशिंगटन के एक मुशायरा में जब एक भारतीय शायर उनपर फ़िदा हो गए, तो परवीन ने उसी मुशायरा में उन्हें देखते हुए पढ़ा था -
किसमें कितना पानी है मछलियां समझती हैं
किसको प्यार करना है लड़कियां समझती हैं.
और फिर यह भी कि -
हुस्न को समझने की उम्र चाहिए जानां
दो घड़ी की चाहत में लड़कियां नहीं खुलतीं
दुनिया भर की यह यह चहेती और क़द्दावर शायरा 26दिसंबर 1994 को इस्लामाबाद में तब एक सड़क हादसे का शिकार हो गईं,जब वह तेज़ बारिश में अपनी कार से ऑफिस के लिए रवाना हो रही थीं. पूरी दुनिया इस ख़बर को सुनकर ग़म में डूब गई. यह अलग बात है कि उस वक्त की भुट्टो सरकार ने इस कार दुर्घटना की वजह को जानने की भी कोशिश नहीं की. यह भी जानने का प्रयत्न नहीं हुआ कि उसे तलाक और तकलीफ़ देने वाला और हमेशा नापसंद करने वाला पति नसीर उस हादसे के बाद उसके आसपास कैसे मौजूद था. हां हुकूमत के द्वारा इतना ज़रूर किया गया कि जहां यह हादसा हुआ उसे रोड को परवीन शाकिर मार्ग के नाम से ज़िंदा कर दिया गया. कुछ डाक टिकट उनके नाम पर जारी कर दिए गए. उनके बेटे मुराद को साठ हज़ार का वज़ीफ़ा दे दिया गया. ऐसा परवीन के साथ पहली बार नहीं हुआ.1981 में जब उन्होंने सिविल सेवा उत्तीर्ण की तो वह विदेश सेवा में जाना चाहती थीं लेकिन उस वक्त के मार्शल लॉ तानाशाह जनरल ज़ियाल हक़ ने महिला होने के नाते उन्हें विदेश सेवा में जाने से रोक दिया था, और न चाहते हुए भी उन्हें कस्टम डिपार्टमेंट में डायरेक्टर की नौकरी करनी पड़ी.परवीन का बिहार से गहरा लगाव था. उनका दादिहाल दरभंगा का था तो मां पटना की थीं.अपनी शायरी के लिए उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा अवार्ड अदमजी अवार्ड तथा अमेरिकी सेंटर का सदसाला ग़ालिब अवार्ड भी प्रदान किया गया.उन्हें भारत के प्रधानमंत्री द्वारा फैज़ अहमद फैज़ पुरस्कार से नवाज़ा गया.आज परवीन नहीं हैं,लेकिन उनकी कब्र पर लिखा हुआ उनका ही यह शेर आज भी जिंदगी की हकीकत और उनकी सरबुलंदी बयां कर रहा है-
मर भी जाऊं तो कहां लोग भूला ही देंगे
लफ्ज़ मेरे मेरे होने की गवाही देंगे