भक्ति और प्रेम के अद्भुत मेल की मिसाल भगवान् श्री कृष्ण की अनन्य भक्त तथा निश्छल भक्ति रूपी गगन में ध्रूव तारे की भांति अडिग एक दिव्य नाम है चिरवंदनीय मीराबाई जी, जो एक आध्यात्मिक कवियत्री होने के साथ- साथ अध्यात्म का अनुसरण करने वालों के लिये प्रेरणास्रोत हैं. उन्होंने अपने चरित्र के द्वारा सिद्ध किया कि प्रेम विहीन भक्ति सदैव अधूरी है . कृष्ण भक्ति की अनन्य प्रेम भावनाओं में अपने गिरिधर के प्रेम में रंगराती मीरा का दर्द भरा स्वर अपनी अलग पहचान रखता है .
समस्त भारत उस दर्द दीवानी की माधुर्य भक्ति से ओत प्रोत रससिक्त वाणी से आप्लावित है. अपने नारी व्यक्तित्व की स्वतंत्र पहचान निर्मित करने वाली तथा समकालीन युग की विभीषकाओं के विरुद्ध संघर्ष शील विद्रोहिणी मीरा कृष्ण की अनन्य उपासिका थीं .
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार 1498 ईस्वी के करीब जोधपुर के चोकड़ी गाँव में मेड़ता राजस्थान के राठौर रतनसिंह के घर संत मीरा बाई का जन्म हुआ .
इनकी माता जी योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण की अनन्य उपासक थीं बचपन से ही श्री कृष्ण के गुणगान को श्रवण करते करते मीरा बाई को भगवान् के चरणों में बाल्यकाल से ही अनुराग हो गया .
मीरा बाई की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा घर पर ही हुई .उनके दादा जी राव दूदा ने उन्हें अध्ययन के प्रति प्रेरित किया . मीरा ने नृत्य और संगीत की शिक्षा भी घर पर ही प्राप्त की . उन्होंने पदों में गुरु के संबंध में उल्लेख किया है ...
“मीरा ने गोविंद मिलाया , गुरु मिलयां रेदास
गुर मिलया रैदास जी , दीन्ही ज्ञान की गुट्टी “
उनके अधिकतर गाने वाले गेय पद हैं . प्रसिद्ध रचनायें हैं ...
1.नरसी का मायरा
2.राग गोविंद
3. गीत गोविंद की टीका
4.राग सोरठा के पद
5. मीरा बाई के मल्हार, राग विहार, बगरवा गीत,
ऐसा कहा जाता है कि बरात में दूल्हे को देख इन्होंने जब माँ से पूछा, मेरा पति कौन है ... माँ ने मुस्कुराते हुये भगवान् कृष्ण की मूर्ति देते हुये कहा ., यह तेरा पति है . मीरा बाई ने उसी क्षण से कृष्ण की सेवा उपासना नित्य नियम और धर्म बना लिया . जैसे जैसे वह बड़ी हुईं उनके अंतःकरण की हर साँस में कृष्ण के प्रति भक्ति भाव बढता चला गया .
एक किंवदंती के अनुसार विवाह के समय फेरों मैं वह कृष्ण की मूर्ति को अपने वक्ष से लगाये रहीं थीं. मीरा बाई ने पति भोजराज से कहा कि आप मेरे तन के स्वामी हैं परंतु मेरी आत्मा के स्वामी तो भगवान् कृष्ण है .
“ जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति होई “
आध्यात्मिक रूप से वह कृष्ण को अपना पति मानती हैं . मीरा अपने कृष्ण प्रेम की दीवानी हैं . उन्होंने अपनी इस प्रेम की बेलि को आँसुओं से सिंचाई की है . जैसे...
“म्हां गिरधर रंगराती
पंचरंग चोला पहेरया
सखि म्हां झरमट खेलण जाति “
धीरे धीरे उनका भक्ति भाव राजघराने की आँखों में खटकने लगा लेकिन मीरा जी की भक्ति में जरा भी अंतर नहीं आया . कुछ वर्षों के बाद ही उनके पति इस संसार को छोड गये लेकिन विधवा होने के बाद भी उन्होंने अपने श्रंगार को नहीं त्यागा . मीरा बाई ठाकुरद्वारे में जाकर भगवान् कृष्ण के सम्मुख लोकलाज और मिथ्या आडंबरों से दूर अपने पैरों में घुंघरू बाँध कर , करताल बजाते हुये नृत्य करते हुये अपने मन के भावों को व्यक्त करती हैं ...
“पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे ,
लोग कहें मीरा भई बावरी , सास कहै कुलनासी रे ...”
इस प्रकार वह अपनी प्रेम जनित अश्रुधारा से भगवान् कृष्ण के चरणों को पखारती थीं . यह सब राजघराने की मर्यादा के विपरीत था . परिवार वालों ने इनके भक्ति भाव को स्वीकार नहीं करते हुये इसे कुल मर्यादाओं का उल्लंघन समझा . मीरा बाई को कुटुंबजनों के अनेकों अमर्यादित कटु वचनों को ही नहीं सुनना पड़ा, उन्हें बहुत दुर्व्यवहार भी सहना पड़ा . मीरा का जीवन यातनाओं से भरा रहा है . उनके देवर मीरा को भगवान् कृष्ण की भक्ति करने से रोका और उनको अनेक यातनायें भी दिया करते थे .
“बतलावां बोली नहीं राणा जी गया रिसाय
राणा मो पर कोप्यो रति न राखों मोद
ले जाती बैकुंठा में यह तो समझयो नहीं सिसोद “
इन्हें मारने के लिये राणां ने विष का प्याला भेजा ., इन्होंने अपने ही मुख से कहा ....
“विष का प्याला राणा जी भेज्यो , पीवत मीरा हाँसी रे “
श्री कृष्ण कृपा से विष भी अमृत के समान हो गया , जिसके कारण मीरा की भक्ति को और बल मिला परंतु परिवार के बुरे व्यवहार से परेशान होकर मीरा जी ने समकालीन कवि तुलसीदास जी को पत्र लिखा , जिसमें वह भक्ति पथ के विषय में मार्गदर्शन चाहतीं थीं . तुलसी दास ने पत्र का उत्तर देते हुये कहा ,
“ जाकै प्रिय न राम वैदेही
सो नर तजिये कोटि बैरी सम जदपि परम सनेहा
नातै सबै राम के मनियत सहृदय सुसंख्य जहाँ लौ
अंजन कहा आँखि जो फूटे , बहुतक कहो कहाँ लौ “
तुलसी दास का पत्र पढकर मीरा बाई को समझ आ गया कि अब उन्हें घर छोड़ना होगा.
मीरा बाई साधु संतों के संगति में रह कर कृष्ण भक्ति करती थीं . जिससे राणां राजघराने में विरोध बढता गया , उन्हें तरह तरह से यातनायें भी दी जातीं जिससे परेशान होकर उन्होंने मेवाड़ और मेड़ता को छोड़ दिया. उन्होंने अपनी तीर्थ यात्रा पुष्कर से शुरू की फिर यात्रा करते हुये वृंदावन होते हुये द्वारका पहुँची . वह अपने हाथ में एकतारा लेकर पद गाती हुई आगे बढती रहीं .
“ मेरे तो गिरिधर गोपाल , दूसरो न कोय “
गाती हुई द्वारिका और वृंदावन गईं .
प्रारंभ में वह कृष्ण से मिलन के लिये लालायित होते हुये गाती हैं ...
“मैं विरहणि बैठी जांगू, जग सोवेरी आलि “. कृष्ण के मिलन के लिये तड़प कर कह उठती हैं
“जोगिया से प्रीतकियां दुख होई
प्रीत कियां सुख का मोरी सजनी, जोगी मित न कोई .”
“पिय बिन दुखण लागे नैन ."
उसके पश्चात् कृष्ण भक्ति में लीन हो जाने पर कहती हैं ...
“पायो जी मैंने राम रतन धन पायो “
यह पद मीरा की प्रसन्नता को व्यक्त करते हैं . इसी तरंग में वह कह उठती हैं ...
“साजन मेरे घरि आया हो, जुगा जुगारी जीवता, विरहिण पिय पाया हो . “
बाद में वह सख्य भाव से ओत प्रोत होकर कह उठती हैं
“. म्हारे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोय “
मीरा अपने प्रियतम कृष्ण से मिल कर उसके साथ एकाकार हो जाती हैं
प्रेम भावना- मीरा बाई के काव्य का मूल उद्देश्य प्रेम भाव रहा है. वह भगवान् से सच्चा प्रेम करती हैं . वह भगवान् को विभिन्न नामों से पुकारती हैं और उन पर न्यौछावर होने की बात करती हैं . वह कहती हैं
“मैं गिरिधर के घर जाऊं
गिरिधर म्हारो सांचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊं”
मीरा भगवान् कृष्ण की भक्त थीं . वह कृष्ण को अपना प्रियतम , पति और रक्षक मानती थीं . कुछ पदों में उन्होंने दो रूपों -रक्षक और रसिक रूप की आराधना करते हुये प्रभु से अपनी रक्षा की गुहार की है . वे स्वयं को दासी बताते हुये कहती हैं
“दासी मीरा लाल गिरिधर, हरो म्हारी पीर “
मीरा बाई ने श्री कृष्ण को अपना आराध्य देव माना है . उन्होंने भगवान् कृष्ण के ऊपर अपना सब कुछ निछावर कर दिया है. उनके काव्य में माधुर्य भक्ति भावना है . उन्होंने भगवान् को विविध रूपो में प्राप्त किया है .
“भज मन चरण कमल अवनासी
जेताई दीसां धरण गगन मां , तेताईल उठ जासी “
सगुण भक्ति भावना –मीरा के काव्य में भगवान् श्री कृष्ण के गुण एवं रूप का वर्णन अधिक मिलता है . उन्होंने गिरिधर के सगुण साकार रूप का वर्णन करते हुये कहती हैं ....
“बसो मेरे नैनन में नंदलाल
मोहिनी मूरत सांवरी सूरति , नैना बने विसाल
अधर सुधारस मुरली राजति, उर वैजंती माल “
माधुर्य भक्ति- मीरा के काव्य में माधुर्य भक्ति का वर्णन हुआ है . कृष्ण को अपना प्रियतम मानते हुये उनसे मिलने के लिये हृदय में उठने वाले अनेक भावों का वर्णन किया है . वह रूप माधुरी मिलन, मिलन की कामना, विरह की तीव्रता और आत्म समर्पण आदि .
“ बसो म्हारे नैनन में नंदलाल
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल तिलक सोहां भाल “
दांपत्य भक्ति- मीरा बाई के काव्य में दाम्पत्य भक्ति भावना का वर्णन भी हुआ है . मीरा बाई ने भगवान् कृष्ण को बचपन से ही अपना पति मान लिया था और इसलिये वह पति से मिलन के लिये व्याकुल मन से लिखती हैं ..
“म्हारे घर होत आज्यो महाराज
णेण विछावा दिवड़ो दास्यूं, सर पर राख्यू विराज “
भगवान् कृष्ण के चरणों में आत्मसमर्पण करते हुये कहती हैं ...
“मन थे परस हरि के चरण
सुभग शीतल कँवल कोमल , जगत ज्वाला हरण “
वह भगवान् कृष्ण की अनन्य भक्त थीं . वह साधु संतों के साथ रह कर निरंतर कृष्ण भजन में लीन रहती हैं. मीरा के प्रभु गिरिधर नागर , भजन वीणा नरफीका
मीरा की विरह वेदना -- विरह में प्रेम का सौंदर्य अधिक निखर जाता है .विरह में व्यक्ति के हृदय की वेदना समाहित रहती है. विरह में तड़प कर प्रेमी अपने आपको आराध्य के अधिक नजदीक महसूस करता है .
“पिया म्हारे नैना आगा रहज्यो जी
नैना आगॉ रहज्यौ , म्हारो भूल णो जज्यो जी “
“बसो मोरे नैनन में नंदलाल
विरह में वह कहती हैं –
“भज मन चरण कमल अवनासी
जेताई दीसां धरण गगन मां तेताई उठ जाती है
जोगिया से प्रीत किया दुख होई
प्रीत किया सुख का मोरी सजनी , जोगी मिला न कोई”
सारांश में कह सकते हैं कि मीरा कृष्ण की अनन्य भक्त थीं . उनके पद हिंदी साहित्य में अपनी अलग पहचान बनाते हैं . उनके पद उनकी हृदय की गहराईयों से निकले हैं . उनके पदों में उनका दुख दर्द दर्द स्पष्ट रूप से झलकता है. उनके पदों में समर्पण का भाव तथा सच्चा प्रेम भी दिखाई देता है. उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण को अपना पति और प्रियतम मान कर माधुर्य , विरह आदि विभिन्न भावों को प्रकट करते हुये पदों को रचना की है . उनका स्थान महान् संतों की श्रेणी में रखा जाता है. उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिये राजस्थानी , ब्रज तथा खड़ी बोली का प्रयोग किया है .
वस्तुतः भक्त शिरोमणि मीरा बाई की भक्ति प्रेमाभक्ति मानी गई है .मीरा बाई के साध्य केवल मात्र कृष्ण हैं . वे अपने साध्य के प्राप्ति के लिये अन्य किसी साधन या अवलंबन आवश्यक नहीं समझतीं, उनके लिये साध्य भी साँवरे हैं और साधन भी साँवरे हैं . इस तरह की भक्ति जिसमें साध्य और साधन में कोई विभेद नहीं रहता , वह भक्ति पराभक्ति की श्रेणी में आती है . इस तरह से यदि मीरा बाई की भक्ति के स्वरूप का विश्लेषण किया जाये तो वह प्रेमा भक्ति की कसौटी पर खरी उतरती हैं .
वह साँवरे की प्राप्ति के लिये निर्लिप्त भाव से डूब गईं थीं . वह तो बस प्रेम दीवानी थीं. उनका और कृष्ण का प्रेम जल में मछली और दीपक- पतंगे की भाँति है . वह कृष्ण के बिना देह होते हुये भी स्वयं को देहरहित महसूस करती हैं .
“नागर नन्दकुमार लाग्यौ धारो नेह
मुरली धुन सुन बीसीं, म्हारौ कुण बौ गेह
पाणी पीर न जाणई, तलफ मीन तजै देह
दीपक जाने पीर नी , पतंग जल्यौ जल खेह
मीरा से प्रभु साँवरो, थै बिना देह बिदेह “
यह सारांश है कि मीरा भगवान् कृष्ण की भक्ति , सेवा , आराधना सब पति भाव से करती हैं . मीरा बाई की भक्ति का स्वरूप उनके पदों से भी स्वतः स्पष्ट है , जिनमें वे गिरधर गोपाल को पति स्वरूप मानती हैं , उन्हें उलाहने देती थीं . अतः मीराबाई माधुर्य भाव से ओतप्रोत होकर प्रेमाभक्ति में डूब कर गिरधर गोपाल की आराधना पति के स्वरूप में करती थीं .
पद्मा अग्रवाल