Tuvalu | Culture, History, People, & Facts : अलविदा और साॅरी - तुवालु

Tuvalu | Culture, History, People, & Facts : ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती की लगातार बिगड़ती सूरत के बारे में चर्चा और विचार करने के लिए दुनिया के देश हर साल कान्फ्रेंस आफ द पार्टीज (Conference of the Parties /COP) कहा जाने वाला अधिवेशन आयोजित करते हैं। पश्चिम एशियाई देश अजरबैजान की राजधानी बाकु में 11-12 नवंबर को 29वें COP29 अधिवेशन का आयोजन किया गया। जिसमें हमेशा की तरह ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीन हाउस इफेक्ट, कार्बन के उत्सर्जन पर कटौती, ईको-फ्रेंडली वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को अपनाने जैसे विषयों पर चर्चा हुई। हमेशा की ही तरह चर्चा रेत पेर कर तेल निकालने जैसी अर्थहीन रही, क्योंकि हमेशा की ही तरह कोई विकसित या विकासशील देश को अपने औद्योगिक विकास की सांस रोक कर अस्थमा से कराह रही धरती की रुक रही सांस का इलाज करने में रुचि नहीं है। यह मान कर चलिए कि इस मतलबी पहलू का भयंकर असर अपनी आगामी पीढ़ी पर रहे बिना नहीं रहने वाला। जबकि दुनिया के कुछ स्थानों पर तो ग्लोबल वार्मिंग का बुरा असर पड़ने भी लगा है।

Feb 25, 2025 - 13:30
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Tuvalu | Culture, History, People, & Facts  :  अलविदा और साॅरी - तुवालु
Tuvalu | Culture, History, People, & Facts

Tuvalu | Culture, History, People, & Facts : ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती की लगातार बिगड़ती सूरत के बारे में चर्चा और विचार करने के लिए दुनिया के देश हर साल कान्फ्रेंस आफ द पार्टीज (Conference of the Parties /COP) कहा जाने वाला अधिवेशन आयोजित करते हैं। पश्चिम एशियाई देश अजरबैजान की राजधानी बाकु में 11-12 नवंबर को 29वें COP29 अधिवेशन का आयोजन किया गया। जिसमें हमेशा की तरह ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीन हाउस इफेक्ट, कार्बन के उत्सर्जन पर कटौती, ईको-फ्रेंडली वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को अपनाने जैसे विषयों पर चर्चा हुई। हमेशा की ही तरह चर्चा रेत पेर कर तेल निकालने जैसी अर्थहीन रही, क्योंकि हमेशा की ही तरह कोई विकसित या विकासशील देश को अपने औद्योगिक विकास की सांस रोक कर अस्थमा से कराह रही धरती की रुक रही सांस का इलाज करने में रुचि नहीं है। यह मान कर चलिए कि इस मतलबी पहलू का भयंकर असर अपनी आगामी पीढ़ी पर रहे बिना नहीं रहने वाला। जबकि दुनिया के कुछ स्थानों पर तो ग्लोबल वार्मिंग का बुरा असर पड़ने भी लगा है।

ऐसा ही एक एकदम अंजान,  अलिप्त स्थान तुवालु है। प्रशांत महासागर के 16,52,50,000 वर्ग किलोमीटर के लंबे-चौड़े सीने पर तिल जैसा तुवालु टापू केवल 26 वर्ग किलोमीटर का तुच्छ भौगोलिक कद वाला है। दुनिया का नक्शा बनाते समय उस पर तुवालु स्थान दर्शाना हो तो बिदी बनाने के लिए पेन के बजाय सुई की नोक को स्याही में डुबो कर उपयोग करना पड़ेगा। इस तरह कद में बामन तुवालु एक स्वतंत्र राष्ट्र का इज्जतार दरजा रखता है। यह बात अलग है कि प्रकृति को आड़े हाथों लेने के बाद अब इस देश के अस्तित्व की दुनिया के अधिकतर लोगों को इसकी जानकारी नहीं है। अलबत्त, पिछले दिनों सोशल मीडिया पर वायरल हुए एक वीडियो ने तुवालु की ओर दुनिया का ध्यान खींचा। वीडियो तीन साल पहले का है। पर उसमें उठाया गया मुद्दा आज भी उतना उपयोगी था, जितना पहले था।
इंग्लैंड के ग्लासगो शहर में नवंबर, 2021 के दौरान आयोजित COP26 अधिवेशन के पहले तुवालु के विदेश मंत्री ने एक वीडियो के द्वारा दुनिया की महासत्ताओं को संबोधित किया था। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से समुद्र के जल का स्तर ऊंचा होने की वजह से हम डूब रहे हैं... इस तरह का संदेश का उन्होंने तूवालु के उस स्थान पर खड़े हो कर दिया था, जहां पर कुछ सालों से समुद्र के जल का अतिक्रमण हो रहा था। समुद्र का बढ़ रहा जल तुवालु की भूमि को लीलता जा रहा है, इस हकीकत को विदेश मंत्री ने बताते हुए महासत्ताओं को कार्बन डायोक्साइड के उत्सर्जन पर कटौती कर के तुवालु की जमीन को बचाने की विनती की थी। परंतु व्यर्थ। कार्बन उत्सर्जन पर कटौती की बात चलती है तो कान में ठेंठी डाल लेने वाले और आंखों पर गांधारी पट्टी बांध लेने वाले विकसित/ विकासशील देशों के शासकों ने विदेश मंत्री की इस विनती की अनदेखी कर दी।
लोगों की सोच में अभी बदलाव आया नहीं है और कब आएगा, यह पता नहीं है। इस दौरान एक नजर तुवालु के कल-आज-कल पर डालना जरूरी है। इस छोटे से टापू जैसे देश को समुद्र के गरक में डालने के पीछे ग्लोबल वार्मिंग जिम्मेदार है तो पृथ्वी का पसीना बहा कर समुद्र के जलस्तर को बढ़ा कर समस्या पैदा करने के पाप में हमारा भी कुछ योगदान है।
अगस्त, 1945 में दुनिया विश्वयुद्ध के खूनी पंजे से मुक्त हुई। पर तुवालु के लिए आजादी का सूरज अगले 33 सालों तक उदय नहीं हुआ। ब्रिटिश बेड़ियों से 1 अक्टूबर, 1978 में आजाद होने पर स्वतंत्र देश की मान्यता मिली।

तुवालु आज और कल
आज तुवालु टापुओं पर पाॅलिनेशियन जाति के वंशजों की 11,300 जितनी आबादी है। पूर्वजों की तीन सहस्राब्दि पुरानी कला, संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाजों आदि को उन्होंने संजोए रखा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण तुवालु पर समुद्र के अतिक्रमण को देखते हुए भविष्य में यह सब कैसे बचा रहे, यह एक बड़ा सवाल था। इसके लिए तुवालु सरकार ने एक उपाय अपनाया। प्राचीन संस्कृति, रीति-रिवाजों, भाषा, व्यंजनों की रेसिपी, संगीत, नृत्य, हस्तकला आदि की एक-एक छोटी से छोटी जानकारी इकट्ठा कर के उनका डिजिटल स्वरूप इंटरनेट पर डाल दिया है।
आने वाले दिनों में समुद्र तुवालु के नामोनिशान को मिटा दे, इसमें कोई शक नहीं है। क्योंकि पिछले 30 सालों में तुवालु के आसपास जल का स्तर 6 इंच बढ़ चुका है। हर साल 5 से 7 मिलीमीटर जल का स्तर बढ़ रहा है और सुबह-शाम समुद्र की आने वाली लहरें टापू की धरती पर अधिक से अधिक अंदर घुस आती हैं। इसलिए तुवालु एक न एक दिन खत्म हो जाएगा, इसमें दो राय नहीं है।
अगर जलसमाधि ले कर टापू के साथ उसकी तीन हजार साल पुरानी कला और सांस्कृतिक भी डूब जाती है तो दुनिया के इतिहास की पोथी से एक महत्वपूर्ण पृष्ठ गायब हो जाएगा। तुवालु सरकार को यह मंजूर नहीं है। परिणामस्वरूप पूरे देश के भूपृष्ठ का उन्होंने Light Detection and Ranging/ LIDAR/ लिडार टेक्नोलॉजी द्वारा स्कैनिंग करा कर थ्री-डी नक्शा बनवाया है। तुवालु के वर्तमान निवासियों की आने वाली पीढ़ी यह नक्शा देख कर अपनी मूल मातृभूमि को थ्री-डी में देख सकेगी। वर्चुअल रियलिटी अनुभूति कर सकेगी कि वे वहां खड़े है। गीत-संगीत, नृत्य, कला, संस्कृति आदि के मनाने के वीडियो देख कर इसे आगे बढ़ाने का प्रयास करेगी।
इस तरह का नुस्खा आज तक दुनिया के किसी देश ने नहीं अपनाया है। तुवालु पहला है, पर दुर्भाग्य पहला नहीं है। प्रशांत महासागर के किरिबाज, मार्व और कूक टापुओं ने तुवालु की तरह अपना इंटरनेट अवतार बनाना शुरू कर दिया है। क्योंकि तुवालु की ही तरह इन्हें भी प्रशांत महासागर लील जाने वाला है।
तुवालु को टाइटैनिक नंबर 2 बनने से रोका नहीं जा सकता। क्योंकि अब बहुत देर हो चुकी है। इसलिए डूबने वाले को सहारा देने के लिए आस्ट्रेलिया की सरकार ने पहल की है। तुवालु के लोगों को उन्होंने अपने देश में आश्रय देने का निर्णय लिया है, जिसके अंतर्गत करीब 300 तुवालुवासी हर साल अपनी मातृभूमि छोड़ कर आस्ट्रेलिया में स्थाई हो रहे हैं। 
यह है ग्लोबल वार्मिंग का बुरा असर, जिसके बारे में सामान्य आदमी को तो कुछ पता नहीं, इसलिए मुसीबत का रेला खुद के पैरों तले न आने से इसके असर की उसे जरा भी चिंता नहीं है। इसलिए यह जो भी हो रहा है, उस ग्लोबल वार्मिंग के पाप में हम भी सहभागी हैं, इस वास्तविकता से मुंह नहीं फेर सकते।
पाप में हमारी हिस्सेदारी
औद्योगिक इकाइयों की चिलम द्वारा कार्बन डायोक्साइड का स्मोकिंग कराने में अमेरिका और चीन आगे हैं तो हमारा देश भी पीछे नहीं है। सालाना 2.8 अरब टन कार्बन डायोक्साइड का उत्सर्जन कर हम भारतीय भी पृथ्वी के वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। आंकड़ा पढ़ कर दोष का टोपला देश की औद्योगिक इकाइयों पर डालने का मन हो रहा हो तो जान लीजिए कि सामान्य नागरिक के रूप में वाहन चला रहे हैं तो ट्रेन, बस से यात्रा करें, कोयले से बनने वाली बिजली का उपयोग कर रहे हैं और औद्योगिक इकाइयों में बनी चीज वस्तु का उपयोग कर रहे हैं तो सीधे या दूसरी तरह से वातावरण में कार्बन डायोक्साइड मिलाने में निमित्त बन रहे हैं। इस हिसाब से सालाना 2.8 अरब टन कार्बन डायोक्साइड का धूम्रपान में अपना भी कुछ हिस्सा है। देश की जनसंख्या द्वारा 2.8 अरब टन को भाग करें तो लगभग हर भारतीय दो टन कार्बन डायोक्साइड के प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है।
दूसरी ओर ग्लोबल वार्मिंग की समस्या अधिक न विफरे, पृथ्वी के तापमान में और समुद्र का जल स्तर न बढ़े, इसके लिए कार्बन डायोक्साइड की प्रति व्यक्ति सालाना उत्पादन कितना होना चाहिए?
मात्र 0.3 टन। इस लक्ष्मण रेखा को पार कर के हम कितना आगे निकल गए हैं। प्रति व्यक्ति कार्बन डायोक्साइड प्रदूषण का आंकड़ा अभी बढ़ना ही है। क्योंकि औद्योगिक विकास की ओर भारत की दौड़ रुकने वाली नहीं है। इसलिए ग्लोबल वार्मिंग के पाप में अब तक और आगे की भी हिस्सेदारी के लिए हम सब कुछ हद तक गुनहगार हैं। जाने अंजाने में हुए इस गुनाह की सजा जिन्हें भोगनी पड़ रही है, उस तुवालु और उस जैसे टापुओं से दोनों हाथ जोड़ कर साॅरी कह कर माफी मांगनी चाहिए।
बाकी तो तुवालु जैसे टापू दुनिया के नक्शे में रहें या न रहें, महासत्ताओं पर कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं है। 
वीरेंद्र बहादुर सिंह
नोएडा-201301 (उ.प्र.)

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