मैं
मैं भरी रही मैं से प्रेम आया तो निकल गया छूकर प्रेम और मैं की कतई नहीं बनती वो मुझमें खोजता तुम्हें

मैं भरी रही
मैं से
प्रेम आया तो
निकल गया छूकर
प्रेम और मैं की
कतई नहीं बनती
वो मुझमें खोजता
तुम्हें
मैं रचा बसा तमस में
घुप बहुत गहरा
पीपल की छाया तो बहुत दूर
वो उगने नहीं देता
कोई खर-पतवार भी
समर्पण का पठार
रोक देता
मैं को कहीं
तब
तुम मेरे सूर्य
मेरी देह को भेदती
तुम्हारी तपिश
पिघला देती
आत्मा के आवरण पर बिछी
सारी बर्फ
तब सारा मैं बह जायेगा
विलीन हो जाने को
अपने तथागत में
डॉ. मोनिका ककोड़िया
अलवर, राजस्थान
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