पंजाब के लुधियाना शहर से पश्चिम दिशा में लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की यात्रा करने का बाद सतलज नदी के किनारे बसे हुसैनीवाला पहुंच जाएंगे। इस गांव का भूगोल-इतिहास खास लंबा-चौड़ा नहीं है, पर इतिहास में दूर-सुदूर तक जरूर फैला है। आजादी पाने के लिए अंग्रेजों से लड़ाई के दौरान तथा आजादी मिलने के बाद उसे कायम रखने के लिए पाकिस्तान से सशस्त्र लड़ाई में हुसैनीवाला फोकस में रहा था। इसलिए यहां की माटी बलिदानी है।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और भारतीय सेना के वीरगति पाने वाले अमर शहीदों के रक्त से यहां की धरती सनी है। कवि प्रदीप के गीत की वह पंक्ति, "इस मिट्टी से तिलक करो..." का एक एक शब्द हुसैनीवाला की मिट्टी के लिए एकदम फिट बैठता है।
फिर भी खेद की बात यह है कि बार्डर टूरिज्म के नाम पर देश के ज्यादातर पर्यटकों की भीड़ पंजाब के अमृतसर शहर के नजदीकी सीमा बाघा-अटारी में होती है। ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि बाघा-अटारी की ही तरह हुसैनीवाला में भी रोजाना शाम को भारत और पाकिस्तान के सैनिक रिट्रीट सेरेमनी कही जाने वाली सैन्य कवायत करते हैं। दोनों देशों के जवान 'आमने-सामने' आ कर शक्ति प्रदर्शन दिखाते हैं। रौबदार कूच करते हैं और सूर्य डूबने के पहले अपने अपने राष्ट्रध्वज के सम्मान में उसे उतार लेते हैं।
हुसैनीवाला जाने के लिए पहला कारण या आकर्षण माने तो दूसरा और भी अधिक विशेष है। इस पावन भूमि पर स्वतंत्रता संग्राम की तारीख में अमर बन चुकी शहीद त्रिपुटी भगत सिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव थापर की समाधि है, जिसे राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दिया गया है।
आजादी के बाद पाकिस्तान से 1965 तथा 1971 के युद्धों में हुसैनीवाला की रखवाली में हमारे सैकड़ों बहादुर सिपाही/अफसर शहीद हुए थे, जिन्हें मूक सलामी देता युद्ध स्मारक भी हुसैनीवाला में ही बनाया गया है। इस तरह समर्पण और शौर्य, दोनों ही दृष्टिकोण से हुसैनीवाला के बारे में जानने लायक है। और जानने के बाद शहीदों की इस बलिदान भूमि पर एकाध बार जरूर जाने लायक है।
इतिहास भी कभी-कभी अजब नाटकीय खेल खेलता है। कहते हैं न कि कभी-कभी नियति किसी घटना के तहत व्यक्ति को पहले से तय किए मुकाम पर किसी न किसी तरह पहुंचा ही देती है। पंजाब के लायलपुर जिला के छोटे से गांव बगा में पैदा हुए भगत सिंह ने मात्र 23 साल की उम्र में हुसैनीवाला के अंतिमधाम तक पहुंचाने के लिए इतिहास ने बहुत सारे मोड़ लिए, जिनमें पहला टर्निंग प्वाइंट 1919 में आया।
हुआ ऐसा कि 13 अप्रैल, 1919 को अंग्रेज ब्रिगेडियर जनरल डायर ने अमृतसर के जरियांवाला बाग में इकठ्ठा हुई भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां चलवाई थीं, जिसमें पंद्रह सौ से अधिक स्त्री-पुरुष और बच्चे मारे गए थे। यह घटना किशोर भगत सिंह के हृदय को गहरे तक छू गई थी। तब अमृतसर के हरमिंदर साहब के (स्वर्णमंदिर) सरोवर के पानी को अंजलि में ले कर उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि वह अंग्रेजों को भारत से भगा कर रहेंगे। इसके लिए अगर जीवन भी समर्पित करना पड़े तो भी वह पीछे नहीं हटेंगे।
किशोर भगत सिंह के हृदय में प्रकट हुई देशप्रेम की ज्योति ने समय के साथ क्रांति की ञ्वाला का रूप ले लिया। अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए वह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन नाम की पार्टी में शामिल हो गए, जहां उनकी मुलाकात बटुकेश्वर दत्त, सुखदेव थापर, शिवराम राजगुर, चंद्रशेखर आजाद जैसे स्वतंत्रता सेनानी से हुई। भगत सिंह ने इन लोगो के साथ मिल कर स्वतंत्रता की सशस्त्र लड़ाई छेड़ी।
इन सरफरोशों के जीवन को अचानक मोड़ देने वाली दूसरी घटना 1928 में तब घटी, ञब ब्रिटिशहिंद की गोरी सरकार ने भारत में अपनी मुनसफी के हिसाब से कायदा-कानून लगाने के लिए सायमन कमीशन का गठन किया। सात लोगों के इस संगठन में तमाम सदस्य अंग्रेज थे। भारत का प्रतिनिधित्व करने वाला एक भी भारतीय सदस्य नहीं था। इस स्थिति के खिलाफ गांधीजी सहित तमाम बड़े नेताओं ने विरोध जताया। इससे सायमन कमीशन के विरोध में देश भर में आंदोलन होने लगा। 'सायमन गो बैक' के नारे के साथ पूरे देश में प्रदर्शन होने लगे।
ऐसा ही एक प्रदर्शन 30 अक्टूबर, 1928 को जब कमीशन के सदस्य लाहौर पहुंचे तब हुआ। विरोध की आग ऐसी भड़की कि वहां अफरीतफरी मच गई। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस सुपरिटेंडेंट जेम्स स्कोरेट ने लाठीचार्ज करा दिया। इसमें रैली का नेतृत्व कर रहे लाला लाजपतराय बुरी तरह घायल हो गए थे। उनके सिर में काफी चोट लग गई थी, जिसकी वजह से कई दिनों बाद उनकी मौत हो गई थी।
लालाजी की हत्या का बदला लेने के लिए भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद ने पुलिस सुपरिटेंडेंट जेम्स स्कोरेट का वध करने का निर्णय लिया। 17 दिसंबर, 1928 को ये सभी भरी पिस्तौल ले कर लाहौर पुलिस स्टेशन पहुंचे, लेकिन संयोग से हुआ यह कि इन्होंने जिसे पुलिस सुपरिटेंडेंट जेम्स स्कोरेट समझ कर गोली मारी, वह अफसर वास्तव में असिस्टेंट पुलिस सुपरिटेंडेंट जाॅन सांडर्स था।
समय के साथ ब्रिटिशहिंद सरकार ने जाॅन सांडर्स की हत्या के लिए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को गिरफ्तार किया। लाहौर की अदालत ने तीनों को फांसी की सजा सुनाई।
अदालती फैसले के अनुसार फांसी देने की तारीख 24 मार्च, 1931 थी। पर देश में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के प्रति सहानुभूति की ऐसी लहर चली कि लाहौर जेल के सामने लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी, जिसे देखते हुए तीनों सपूतों को एक दिन पहले ही गुपचुप तरीके से फांसी दे दी गई। लाहौर के जेलर ने तीनों लोगों के पार्थिव शरीर को जेल की पिछली दीवार तोड़कर बाहर निकाला और गाड़ी पर रखवा कर सतलज नदी के किनारे हुसैनीवाला में जला दिया। इस तरह हुसैनीवाला भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का अंतिमधाम-कम-समर्पण का प्रतीक बना।
सालों बीते, स्वतंत्रता के समय देश का बंटवारा हुआ। पंजाब दो हिस्सों में बंटा और हुसैनीवाला पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। परंतु गांव के ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए उसे वापस लेने के लिए भारत ने 1961 में फजिल्का जिले के 12 गांल दे कर हुसैनीवाला को प्राप्त किया। जबकि चार साल बाद 1965 के युद्ध में पाकिस्तानी सैनिकों ने हुसैनीवाला पर सशस्त्र हमला बोल कर उस पर कब्जा करने की कोशिश की। भारत की मराठा पैदल रेजिमेंट के जांबाज योद्धाओं ने हिम्मत के साथ दुश्मनों का सामना किया। भीषण संग्राम में हुसैनीवाला तो दुश्मनों के हाथों में जाने से बच गया, पर उसे बचाने के लिए मराठा रेजिमेंट के योद्धाओं को बलिदान देना पड़ा। भारतीय टुकड़ी के कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल टेरी नोलन भी वीरगति को प्राप्त हुए। शहीदों की स्मृति में भारत सरकार ने 1968 में हुसैनीवाला में राष्ट्रीय शौर्य स्मारक बनवाया।
तीन साल बाद दिसंबर,1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ तो एक बार फिर हुसैनीवाला फोकस में आया। इस बार दुश्मन सेना ने 15 टैंक और दो हजार सशस्त्र सैनिकों के साथ हुसैनीवाला पर आक्रमण किया। जबकि भारत के वहां मात्र ढ़ाई सौ सैनिक ही तैनात थे।
मेजर कंवलजीत सिंह और मेजर शरणजीत सिंह नाम के अफसरों की आगेवानी में पंजाब रेजिमेंट की दो कंपनियां हुसैनीवाला में तैनात थीं। एक कंपनी बराबर लगभग सवा सौ जवान। फिर भी हमारे मुट्ठी भर जवानों ने दुश्मन सेना को चुनौती दी। इस खूनी लड़ाई में भारत ने अपने पचपन योद्धा गंवाए। इसके अलावा 35 जवान युद्ध कैदी के रूप में पाकिस्तानी सेना के हाथों पकड़े गए, जिसमें मेजर शरणजीत सिंह भी थे। नसीब ने ऐसा क्रूर खेल खेला कि मातृभूमि की रक्षा करने वाला यह सिख अफसर फिर कभी मातृभूमि का चेहरा न देख पाया। पाकिस्तान ने उन्हें आजीवन जेल में कैद रखा।
सीमा पर तैनात पंजाब रेजिमेंट के जवानों ने हिम्मत से युद्ध किया, पर दुर्भाग्य से हुसैनीवाला को दुश्मनों के चंगुल में जाने से बचा नहीं पाए। दूसरी ओर पाकिस्तान ने इस ऐतिहासिक गांव पर कब्जा तो कर लिया, पर 17 दिसंबर, 1971 को युद्धविराम के बाद उसे अपनी सेना को वहां से हटाना पड़ा।
दोनों ही युद्धों में भारतीय सेना के शेरदिल सपूतों ने जो बहादुरी दिखाई थी, उसकी कहानियां कहते युद्ध स्मारक आज भी हुसैपीवाला में देखने को मिलते हैं। यहां देखने लायक दूसरा आकर्षण पंजाब मेल का वर्चुअल माडल है। देश के विभाजन के पहले पंजाब मेल लाहौर से मुंबई के बीच नियमित चलने वाली सब से प्रतिष्ठित ट्रेन थी। ट्रेन की आंतरिक सजावट तथा उसमें देखने वालों को कराई जाने वाली लगभग 12 मिनट की वर्चुअल रेल यात्रा देखने जैसी है। पहले से रेकार्ड किए गए वर्णन के साथ स्क्रीन पर बदलते दृश्य और चलती ट्रेन की आवाज कुछ समय के लिए यात्री को भूतकाल में ले जाती है।
इसके अलावा देश की आजादी के लिए अपनी कुर्बानी देने वाले शहीदों की गाथा प्रस्तुत करता लगभग 40 मिनट का लाइट एंड साउंड शो भी छोड़ने जैसा नहीं है। हुसैनीवाला का एक और आकर्षण बार्डर सिक्योरिटी फोर्स (बीएसएफ) द्वारा बनाया गया संग्रहालय है, जिसमें बीएसएफ के कार्य, उपलब्धि और हथियारों के बारे में रुचिकर जानकारी मिलती है। शहीद भगत सिंह की पिस्तौल और क्रांतिकारीयों द्वारा लिखे पत्र भी यहां प्रदर्शित हैं।
अमृतसर के नजदीक स्थित बाघा-अटारी सीमा पर रोजाना शाम को ध्वजारोहण की रिट्रीट सेरेमनी होती है। बिलकुल उसी तरह सैन्य कवायत हुसैनीवाला में भी होती है। लगभग चालीस मिनट तक चलने वाली रिट्रीट सेरेमनी की शुरुआत देशभक्ति के गीत, भारत माता की जय तथा वंदे मातरम जैसे नारों से होती है, तब वातावरण अनोखी ऊर्जा से तरबतर हो जाता है। नियत समय पर बिगुल बजते ही सीमा सुरक्षा बल के यूनीफौर्म में सजे जवान छटा के साथ कूच करते तो रोंवा खड़ा हो जाता है और जोश अनेकगुना बढ़ जाता है। प्रतिभावान बीएसएफ जवान कूच करते समय अपने पैर मस्तक तक ले जाते हैं और फिर जोशपूर्वक जमीन पर पटकते हैं। चेहरे पर क्रोध द्वारा देश के गौरव का हावभाव उपजाते हैं। शत्रु को जैसे चुनौती दे रहे हो, इस तरह दोनों हाथ दाएं-बाएं फैला कर आंखों को जितना संभव होता है, उतना फैलाते हैं। जवानों का ढ़ंग जरा नाटकीय लगता है, पर प्रेक्षकों को देखने में बहुत अच्छा लगता है। लगभग पौन घंटे की कवायत पूरी होने के बाद दोनों देश के जवान अपने अपने देश का ध्वज सम्मान के साथ उतार कर उसे ससम्मान मोड़ कर अपनी जगह पर ले जाते हैं। अगले दिन फिर सुबह उसे उसकी जगह पर लहराया जाता है।
बाघा-अटारी पर आयोजित ध्वजारोहण की विधि को इतनी अधिक ख्याति मिली है कि हुसैनीवाला की ओर लोगों का ध्यान कम ही जाता है। अलबत्त, अगर अब पंजाब की ओर जाना हो तो एक सलाह है:
बाघा-अटारी को भले महत्व दें, पर एक बार हुसैनीवाला जरूर जाएं। भारत की आजादी के लिए भरी जवानी में फांसी पर चढ़े शहीद भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु को नतमस्तक, वंदन करने के लिए, 1965 तथा 1971 के युद्धों में वीरगति पाने वाले अपने सैनिकों को सम्मान से श्रद्धांजलि देने के लिए और सीमा पर खड़े अपने बीएसएफ के जवानों को उनकी सेवा के बदले सलाम करने के लिए जीवन में एक बार हुसैनीवाला जाइए ही।
वीरेंद्र बहादुर सिंह
जेड-436ए, सेक्टर-12,
नोएडा-201301 (उ.प्र.)