कैफ़ी आज़मी - रोमांस के बादशाह कैफ़ी आज़मी की पुण्य तिथि पर समर्पित

इनके पिता का नाम सैयद फतेह हुसैन रिजवी और माता का नाम हफीजुन्निसा था। कैफी के अन्य भाइयों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाया गया, लेकिन उन्हें दीनी शिक्षा यानि कि धर्म से जुड़ी शिक्षा देने के लिए मदरसे में पढ़ाया गया। कैफी के माता-पिता को लगता था कि अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने से उनके सभी बच्चे फातिहा पढ़ना नहीं सीख पाएंगें।

Jun 4, 2025 - 18:38
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कैफ़ी आज़मी - रोमांस के बादशाह कैफ़ी आज़मी की पुण्य तिथि पर समर्पित
Kaifi Azmi -

‘इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े,
हंसने से हो सुकूं ना रोने से कल पड़े,
जिस तरह से हंस रहा हूँ मैं, पी-पी के अश्केगम,
यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े।’

इतनी बड़ी दुनिया में किस शख्स को इस बात का यकीन होगा कि दिल को छू जाने वाली, कलेजे को चीर कर रखने वाली इस नज्म का लेखक कोई जाना माना नाम नहीं बल्कि एक ११ साल का बच्चा था। किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि वो बच्चा जिसने अपनी पहली नज्म से लोगों के दिल और दिमाग पर उतर जाएगा, वो एक दिन हिंदुस्तान का ऐसा नाम बन जाएगा, जिसका लिखा हुआ लोगों को प्रेरणा देगा, किसी की मोहब्बत बन जाएगा, किसी को दोबारा दिल जोड़ने का दिलासा देगा- वो नाम है कैफी आजमी का।
कैफ़ी आज़मी का जन्म १४ जनवरी, १९१९ को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के मिजवां में एक ज़मींदार खानदान में हुआ था। उनका मूल नाम सैयद अख्तर हुसैन रिजवी था लेकिन अदबी दुनिया में वह कैफ़ी आज़मी के नाम से मशहूर हुए। इनके पिता का नाम सैयद फतेह हुसैन रिजवी और माता का नाम हफीजुन्निसा था। कैफी के अन्य भाइयों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाया गया, लेकिन उन्हें दीनी शिक्षा यानि कि धर्म से जुड़ी शिक्षा देने के लिए मदरसे में पढ़ाया गया। कैफी के माता-पिता को लगता था कि अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने से उनके सभी बच्चे फातिहा पढ़ना नहीं सीख पाएंगें। इस स्थिति में कोई तो घर में हो जिसे इन चीजों का ज्ञान भी हो। इसलिए उन्होंने कैफी की पढ़ाई मदरसे में पूरी करवाई। उनके पिता उन्हें दीन की तालीम दिलाना चाहते थे, लेकिन कैफ़ी आज़मी के इंकलाबी व्यवहार ने मदरसे की स्थूल और दक़ियानूसी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। कैफी ने बेशक से दीनी शिक्षा प्राप्त की, परन्तु इंसानियत को ही अपना पहला धर्म माना। हालाँकि बाद में कैफ़ी आज़मी ने लखनऊ और इलाहाबाद से अपनी शिक्षा प्राप्त की थी। बताया जाता है कि लखनऊ में अपनी शिक्षा के दौरान उन्हें प्रगतिशील साहित्यकारों से मिलने का अवसर मिला। उस समय लखनऊ ही प्रगतिशील लेखकों का एक प्रमुख केंद्र था।
वर्ष १९२१ में कैफ़ी आज़मी लखनऊ छोड़कर कानपुर आ गए। उस दौरान मजदूरों का आंदोलन जोरों पर था, बाद में वह भी इस आंदोलन से सम्बद्ध हो गए। यहाँ रहकर उन्होंने मार्क्स साहित्य का बहुत गहनता से अध्ययन किया। इसके बाद वे वर्ष १९३६ के आसपास ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ में शामिल हो गए। १९४२ में, वे ब्रिटिश भारत के खिलाफ़ भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गए और एक पूर्ण मार्क्सवादी बन गए। वे १९४५ में मुंबई आए, जहाँ वे प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हो गए और एक पार्टी के अखबार कौमी जंग के लिए लेखन कार्य में अली सरदार जाफरी के साथ शामिल हो गए। 
१९४७ में वे एक मुशायरे में भाग लेने हैदराबाद गए। वहाँ उनकी मुलाकात शौकत आज़मी नामक महिला से हुई, प्यार हुआ और उन्होंने शादी कर ली। बाद में वह रंगमंच और फिल्मों की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री बन गईं। उनकी शादी का किस्सा भी बहुत ही मजेदार है। जैसा की बताया जाता है की कैफ़ी एक मुशायरे में भाग लेने हैदराबाद गए और वहाँ उन्होंने एक मुशायरे में अपनी प्रशंसित नज़्म `औरत' पढ़ी। इसने उनकी प्रशंसक शौकत खानम जो रंगमंच से जुडी थीं, पर ऐसा जादू किया कि उन्होंने कैफ़ी आज़मी से शादी करने के लिए अपनी सगाई तोड़ दी। नज़्म हिट रही और इसी नज़्म की बदौलत उन्हें अपना जीवनसाथी मिला। औरत नज़्म के कुछ अशआर इस तरह से हैं–
तेरे क़दमों में है फ़िरदौस-ए-तमद्दुन की बहार,
तेरी नज़रों पर है तहज़ीब-ओ-तराक़ी का मदार,
तेरी आहोश है गेहवरा-ए-ऩफ्स-ओ-किरदार,
तबकै गिर्द तेरे वहम-ओ-ताय्युन की हिसार
कौंद कर मजलिस-ए-हलवत से निकलना है तुझे
उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे।

कैफ़ी और शौकत के दो बच्चे हैं जिसमें एक बेटी जो फिल्मों की प्रसिद्ध अभिनेत्री शबाना आज़मी हैं और एक पुत्र बाबा आज़मी जो एक सुप्रसिद्ध सिनेमैटोग्राफर हैं।
वे अपनी प्रगतिशील और क्रांतिकारी कविताओं के लिए प्रसिद्ध थे, जो अक्सर सामाजिक अन्याय, धर्मनिरपेक्षता और आम आदमी की दुर्दशा को संबोधित करते थे। उनके लेखन में सामाजिक सुधार और समानता के प्रति गहरी प्रतिबद्धता झलकती थी, जिसने उन्हें हाशिए पर पड़े और उत्पीड़ित लोगों की आवाज़ बना दिया। आज़मी का साहित्यिक जीवन उनकी युवावस्था में ही शुरू हो गया था, और उन्होंने अपनी शक्तिशाली और भावपूर्ण कविताओं के लिए जल्द ही पहचान हासिल कर ली। वे प्रगतिशील लेखकों के आंदोलन में एक प्रमुख व्यक्ति थे, जिन्होंने उर्दू साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी ग़ज़लें, नज़्में और गीत उनकी गीतात्मक सुंदरता, मार्मिक विषय और सुलभ भाषा की विशेषता रखते हैं। आज़मी की शुरुआती रचनाएँ उनके क्रांतिकारी विषयों और सामाजिक न्याय के आह्वान के लिए जानी जाती थीं। उन्होंने छोटी उम्र में ही मुशायरों (काव्य संगोष्ठियों) में भाग लेकर कविता लिखना शुरू कर दिया था, जहाँ उनके शक्तिशाली काव्यपाठ ने जल्द ही ध्यान आकर्षित किया। उनकी शुरुआती कविताओं में अक्सर साम्यवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और हाशिए पर पड़े लोगों के उत्थान की उनकी इच्छा झलकती थी।
उन्हें फिल्म जगत में पहला बड़ा अवसर फिल्म 'बुज़दिल' (१९५१) में मिला, जिसमें उन्हें गीत लिखने का मौका दिया गया। इस तरह से बॉलीवुड की दुनिया में उनका प्रवेश हुआ और फिल्म उद्योग में उनके लिए दरवाजे खुल गए। हालांकि `बुज़दिल' को बहुत ़ज्यादा व्यावसायिक सफलता नहीं मिली, लेकिन यह इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इसने आज़मी की लोकप्रिय गीतों के बोलों में गहरे सामाजिक संदेश बुनने की प्रतिभा को प्रदर्शित किया। इसने उनकी प्रतिष्ठा को एक ऐसे कवि के रूप में स्थापित किया जो कलात्मक अभिव्यक्ति और मुख्यधारा की अपील के बीच की खाई को पाट सकता था।
अपनी प्रतिभा के बावजूद आज़मी को खुद को स्थापित करने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। फिल्म उद्योग अत्यधिक प्रतिस्पर्धी था, और एक गीतकार के रूप में पहचान पाने के लिए दृढ़ता और नेटवर्किंग की आवश्यकता थी। उन्हें प्रचलित रूढ़िवादी दृष्टिकोणों से भी निपटना पड़ा, क्योंकि उनके प्रगतिशील विषयों को हमेशा आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता था। इन शुरुआती वर्षों के दौरान वित्तीय अस्थिरता एक और निरंतर संघर्ष था, क्योंकि लगातार काम की हमेशा गारंटी नहीं थी।
उनकी शुरुआती सफलताओं में से एक फ़िल्म यहूदी (१९५८) के लिए गीत लिखना था, जिसने काव्यात्मक गहराई को लोकप्रिय अपील के साथ मिलाने की उनकी क्षमता को प्रदर्शित किया। कैफ़ी आज़मी का करियर १९६० और ७० के दशक में पूरी तरह से परवान चढ़ा। उन्होंने कागज़ के फूल (१९५९) , हक़ीक़त (१९६४) और हीर रांझा (१९७०) जैसी क्लासिक फ़िल्मों के लिए यादगार गीत लिखे। हक़ीक़त को ख़ास तौर पर देशभक्ति के जोश और भावपूर्ण गीतों के लिए याद किया जाता है, जिसने भारतीय सिनेमा में उनकी एक महत्वपूर्ण आवाज़ के रूप में जगह पक्की कर दी। 
आज़मी के गीतों को लेकर एसडी बर्मन और मदन मोहन जैसे प्रसिद्ध संगीत निर्देशकों ने मिलकर बेहतरीन धुनें बनाईं। उन्होंने अपने काम के ज़रिए सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने के लिए अपने मंच का भी इस्तेमाल किया। उनके गीतों में अक्सर धर्मनिरपेक्षता, समानता और सामाजिक न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता झलकती थी, जो कि गर्म हवा (१९७३) जैसी फ़िल्मों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, जिसके लिए उन्होंने पटकथा भी लिखी थी और राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीता था।
क्रांति और रोमांस के कवि कैफ़ी आज़मी ने उर्दू साहित्य में प्रगतिशील भावना और गहन मानवीय स्पर्श का संचार किया तथा भारतीय सिनेमा और समाज पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।
उन्होंने कई प्रशंसित ग़ज़लें, नज़्में और कविताएँ लिखीं, जिनमें सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद के विषयों पर चर्चा की गई। उनकी रचनाओं में अक्सर मज़दूर वर्ग और हाशिए पर पड़े समुदायों के संघर्षों को दर्शाया गया।
उन्होंने `झंकार', `आखिर-ए-शब' और `आवारा सजदे' सहित कई कविताओं की पुस्तकें लिखीं, जिन्हें आधुनिक उर्दू साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। साहित्यिक परिदृश्य पर उनके गहन प्रभाव को मान्यता देते हुए १९७५ में उन्होंने उनके ग़ज़ल संग्रह `आवारा सजदे' के लिए उर्दू भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त किया।
बॉलीवुड में `कागज़ के फूल', `पाकीज़ा', `हीर रांझा' और `गर्म हवा' जैसी क्लासिक फिल्मों सहित कई फिल्मों के लिए गीत और संवाद लिखे, और उन्हें काव्यात्मक गहराई और सामाजिक संवेदनशीलता से भर दिया। यादगार और सार्थक गीत लिखने में उनकी असाधारण प्रतिभा को मान्यता देते हुए उन्होंने कई बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। गरीबी, सांप्रदायिक सद्भाव और महिला सशक्तिकरण के मुद्दों को संबोधित करने वाली सामाजिक रूप से प्रासंगिक फिल्मों की कहानी को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वह एक समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्होंने अपने पैतृक गाँव मिजवां में लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए अथक प्रयास किए। उन्होंने क्षेत्र में शिक्षा और विकास को बढ़ावा देने के लिए स्कूल, अस्पताल और अन्य सुविधाएँ स्थापित कीं। 
१० मई, २००२ को उनका निधन हो गया, वे अपने पीछे एक समृद्ध साहित्यिक विरासत और भारतीय समाज पर एक अमिट छाप छोड़ गए। उनका काम आशा, समानता और सामाजिक न्याय के अपने शक्तिशाली संदेश के साथ पीढ़ियों को प्रेरित करता रहता है।
अगर ग़ज़ल का गुलिस्तां होगा तो कैफ़ी आज़मी के बगीचे से हर फूल की ख़ुशबू आएगी। वह उन चुनिंदा शायरों में से हैं जिन्होंने रूमानियत के साथ-साथ समाज को भी अपने अशआरों में लिखा। उनके ल़फ्ज़ बेहद आसानी से समझ आ कर दिल में उतर जाते हैं। उन्होंने वही कहा जिससे लोगों के ज़हन को आवाज़ मिल सके।   

रचना दीक्षित 
ग्रेटर नोएडा 

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