आध्यात्म और यात्रा

सदियों से इस आह्वान के सहारे प्रतिदिन हजारों लोग बनारस में कदम रखते रहे हैं। बनारस जो दुनिया की प्राचीनतम नगरी है, जहां के अधिपति आज भी भगवान विश्वनाथ हैं और शहर के कोतवाल बाबा भैरोनाथ, जहां आज भी संकटमोचक के रूप में केवल हनुमान को स्मरण किया जाता है वो है वाराणसी। अब भले ही बनारस ने महानगर का रुप ले लिया है पर इसके रंध्रों में आज भी कस्बाई रंग बहता है।

Aug 28, 2024 - 16:37
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आध्यात्म और यात्रा
Spirituality and Travel
कहते हैं देव देव दर्शन सबके भाग्य में नहीं होता है। और खासकर ज्योतिर्लिंग की यात्रा तो बिल्कुल ही नहीं होती। बिना ईश्वर की अनुमति के आपके द्वारा तय किया गया कार्यक्रम भी अंतिम क्षणों में रद्द हो सकता है। 
अपने द्वादश ज्योतिर्लिंगों की यात्रा के क्रम में बहुत दिनों से इच्छा थी कि एक पुनः बाबा विश्वनाथ के दर्शन हो और नवनिर्मित विश्वनाथ कॉरिडोर के साथ-साथ उज्जैन के महाकाल और ओंकारेश्वर के दर्शन भी पूरे कर लिए जाए। मेरे द्वारा की गई ज्योतिर्लिंगों की यात्रा की संख्याओं मे इजाफा करना भी एक उद्देश्य था। 
साल २०२३ खत्म होने को था और कुछ आकस्मिक अवकाश अब भी बचे हुए थे। मैंने मेरे दो सहकर्मियों अजय और कृष्णा के साथ विश्वनाथ कॉरिडोर, महाकाल उज्जैन और ओंकारेश्वर की यात्रा का कार्यक्रम तय किया।
यात्रा मालदा टाउन स्टेशन से करनी थी जहां हम लोग पदस्थापित हैं तो उसी अनुसार सारी यात्रा की योजना तैयार की गई। हम लोग २५ दिसंबर २०२३ को मालदा पश्चिम बंगाल से गाड़ी संख्या १३४१५ पकड़कर पटना के लिए रवाना हुए‌। रात के ८:१५ में ट्रेन खुली और हम लोगों ने सेकेंड एसी के डब्बे में बाबा विश्वनाथ, जय महाकाल और ओंकारेश्वर का जय घोष करते हुए अपनी यात्रा आरंभ की।
अगले दिन सुबह-सुबह आंखें खुली तो हम लोगों ने अपने आप को पटना जंक्शन के प्लेटफार्म संख्या चार पर पाया जहां गाड़ी अपने तय समय से १० मिनट पहले ही पहुंच चुकी थी।
हमें अपने आगे की यात्रा पटना से अर्चना एक्सप्रेस के द्वारा बनारस तक करनी थी और इसके छूटने में अभी लगभग ढाई घंटे का समय बाकी था। 
तो हम लोगों ने मिलकर यह निर्णय लिया कि पटना स्टेशन के सामने महावीर मंदिर का भी दर्शन कर लिया जाए जो कि तड़के खुल जाता है और भगवान महावीर की आरती बहुत ही शानदार होती है।
हम लोगों ने बजरंगबली की आरती देखी और महावीर मंदिर का दर्शन किया और वहां अर्पित होने वाले प्रसाद नैवेद्यम का भी लुफ्त उठाया।
पटना से हम लोगों ने अपने आगे की यात्रा अर्चना एक्सप्रेस से आरंभ की जो कि जम्मू तवी तक जाती है। ठीक ७:३० पर अर्चना एक्सप्रेस पटना जंक्शन के प्लेटफार्म संख्या ३ से खुली और अपनी पूरी रफ्तार से चलती रही।
ठीक ११:१० पर अर्चना एक्सप्रेस ने हम लोगों को वाराणसी कैंट स्टेशन पर पहुंचा दिया ‌।
बनारस हमेशा से ही मुझे आकर्षित करता रहा है।
कहते हैं बनारस शिव की नगरी है। और यहां शिव के साथ सती अर्थात पार्वती साथ-साथ विराजमान है। बनारस अपने घाटों,गलियों और पुरानी मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। हाल के दिनों में बनारस में एक अद्भुत बाबा विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण किया गया है जिसका आकर्षण मुझे बनारस फिर से खींच कर ले आया। वैसे तो पूर्व में बनारस कितनी ही बार गया हूं इसकी कोई गिनती नहीं है लेकिन इस नए विश्वनाथ कॉरिडोर को देखने का आकर्षण मुझे फिर से बनारस खींच लाया। 
बनारस के गादौलिया चौक पर एक होटल की बुकिंग हम लोगों ने पहले से करके रखी थी, जहां जाकर अपना सामान रखकर हम लोग तीनों बनारस के गंगा घाट पर डुबकी लगाने और बाबा विश्वनाथ के दर्शन को चल दिये।
क्योंकि आधा दिन बीत चुका था और भीड़ भी काफी बढ़ चुकी थी इसलिए हम लोगों ने यह निर्णय लिया कि अगले दिन तड़के नहा कर बाबा विश्वनाथ के दर्शन और पूजन का कार्य संपन्न किया जाए तो हम लोगों ने बनारस की गलियों और उसके आसपास के बाजारों और मंदिरों के भ्रमण की योजना बनाई। 
माया और मोक्ष की नगरी काशी
आध्यात्म और आनंद की नगरी काशी
काशी - वाराणसी, कचौरियां,पान,घाट,
गलियां और इन गलियों में बिखरा शिवत्व है काशी
कहते हैं - पांव रखइह जो काशी में तर जहिंए काशी में।
सदियों से इस आह्वान के सहारे प्रतिदिन हजारों लोग बनारस में कदम रखते रहे हैं। बनारस जो दुनिया की प्राचीनतम नगरी है, जहां के अधिपति आज भी भगवान विश्वनाथ हैं और शहर के कोतवाल बाबा भैरोनाथ, जहां आज भी संकटमोचक के रूप में केवल हनुमान को स्मरण किया जाता है वो है वाराणसी।
 अब भले ही बनारस ने महानगर का रुप ले लिया है पर इसके रंध्रों में आज भी कस्बाई रंग बहता है। यहां की गलियों और बाजारों में आपको बड़े शहरों की भागदौड़ और आपाधापी नहीं मिलेगी। एक अलसाया सा शहर जो धीरे-धीरे अपनी आंखे खोलता है। 
बाबा विश्वनाथ कोरिडोर के निर्माण के बाद पहली बार बनारस जाने का अवसर मिला तो बनारस भी कुछ बदला बदला सा लगा। पहले भी  यहां आ चुका हूं पर इस बार बनारस की रंगत में कुछ अलग ही चमक थी।  अपने मूल स्वरूप में बनारस आज भी वैसा ही है। बाबा काशी विश्वनाथ का दर्शन पूजन अपेक्षाकृत सुगम और सुविधाजनक हो गया है। अब आपको दर्शन के लिये कीचड़ भरे रास्तों पर लम्बी लाइन में लगे रहने की जरूरत नहीं। ललिता घाट पर डुबकी और चमकदार मकराना पत्थरों से सजी सीढ़ियों से सीधे उपर चढ़ें और स्वयं को मंदिर प्रांगण में पाएं।
दर्शन के लिये बमुश्किल आधे घंटे में आप बाबा के सामने स्वयं को पायेंगे। पहले लम्बी लाइनों में स्थानीय पंडे अपने यजमानों को बीच में घुसा देते थे,वह सब बंद हो गया है। सबसे अच्छा लगा पूरे मंदिर परिसर में चारों ओर चिकने पत्थरों से बने साफ सुथरे रास्ते, चबूतरे और सीढ़ीयां। पहले पूजा अर्चना के उपरांत कहीं बैठने की जगह नहीं होती थी लेकिन अब आप इत्मीनान से अपनी थकान दूर कर सकते हैं।
 मुख्य मंदिरों में पूजा-अर्चना के बाद माता अन्नपूर्णा का दर्शन और वहीं अन्नक्षेत्र में भोग के रूप में दिन का भोजन। इससे बेहतरीन दिन काशी में व्यतीत नहीं हो सकता था।
दश्वाशमेध घाट पर सांयकालीन गंगा आरती के दर्शन। जनश्रुति है सत्रहवीं शताब्दी में इसी दश्वाशमेध घाट पर अपने समय के महान भक्त कवि पंडित जगन्नाथ शास्त्री ने अपनी मान रक्षा के लिये अपनी स्तुति के बल पर गंगा को बावन सीढ़ियों से ऊपर सतह तक लाने का वचन दिया था और मां गंगा ने अपने भक्त के सम्मान की रक्षा के लिये प्रकृति के नियमों की अवहेलना कर तल से सतह का सफर तय किया था।
 बनारस में पूरे देश के राजे-रजवाड़ों ने अपनी कोठियां,महल और घाट बनवाये ।
बनारस की गलियों की हवा और गंगा की घाट के पानी ने ही हमारे पूर्वज कबीर में यह फक्कड़पन भरा था जिसने सीधे ईश्वर को चुनौती दी कि जौं काशी तन तजे कबीरा, रामहिं कौन निहोरा रे। 
बनारस की गलियों का जुलाहा जो जीवन भर यहां की गलियों में प्रेम और भक्ति के ताने-बाने से जीवन की चादर बुनता रहा ।
मणिकर्णिका के उल्लेख के बिना काशी दर्शन अधूरा है। ललिता घाट के बगल में स्थित मणिकर्णिका जहां अहर्निश दर्जनों चितायें अनवरत जलती रहती हैं, जहां मृत्यु शोक नहीं उत्सव है, जहां शरीर त्यागना मुक्ति का द्वार है, जहां चिता की राख कोई अस्पृश्य वस्तु नहीं महादेव का गुलाल है, शिव होली खेलैं मसाने में। कभी-कभी तट से टकराती गंगा की लहरें धीमें करूण स्वर में विलाप करती हैं,
गगन मंडल पर सेज पिया की,मिलना केहि विधि होय।
अगले दिन सुबह-सुबह नहा कर बाबा विश्वनाथ के दर्शन के साथ-साथ नवनिर्मित कॉरिडोर का भी भ्रमण किया। 
दोपहर में २:३० पर फिर हम लोगों ने अपनी आगे की यात्रा गाड़ी सं. २०४१५ काशी महाकाल एक्सप्रेस से बाबा महाकाल उज्जैन के लिए  आरंभ की। वाराणसी से उज्जैन जाने के लिए इस गाड़ी से बेहतर कोई गाड़ी नहीं है जो की सबसे कम समय में उज्जैन पहुंचा देती है।
गाड़ी अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी और रात के ८:४० पर गाड़ी गोविंदपुरी स्टेशन पर खड़ी हो गई। यह कानपुर के पास का स्टेशन है। हम लोगों ने रात के खाने का ऑर्डर पेंट्री कार में दिया हुआ था। खाना खाकर हम लोग सो गए। सवेरे सवेरे नींद खुली तो हमने देखा कि गाड़ी चार घंटे लेट हो गई। ठंड का मौसम और कुहासे के कारण अमूमन ऐसा होता है। गाड़ी बीना जंक्शन पर खड़ी थी। खैर अब लेट हो ही गई है तो क्या किया जाए।
गाड़ी सुबह ७:०५ के बदले दिन के १२:०० बजे उज्जैन स्टेशन पर पहुंची। 
हमने अपना होटल महाकाल लोक के सामने बुक करवाया था। स्नान कर हम लोग उज्जैन के अन्य सभी मंदिरों का दर्शन करने के लिए निकल गए। हमने शाम में बाबा महाकाल के दर्शन का कार्यक्रम तय किया।
उज्जैन के अन्य प्रमुख  मंदिरों का दर्शन कर हम लोग शाम के ७:०० बजे नवनिर्मित महाकाल लोक में पहुंचे। महाकाल लोग पहुंच कर ऐसा लगा जैसे हम लोग साक्षात स्वर्ग में पहुंच गए हैं। देवी देवताओं ऋषि मुनियों की अद्भुत मूर्तियां और चकाचौंध से भारी रोशनी पूरे महाकाल लोग की खूबसूरती में चार चांद लग रही थी। दो भव्य प्रवेश द्वार, बलुआ पत्थरों से बने जटिल नक्काशीदार १०८ अलंकृत स्तंभों की एक आलीशान स्तम्भावली, फव्वारों और शिव पुराण की कहानियों को दर्शाने वाले ५० से अधिक भित्ति-चित्रों की एक श्रृंखला है -
मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर का `महाकाल लोक'  ।
उज्जैन में बना ९०० मीटर से अधिक लंबा कॉरिडोर-`महाकाल लोक'- भारत में अब तक निर्मित ऐसे सबसे बड़े गलियारों में से एक है।
महाकालेश्वर मंदिर भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक है, जहां देश के विभिन्न इलाको से लोग सालों भर दर्शन एवं पूजा-अर्चना करने आते हैं। इसी मंदिर परिसर में शिप्रा नदी के किनारे पर इस महाकाल लोक का निर्माण किया गया है। कालिदास के अभिज्ञानशकुंतलम में वर्णित बागवानी प्रजातियों के विभिन्न पौधों को कॉरिडोर में लगाया गया है। धार्मिक महत्व वाली लगभग ४०-४५ ऐसी प्रजातियों का उपयोग किया गया है। इनमें रुद्राक्ष, बकुल, कदम, बेलपत्र, सप्तपर्णी शामिल हैं।
दो चरणों में बनाए जा रहे महाकाल लोक के प्रथम चरण का काम पूरा हो चुका है जबकि दूसरे चरण का काम चल रहा है। प्रथम चरण की कुल लागत ३५६ करोड़ रू है जबकि पूरी परियोजना ८५५ करोड़ रुपए की है।महाकाल लोक में एक समय में करीब २० हजार तीर्थ यात्री आ सकते हैं। इसमें दो द्वार, मूर्तियों के साथ लैंडस्केप, गार्डन क्षेत्र, रूद्रसागर तट क्षेत्र, शिव स्तम्भ, सप्तऋषि स्थापित हैं। यहां ओपन एयर थियेटर और मुक्त आकाश मंच भी है।
यहां फूड कोर्ट, हस्तशिल्प कलाकृति, धार्मिक वस्तुओं एवं फूलों की करीब १३० दुकानों का निर्माण किया गया है। ४०० कार की क्षमता वाली पार्किंग के साथ ई-रिक्शा की भी सुविधा है।
अगली बार उज्जैन आए तो महाकाल कॉरिडोर का दर्शन करना ना भूले। अब बारी थी महाकाल के दर्शन की।
उज्जैन के महाकाल या महाकालेश्वर मंदिर।
शास्त्रों का एक मंत्र- 
आकाशे तारकेलिंगम्, 
पाताले हाटकेश्वरम्। 
मृत्युलोके च महाकालम्
त्रयलिंगम् नमोस्तुते।। 
यानि सृष्टि में तीन लोक हैं- आकाश, पाताल और मृत्यु लोक। आकाश लोक के स्वामी हैं तारकलिंग, पाताल के स्वामी हैं हाटकेश्वर और मृत्युलोक के स्वामी हैं महाकाल। मृत्युलोक यानी पूरे संसार के स्वामी महाकाल ही हैं।
घण्टे घड़ियालों की आवाज से गूंजता है, इस शहर में माथे पर त्रिपुंड लगाए लोग गली गली दिख जाते हैं यहां की सुबह मंत्रोच्चार से शुरू होती है और शाम आरती की घंटियों से गूंजती है, गली,सड़क पर साफ सफाई देखने लायक है वही यहां हर घर,व्यवसायिक प्रतिष्ठान में महाकाल का चित्र सुशोभित है।
कुंभ मेला की खासी अहमियत रखने वाला यह स्थान प्राचीन काल में अवन्तिका के नाम से जाना जाता था।
उज्जैन विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी थी। इसे कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है।
उज्जैन नगरी की पहचान महाकाल के अलावा राजा विक्रमादित्य से भी होती है। उन्होंने हिन्दू कैलेंडर विक्रम संवत की शुरूआत उज्जैन से की है। राजा विक्रमादित्य का ३६ पुुतलियों वाल रहस्यमई सिंहासन को लेकर भी कई किस्से कहानियां उज्जैन में प्रचलित है। महाकाल लोग के ठीक पीछे राजा विक्रमादित्य की आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई है। इस स्थान को विक्रमादित्य टीले के नाम से जाना जाता है। राजा विक्रमादित्य अपने राज सिंहासन पर विराज हुए दिखाए गए हैं। विक्रमादित्य टीले से कुछ ही दूरी पर हरसिद्धि माता मंदिर भी स्थित है। इस मंदिर के प्रांगण में संध्या के समय दीपमाला प्रज्वलित की जाती है और इसको देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। मंदिर के ठीक सामने दो बड़े दीप स्तंभ हैं।मंदिर प्रांगण में स्थापित २ दीप स्तंभ। ये दीप स्तंभ लगभग ५१ फीट ऊंचे हैं। दोनों दीप स्तंभों में मिलाकर लगभग १ हजार ११ दीपक हैं। दोनों दीप स्तंभों को एक बार जलाने में लगभग ४ किलो रूई की बाती व ६० लीटर तेल लगता है। समय-समय पर इन दीप स्तंभों की साफ-सफाई भी की जाती है।
जनश्रुति है कि इन दीप स्तंभों की स्थापना उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने करवाई थी। विक्रमादित्य का इतिहास करीब २ हजार साल पुराना है। इस दृष्टिकोण से ये दीप स्तंभ लगभग २ हजार साल से अधिक पुराने हैं। हरसिद्धि माता का यह मंदिर ५१ शक्तिपीठों में शामिल है।माना जाता है कि उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर भैरव पर्वत पर मां सती के ओठ गिरे थे। हरसिद्धि मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यह जहां स्थित है, वहां सती माता की कोहनी गिरी थी। इसीलिए इस मंदिर को शक्तिपीठों में स्थान प्राप्त है। २००० साल पुराने इस मंदिर की चर्चा पुराणों में भी है। जितना खास यह मंदिर है, उतना ही खास इसकी परंपराएं हैं। 
हरसिद्धि मंदिर को ही सम्राट विक्रमादित्य की तपोभूमि माना जाता है। धार्मिक मान्यता है कि देवी हरसिद्धि को प्रसन्न करने के लिए सम्राट विक्रमादित्य ने इस स्थान पर १२ वर्ष तक कठिन तप किया था और हर वर्ष अपने हाथों में अपने मस्तक की बलि दी थी। बलि देने के बाद हर बार उनका मस्तक वापस आ जाता था। १२वीं बार जब मस्तक वापस नहीं आया तो समझा गया कि उनका शासन अब पूर्ण हो चुका है।
एक धार्मिक मान्यता यह भी है कि उज्जैन की रक्षा के लिए आसपास कई देवियां है, उनमें से एक हरसिद्धि  देवी भी है।  उज्जैन में दो शक्तिपीठ माने जाते हैं। पहला हरसिद्धि माता और दूसरा गढ़कालिका माता का शक्तिपीठ।
द्वापर युग में भी भारतीय धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण व बलराम की उज्जैन में महर्षि से संदीपनि के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख मिलता हैं। भारतीय गुरुकुल परंपरा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने १४ विद्याओं और ६४ कलाओं की शिक्षा यहां प्राप्त की थी।
 यह स्थान सूर्य के बारह वर्षीय चक्र के बारहवें चक्र का स्थान है। यह बहुत महत्वपूर्ण है और यहां  लगने वाले कुंभ को  सिंहस्थ कुंभ मेला कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण चंद्रसेन नाम के राजा ने कराया था। 
राजा चंद्रसेन पर आक्रमण हुआ। वह शिव के भक्त थे। कुछ लोग इस शहर की संस्कृति को नष्ट करना चाहते थे। उन्होंने उन पर हमला कर दिया। उस समय उज्जैन भक्तों का गढ़ था ।यह भारत में दूसरा काशी था, जहां ज्ञान और आध्यात्म का संगम था। भगवान शिव ने महाकाल के रूप में प्रकट होकर अपने भक्त की रक्षा की।
खगोल शास्त्रियों के अनुसार मध्य प्रदेश का यह प्राचीन शहर धरती और आकाश के बीच में स्थित है। इसके अलावा शास्त्रों में भी उज्जैन को देश का नाभि स्थल बताया गया है। यहाँ तक कि वराह पुराण में भी उज्जैन नगरी को शरीर का नाभि स्थल और बाबा महाकालेश्वर को इसका देवता कहा बताया गया है
इस मंदिर में किए जाने वाले अनोखे अनुष्ठानों में से एक भस्म आरती है, जो अद्भुत रहस्य से भरी है इसलिए यह भस्म आरती दुनिया भर से भक्तों को आकर्षित करती है।
पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। यह भगवान शिव का सबसे पवित्र निवास स्थान माना जाता है।कर्क रेखा भी इस शहर के ऊपर से गुजरती है। साथ ही उज्जैन ही वह शहर है, जहां कर्क रेखा और भूमध्य रेखा एक-दूसरे को काटती है। इस शहर की इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रख काल-गणना, पंचांग निर्माण और साधना के लिए उज्जैन को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। 
महाकाल लोक के दर्शन से फुर्सत होकर हम लोगों ने बाबा महाकाल के दर्शन पूरे किए। दर्शन के लिए कतार ज्यादा लंबी नहीं थी और हम लोगों का दर्शन लगभग ४५ मिनट में पूरा हो गया। महाकाल के दर्शन का सबसे मुख्य आकर्षण होता है बाबा महाकाल की भस्म आरती। पहले के दिनों में महाकाल की आरती भस्म आरती में चिता की राख का उपयोग किया जाता है जिसे अब बंद कर दिया गया है। भस्म आरती देखने के लिए तड़के सुबह ३:३० बजे उठकर मंदिर परिसर में प्रवेश करना होता है और भस्म आरती की अग्रिम बुकिंग ऑनलाइन करवानी पड़ती है। क्योंकि हम लोगों की इस प्रकार की कोई बुकिंग नहीं थी इसलिए हम लोगों ने दूर से ही बाबा महाकाल के दर्शन पूरे किए।
महाकाल  का दर्शन करने के बाद हम लोग वापस खांडवा के लिए चल पड़े जहां से हम लोगों कै अपने वापसी की यात्रा में गाड़ी पकड़नी थी ।
खंडवा स्टेशन से शाम के ५:४५ पर हम लोगों ने गाड़ी सं २२९४७ सूरत भागलपुर एक्सप्रेस पड़कर अपनी वापसी यात्रा आरंभ की‌ ‌। अगले दिन यह गाड़ी अपने निर्धारित समय शाम के ६:३० पर भागलपुर स्टेशन पहुंची।
वहां से हम लोगों ने अपने आगे की यात्रा गाड़ी संख्या १३४१४ फरक्का एक्सप्रेस से मालदा के लिए आरंभ की और अगले दिन सुबह मालदा पहुंच गए।
इंद्र ज्योति राय

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