संत सहजोबाई की भक्ति साधना

रामानंद के 12 शिष्यों में जिसमें कबीर प्रमुख थे, ने भक्ति आंदोलन को व्यापकता प्रदान की। 15वीं- 16वीं शताब्दी में इसका प्रसार लगभग संपूर्ण भारत में हो गया था। पंजाब में गुरु नानक, राजस्थान में मीराबाई, गुजरात में नरसी मेहता, महाराष्ट्र में नामदेव, तुकाराम, रामदास, उत्तर प्रदेश में कबीर सूर, तुलसी, बंगाल में चैतन्य महाप्रभु असम में शंकर देव आदि भक्ति संतों ने भक्ति आंदोलन को गति प्रदान की।भक्ति आंदोलन के प्रसार में महिला संतों की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी, आण्डाल, अक्का महादेवी, लल्लेश्वरी, मीराबाई संहजो बाई ,दया बाई आदि का महत्वपूर्ण योगदान है।

Jun 21, 2024 - 14:25
 0  133
संत सहजोबाई की भक्ति साधना
Saint Sahajobai

भागवत विषयक प्रेम को भक्ति कहते हैं, जब भक्त अपने ईश्वर से इतना गहरा प्रेम करने लगे कि, उसके बिना जीवन असंभव लगने लगे तो उसे भक्ति की चरम अवस्था कहा जाता है। भक्ति के लिए संपूर्ण समर्पण एवं अहंकार का त्याग आवश्यक है। आठवीं नवी शताब्दी में दक्षिण भारत में नयनार एवं आलवर संतों के नेतृत्व में भक्ति आंदोलन का प्रादूर्भाव हुआ और लगभग दो शताब्दियों तक दक्षिण भारतीय शासको के संरक्षण में इसका पर्याप्त विकास हुआ।
दक्षिण भारतीय संत रामानुजाचार्य के शिष्य रामानंद ने भक्ति आंदोलन को उत्तर भारत में प्रसारित किया। ऐसा कहा भी जाता है-"भक्ति उपजी द्रविड़, उत्तर लाये रामानंद" 
रामानंद के 12 शिष्यों में जिसमें कबीर प्रमुख थे, ने भक्ति आंदोलन को व्यापकता प्रदान की। 15वीं- 16वीं शताब्दी में इसका प्रसार लगभग संपूर्ण भारत में हो गया था। पंजाब में गुरु नानक, राजस्थान में मीराबाई,गुजरात में नरसी मेहता, महाराष्ट्र में नामदेव ,तुकाराम, रामदास, उत्तर प्रदेश में कबीर सूर, तुलसी, बंगाल में चैतन्य महाप्रभु असम में शंकर देव आदि भक्ति संतों ने भक्ति आंदोलन को गति प्रदान की।
भक्ति आंदोलन के प्रसार में महिला संतों की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी, आण्डाल, अक्का महादेवी, लल्लेश्वरी, मीराबाई संहजो बाई ,दया बाई आदि का महत्वपूर्ण योगदान है। नारी स्वतंत्रता एवं मानवी अस्मिता के संघर्ष में इन्होंने पुरुष संतों से कम आत्माहुति नहीं दी बल्कि इनका संघर्ष और आहुति कई अर्थों में कई गुना अधिक तथा अनेकायामी रही है। इन्होंने मानवीय धर्म एवं मानवीय संवेदना का नवीन इतिहास लिखकर समादर प्राप्त किया और पूजनीय हुई। 18 वीं सदी की महिला संतों में सहजोबाई का नाम अग्रणी है। ऐसा माना जाता है कि सहजोबाई का जन्म ढूसर भार्गव कुल में 15 जुलाई सन 1725 ईस्वी को दिल्ली के परीक्षितपुरा नामक स्थान पर हुआ था। बचपन से ही सहजोबाई का झुकाव अध्यात्म की ओर था ।सहजो के माता-पिता ने 11- 12 वर्ष की आयु में उनका विवाह भार्गव कुल के एक संपन्न परिवार में निश्चित किया था। विवाह के अवसर पर सजी संवरी बैठी सहजोबाई को आशीर्वाद देने के लिए उनके मामा के पुत्र एवं प्रसिद्धि पा चुके संत चरण दास आए सहजो को देखकर चरण दास जी ने कहा--"सहजो तनिक सुहाग पर कहां गुंदार शीस । मरना है रहना नहीं, जाना बिस्वे बीस"।
उक्त शब्द सुनकर सहजो की चेतना जागृत हुई। उन्होंने कहा मैं विवाह नहीं करूंगी ,प्रभु भक्ति करूंगी इसी समय एक घटना हुई की बाराती रोते हुए पहुंचे और बताया कि आतिशबाजी से आकास्मात घोड़ी भड़क कर भाग गई और वृक्ष से टकरा गई ,जिससे वर की मृत्यु हो गई इस घटना से शोकाकुल  तथा चरण दास की त्रिकालज्ञता से प्रभावित होकर सहजो के पिता-माता हरिप्रसाद तथा अनूपीबाई, उनके चारों पुत्रों एवं पुत्री सहित उनके शिष्य हो गए। गुरु चरण दास ने सहजोबाई को अष्टांग योग, नवधा भक्ति का ज्ञान दिया तथा योगाभ्यास की विधि बताई सहजोबाई ने 5 वर्षों तक अखंड समाज में रहकर साधना की। संत कवयित्री सहजोबाई के आविर्भाव कल की धार्मिक सामाजिक राजनीतिक एवं संस्कृति परिस्थितियां अत्यंत जटिल थी उस समय देश में अनेक विघटनकारी तत्व सांस्कृतिक पतन के लिए तत्पर थे। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची थी। ऐसे समय में संत चरण दास एवं सहजोबाई का "तप्त हृदय जनता के लिए किसी फुहार से कम नहीं था। आपसी वैमनस्य की अग्नि को शांत करने का सबसे महान कार्य संत चरण दास एवं सहजोबाई ने किया था। संत सहजोबाई ने अपने ग्रंथ सहज प्रकाश एवं अन्य रचनाओं के माध्यम से जनता में भक्ति और आध्यात्मिकता का संदेश देने का प्रयास किया ।सहजोबाई का गुरु भक्ति में अटल विश्वास एवं भगवत भक्ति का समन्वियत रसायन वर्तमान में भी पद भ्रमित संसारिकों  का पथ प्रदर्शन एवं दुख दर्द दूर करने में समर्थ है। उस समय चतुर्दिक अशांति वर्ग वैमनस्य, वर्ग संघर्ष, राज्य लिप्सा, महत्वाकांक्षी हथकंडे, रक्तपात, विद्रोह, अविश्वास धार्मिक आडंबर, प्रतिशोध, हिंसा अनेतिकता एवं सांस्कृतिक पतन का जो वातावरण था, वह आज भी नाम-रूप-भेद से भिन्न नहीं है ।ऐसे विषद काल में फंसे हुए दीन दुखियों को संत सहजोबाई की वाणी से एक संबल मिला। संत कवित्री सहजोबाई को अपने गुरु संत शिरोमणि चरण दास में अविकल एवं अटूट श्रद्धा थी। उनके गुरु के प्रति प्रस्तुत किया गया चिंतन मनन अन्य निर्गुणी संतो की तरह वर्तमान में भी प्रासंगिक है।
सहजोबाई की दृष्टि में गुरु चार प्रकार के होते हैं--"गुरु है चार प्रकार के अपने-अपने अंग। गुरु पारस दीपक गुरु, मलयागिरी गुरु भ्रंग।। चरणदास समरथ गुरु, सर्व अंग तेहि माहि। जैसा कूं वैसा मिले, रीता छाड़े नाहि।। अर्थात -लौह रुप शिष्य के लिए गुरु पारसमणि, आज्ञानतिमिरावृत्त  शिष्य के लिए दीपक, पलाश रूपी शिष्य के लिए मलयागिरी तथा कीट रूपी शिष्य के लिए भ्रमर के समान है। बुद्धिमान एवं भाग्यशाली शिष्य ही ऐसे सर्वगुण संपन्न गुरु को प्राप्त कर सकता है।
संत सहजोबाई ने गुरु गोविंद में से गुरु को प्रथम महत्व दिया है संत कबीर से लेकर सभी सगुण- निर्गुण कवियों ने गुरु के महत्व को प्रायः इसी रूप में स्वीकार किया है। सहजो दृढ़ता से कहती हैं--राम तजूं पै गुरु ना विसारुं। गुरु के सम हरि कूं ना निहारु।। इसके लिए सहजो  तर्क देती है ,जिनके प्रकाश में उनका यह चिंतन अत्यधिक प्रासंगिक है वह कहती हैं--हरि ने जन्म दियो जग माही, गुरु ने आवागव छुटाही।। हरि ने पांच चोर दिए साथा, गुरु ने लई छुटाय अनाथा।।
हरि ने कुटुंब जाल में मेरी। गुरु ने  काटी  ममता बेरी।।
हरि ने रोग भोग डरझायो। गुरु जोगी कर सबे छुटायौ।।
हरि ने कर्म मर्म भरमायो। गुरु ने आतम रूप लखायो।।
हरि ने मो सूं आप छुपायौ। गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ।।
किंतु शर्त यह है कि गुरुद्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलने वाला शिष्य उस परम सत्ता के रहस्य को जान सकता है जिसने संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना की है। इस संदर्भ में सहजो कहती हैं-
गुरु के पथ चले सतनादी। सहजो पावैं भेद अनादी।।
गुरु आज्ञा के विमुख चलने वाला शिष्य बार-बार जन्म मरण के बंधनों में बंधता रहता है। ऐसा कहा भी गया है--
जो कोई गुरु की आज्ञा भूलै।
फिर -फिर कष्ट गर्भ में झूलै।।
मानव मूल्य के पतन के दौर में संत सहजोबाई चेतावनी देती हुई गुरु महिमा को रेखांकित करती हैं--
सहजो कारज जगत के, गुरु बिन पूरे नाहि। 
हरि तो गुरु बिन क्यों मिलै, समझ देख मन माहि।।
परमेश्वर सूं गुरु बड़े मावत वेद पुरान। 
सहजो हरि के मुक्ति हैं ,गुरु के घर भगवान ।।
कहने का तात्पर्य है कि, वर्तमान में भी यदि शिष्य गुरु द्वारा प्रदर्शित मार्ग में दृढ़ वृत्ती होकर चले , आज्ञानुसार  पालन करें ,कपट रहित रहे तो निश्चित रूप से गुरु ज्ञान के दीपक से उसका अज्ञान  तिमिराच्छिन  हृदय प्रकाशित हो जाएगा। सत्य तो यह है कि गुरु धोबी के समान शिष्य के मन का कलुष  मिटाता है, कुंभकार के समान उसका निर्माण कर सकता है और रंगरेज के समान जीवन में सतरंगी छठा बिखेर देता है। लेकिन साथ ही ऐसे गुरुओं से भी सावधान रहने की आवश्यकता है सहजो आगे कहती हैं--
सहजो  गुरु बहुत फिरै, ज्ञान ध्यान सुधि नाहि । 
तारिक सकैं नाहिं एक कूं,गहै बहुत की बाहिं।।
वर्तमान समाज में गिरते मानव मूल्य के संदर्भ में संत सहयोग बाई ने सत्संग की आवश्यकता एवं प्रासंगिकता पर अत्यधिक बल दिया है ।आज के भौतिक चकाचौंध ने हमारे आचार विचार को झकझोर कर रख दिया है। नैतिक- अनैतिक शब्द बेमानी लगने लगे हैं। निशाचर वृत्त ने यूं तो युवा पीढ़ी को पद भ्रमित कर दिया है ,व्यक्ति की संगत बिगड़ गई है। संत तुलसीदास जी ने सत्संग के महत्व को पहले ही रेखांकित कर दिया था, किंतु संत सहजोबाई तक भी संत समागम दुर्लभ था। अतः उन्हें कहना पड़ा कि सत्संग में जो सुख है वह कुसंग में कहां है? सहजो कहती हैं--
साथ संग में चांदना, सकल अंधेरा और । 
सहजो दुर्लभ पाइए, सतसंगत में दौर।। 
सत संगत की नाव में, मन दीजै नर नार। 
टेक बल्ली दृढ़ भक्ति की सहजो उतरे पार ।।
साथ संग तीरथ बड़ों, तामें नीर विचार। 
सहजो न्याये पाइये, मुक्ति पदारथ पार ।।
जो आवे सत्संग में जाति वरन कुल खोया।
सहजो मैल कुचैले जल,  मिले  सुगंगा होय।।
और तो और कौवा भी सत्संग को प्राप्त हो जाए तो वह हंस वृत्ति का हो जाता है। संत कवियत्री  सहजोबाई के अनुसार, सत्संग रोगी उद्यान में साधु रूपी हरे भरे छाया एवं फलदार वृक्ष होते हैं ,उनकी अमृतमयी वाणी ही उनकी कलियां है। वहां हुई सत्या सत्य संबंधी चर्चा ही विभिन्न प्रकार के फल फूल हैं। ऐसा सुंदर उद्यान आज के दूषित पर्यावरण में बड़े भाग्य से मिलता है। महात्मा बुद्ध कहते हैं तृष्णा ही मनुष्य के दुखों का कारण है। वर्तमान में तृष्णा की मृग मरिचीका से संपूर्ण संसार भ्रमित हो रहा है ।यदि यह तृष्णा रूपी रोग समाप्त हो जाए तो सुख ही सुख व्याप्त हो जाए। संत सहजोबाई   का यह कथन इस दृष्टि से प्रासंगिक है जब वह कहती हैं--ना सुख दारा सुख महल, ना सुख भूप गये। 
साध सुखी सहजो कहे तृष्णा रोग गए।।
वाणी का भी अपना विशेष महत्व होता है, कहते हैं रंग साम्य  होने के बावजूद वसंत आगमन पर कौवा और कोयल की पहचान उनकी आवाज से ही होती है, वाणी किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रदर्शित करती है। एक वेश- विन्यास वाले दो व्यक्तियों की पहचान कि उनके साथ कौन साधु है और कौन असाधु है वाणी के द्वारा ही होती है। संत सहजोबाई ने साधु एवं दुष्ट की वाणी के 12 -12 प्रकार बताएं हैं ।वाणी के लिए यह प्रकार वर्तमान में भी प्रासंगिक है।
संसार असार है, मिथ्या है, भ्रम है, काम, क्रोध मद, लोभ, मोह के कारण हम इस तथ्य को नकार देते हैं। और इसे शाश्वत मानकर गलत कार्य करते जाते हैं और कर्मों का फल भुगतते हैं।
मनुष्य देह दुर्लभ है इस तत्व को समझाते हुए "वैराग्य उपजामन के अंग "के 49 दोहों में संत सहजोबाई ने अपने विचार व्यक्त किए हैं जो मानव मूल्यों को समझने के लिए वर्तमान में भी प्रासंगिक है । सहजोबाई कहती हैं--"बहुत गई थोड़ी रही, यह भी सहसी नाहि। जन्म जाए हरि भक्ति बिनु सहजो झुर मन माहि।।
सब कर्मों का फल अच्छा और दुष्कर्मों का फल बुरा होता है। इसी के अनुसार जीवात्मा विभिन्न योनियों में भटकती रहती है बार-बार जन्म लेती है और मरती है ,इस कर्मबंधन से मुक्ति का एक ही उपाय है वासना का त्याग वासना अपने किसी रूप में शुभ नहीं कहीं जा सकती।
सहजोबाई कहती हैं--चरण दास गुरु मोहि बताई। तजो वासना सज जोबाई।। क्योंकि जीवात्मा अपनी प्रत्येक योनि में क्रमानुसार ही जन्म देती है इस संदर्भ में संत सहजोबाई का कथन वर्तमान में भी प्रासंगिक है--
पशु पक्षी नर सुर असुर, जलचर कीट पतंग। सब ही उत्पत्ति कर्म की, सहजो नाना अंग।। देह छुटै  मन में रहै, सहजो जैसी आस ।देह जन्म जेसो मिले, जैसे ही घर बास।।
इसलिए जीवात्मा को चाहिए कि यदि वह वासना ही रखती है तो परमेश्वर की वासना रखें--
परमेश्वर की वासना, अंत समय मन माहि ।तन छूटे हरि कूं मिलै, उपजै विनसै नाहि।।
यही मोक्ष का मार्ग है उपाय है। आवागमन से मुक्ति है । जन्म-मरण की यात्रा का त्याग है। मनुष्य योनि में ही हम परमेश्वर के प्रति आसक्त हो सकते हैं अतः मनुष्य योनि ही सर्वश्रेष्ठ है। सहजोबाई कहती हैं--
चौरासी जोनी भुगत, पायो मनुष सरीरा। सहजो चूकै भक्ति बिनु ,फिर चौरासी पीर।।
यदि हरि भजन नहीं किया तो परिणाम सामने है--
चार अवस्था खो दई, लियो न हरि  का नाम ।
तन छूटे जम कूटि है, पापी जग के ग्राम।।
हरिभजन दिखावा बनकर न रह जाए यह विशेष ध्यान देने की बात है पांचो चोरों से बचते हुए ही जीवात्मा हरि नाम स्मरण कर पाने में समर्थ होगी वे कहती हैं--
राम नाम यह लीजिए ,जाने सुमिरन द्वार । 
सहजो कै कर्तार ही, जाने ना संसार।।
संत सहजोबाई ने सुखी जीवन के लिए मनुष्य को बालक बनने की हिदायत  दी है बालक बनने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने बड़प्पन के अहंकार का त्याग कर दे ऐसे व्यक्ति की सर्वत्र पहुंच हो जाती है। जिस प्रकार छोटा बालक किसी के आदेश, भय या अवमानना की परवाह किए बिना सर्वत्र जा सकता है। उसी प्रकार निरंकारी मनुष्य प्रभु के पास जाने में समर्थ हो सकता है। सहजो कहती हैं -
सहज नन्हा बालका, महल भूप के जाय। 
नारी परदा ना करें, गोदहिं गोद खिलाय। 
बड़ा न जाने पाई है, साहब के दरबार। 
और हीं सूं  लागी हैं, सहजो मोटी मार।।
भक्ति के क्षेत्र में सहजोबाई ने निर्गुण संतों से भिन्न मध्य मार्ग को अपनाया है ।वर्तमान संदर्भ में उनका यह चिंतन अत्यधिक प्रासंगिक है उनके दोहे चौपाइयों और पदों में उनके इस रूप को देखा जा सकता है। "सहज प्रकाश" के दोहे चौपाइयों में एक भावुक भक्ति के दर्शन होते हैं जो उनके पदों में एक उच्च कोटि के दार्शनिक का स्वरूप प्राप्त होता है वह राम ,कृष्ण, ब्रह्म ,परमेश्वर सभी में एक ही रूप परम सत्ता को देती हैं वह निर्गुणात्मक सगुण ब्रह्मा की उपासिका है ।वह मीरा की तरह लोक-लाज  को छोड़कर कृष्ण की दीवानी भी है और निर्गुण ब्रह्म की उपासिका भी। 
निर्गुण और सगुण के भेद को समाप्त करते हुए सहजो कहती हैं --
निराकार आकार सब निर्गुण और गुणवंत। 
है नाहीं सूं रहित हैं, सहजो यो भगवंत।। 
नहीं आप परगट भयो, ईसुर लीलाधार।  
 नाहि अजुध्या और ब्रृज,कौतुक किए अपार।। 
चार बीस अवतार धरि, जन की करी सहाय। 
रामकृष्ण पूरन भये, महिमा कहीं न जाय।। 
सहजो को गीता के चतुर्थ अध्याय के श्लोक संख्या 6-7 में अटूट विश्वास है वह कहती हैं--
भक्ति हेतु हरि आईया, फिर भी भार उतारि। 
साधन की इच्छा करी, पापी डारे मारि।।
निर्गुण सूं सर्गुन भये , भक्त उधारन हार।  
सहजो की दंडोत है,ताकूं बारंबार।।
ऐसे परमात्मा को संत सहजोबाई "प्रेम भक्ति" के द्वारा प्राप्त करना चाहती हैं। परमात्मा तक पहुंचने के और भी मार्ग है, जैसे योगी योग द्वारा एवं यानी ज्ञान द्वारा परमात्मा तक पहुंचने का प्रयत्न करता है, किंतु संत सहजोबाई मीरा की तरह प्रेम भक्ति के द्वारा उसे प्राप्त करना चाहती हैं।
सहजा रहती हैं--
जोगी पावै जोग सूं, ज्ञानी लहैं विचार। 
सहजो पाये भक्ति सूं, जाके प्रेम आधार।।
साथ ही नवधा भक्ति के माध्यम से सहजो अपने आराध्य तक पहुंचना चाहती हैं, वह गुरु कृपा से सगुण-निर्गुण  दोनों रूप में सहजो एक ही ब्रह्मा को देखती हैं।
सहजो मानवीय और जीव मात्र की एकता पर विशेष बल देती हैं। ऐसा तभी संभव है जबकि व्यक्ति और समाज दोनों ही स्तरों पर संकीर्णताओं को छोड़ कर उदारता की संस्कृति का वरण किया जाये , लेकिन हम देखते हैं कि जाति संप्रदाय आदि से संकीर्णताओं को छोड़ पाना कितना मुश्किल काम है। स्वयं सहजो बाई का अपने जीवन में ऐसे दुष्टों से पाला पड़ा होगा, जिन्होंने उनको तरह-तरह के ताने और उलाहने देकर तंग किया है। तभी तो वह कहती हैं--
दुष्टन की महिमा कहूं, सुनिए संत सुजान। 
ताना दे दे दृढ़ करें, भक्ति योग अरु ज्ञान।।
निर्गुण पंथ के अन्य कवियों की भांति सहजोबाई  का जाति वर्ण और कुल की परंपरा पर कोई विश्वास नहीं है। वह इनको सामाजिक बुराई और समाज का मेल कुचैल मानती हैं आज भी उनका यह कहना प्रासंगिक है--जो आवे सत्संग में जाति वरण कुल खोया।  सहजो मैल कुचैल जल, मिले सूं गंगा होय।।
सहजो ने भक्ति जैसी मानसिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रिया में दलित जातियां को रूपक  के रूप में प्रयोग किया ग है। वह अपने एक रूपक में गोविंद से भी बड़े गुरु को कुम्हार का स्थान प्रदान करती हुई कहती हैं --
सहजो शिष्य ऐसा भला, जैसे माटी मोय ।
 आपा सौंप कुम्हार को, जो कछु हो सो होय।।
कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे कुंभकार घट निर्माता होता है वैसे ही गुरु भी होता है ।कबीर की तरह सहजो का भक्ति तंत्र भी क्रियाशील जातियों की क्रियाओं के रूपकों पर आधारित है जो हमारे जीवन के यथार्थ का ही एक अंग है ।एक अन्य दोहे में वे गुरु को धोबी का दर्जा देती हैं--
सहजो गुरु ऐसे मिले, जैसे धोबी होय। 
दे दे साबुन ज्ञान का, कलिमल डारे धोय।।
इसी प्रकार एक दोहे में गुरु को रंगरेज के समान कहा गया है--
सहजो गुरु रंगरेज सम, सब  ही को रंग देत। 
चाहे जैसा वसन हो, मैला उजाला स्वेत।।
वस्तुतः यह सब भक्ति कालीन सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया के अंतर्गत हुआ है अन्यथा गुरु जैसे स्थान के अप्रस्तुत यहां कुम्हार ,धोबी और रंगरेज कभी ना बन पाते। दूसरे रूप में यह श्रम की संस्कृति को सामाजिक स्तर पर मिली स्वीकृति भी है, जिसे निर्गुण मार्गी  संत कवियों ने अपनी वाणियो में विशेष स्थान प्रदान किया है। सामाजिक समता की संस्कृति को इस काव्य परंपरा में बार-बार दुहराया गया है। सहजो भी इस बारे में कहतीं हैं--सहजो गुरु ऐसे मिले, मेटे सब संदेह।नींच ऊंच देखे नहीं ,ज्यों बादल का मेह।। सहजो गुरु ऐसे मिले जैसे सूरज धूप। सब जीवन का चांदना कहां रंक कहां भूप।। सहजो  गुरु ऐसे मिले सम दृष्टि निरलोभ।शिष  को प्रेम समुद्र में कर दिया झोवा झोव।। इस प्रकार संत सहजोबाई का काव्य आज भी प्रासंगिक है। आज भी मनुष्य अज्ञानता, अधर्म, काम ,क्रोध अहंकार ,वासना आदि दुर्गुणों से आवृत्त है ।उनसे छुटकारा पाने के लिए सहजोबाई का काव्य भी मानव मूल्यों के संदर्भ में प्रासंगिक है।

डॉ. जितेन्द्र प्रताप सिंह

What's Your Reaction?

like

dislike

love

funny

angry

sad

wow