Nagarjun ka Jivan Parichay | जनवादी चेतना के अप्रतिम कवि वैद्यनाथ मिश्र ‘नागार्जुन’
बिहार के वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा गांव में ज्येष्ठ पूर्णिमा सन १९११ को जन्मे नागार्जुन के बचपन का नाम वैद्यनाथ मिश्र था। पिता गोकुल मिश्र खेतीबाड़ी करने वाले सामान्य कृषक थे तथा माता उमा देवी ईश्वर पर आस्था रखने वाली सामान्य कृषक महिला थीं। बालक बैद्यनाथ जब ६ वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया। पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, खेती-बाड़ी में उनका मन भी नही लगा इसलिए आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गयी। ऐसी स्थिति में आरंभिक शिक्षा गांव में ही सम्पन्न हुई।
प्रगतिवादी-जनवादी कवि एवं कथाकार `नागार्जुन' हिंदी साहित्याकाश के ऐसे नक्षत्र हैं जिन्होंने अपनी जनवादी विचारज्योति से समूचे भारतीय साहित्य को दैदीप्यमान किया है। हिंदी साहित्य में बहुत कम ऐसे साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने साहित्य की दोनों विधाओं गद्य एवं पद्य में एक साथ औदात्य पूर्ण रचनाओं का सृजन किया हो। `नागार्जुन' हिंदी के उन गिने चुने महत्वपूर्ण कवि-कथाकारों में से एक हैं जिन्होंने जितनी सच्चाई से जन संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है उतनी ही सच्चाई से उसे जिया भी है। उनकी रचना धर्मिता जनसंघर्षों एवं जनशक्ति से निर्मित हुई है। डॉ. नामवर सिंह मानते हैं कि `जनशक्ति का सहयोग न लेने वाला लेखक जल्द ही टूट जाता है। संघर्ष से छिटकी चिनगारी भी जलने के लिए तिनके का सहारा चाहती है और सहारा न मिलने पर बुझ जाती है। अकेला लेखक दियासलाई कि उस सलाई की तरह है जो टकराकर थोड़ी देर तो जलती है लेकिन आधार के अभाव में बुझ जाती है।' `नागार्जुन' की जीवन दृष्टि जन-जीवन के संघर्ष एवं उसकी पीड़ा को आत्मसात कर विकसित हुई है। अपने साहित्य में उन्होंने इसी जीवन दृष्टि को देसज संवेदना के साथ व्यक्त किया है।
बिहार के वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा गांव में ज्येष्ठ पूर्णिमा सन १९११ को जन्मे नागार्जुन के बचपन का नाम वैद्यनाथ मिश्र था। पिता गोकुल मिश्र खेतीबाड़ी करने वाले सामान्य कृषक थे तथा माता उमा देवी ईश्वर पर आस्था रखने वाली सामान्य कृषक महिला थीं। बालक बैद्यनाथ जब ६ वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया। पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, खेती-बाड़ी में उनका मन भी नही लगा इसलिए आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गयी। ऐसी स्थिति में आरंभिक शिक्षा गांव में ही सम्पन्न हुई। संस्कृत की शिक्षा भी यहीं से आरंभ हुई, बाद में विधिवत संस्कृत की पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की। बनारस में ही आर्य समाज की ओर आकर्षित हुए और यंही पर राहुल सांकृत्यायन से प्रभावित होकर बनारस से कोलकाता और काठियावाड़, काठियावाड़ से फिर लंका के विख्यात `विद्यालंकार परिवेण' में जाकर बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए और वैद्यनाथ मिश्र से नागार्जुन बन गए। घुमक्कड़ी के संस्कार भी राहुल सांकृत्यायन से ही प्राप्त हुए। पिता अंग्रेजी शिक्षा के विरुद्ध थे लेकिन उन्होंने स्वध्याय से सी संस्कृत,पालि, अपभ्रंश, सिंहली, मैथिली आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
नागार्जुन मार्क्सवादी विचारों न से केवल प्रेरित हुए बल्कि उन्होंने मार्क्सवादी राजनीति में हिस्सा भी लिया। डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार `यह कोरे लेखक नहीं है। राजनीतिक आंदोलन में शरीक होकर जेल यात्राएं भी की हैं। मूलतः मार्क्सवादी चेतना से प्रभावित होते हुए भी इनमें उसका कठमुल्लापन नहीं है। गांधी जी के लिए अपार श्रद्धा है नागार्जुन में। सुभाष चंद्र बोस से भी पत्र व्यवहार था। जयप्रकाश द्वारा संचालित आंदोलन में शरीक होकर वे जेल भी गए थे। लेकिन आंदोलन की सारहीनता की प्रतीति होने पर उसके विरुद्ध कविता लिख डाली।' कुलमिलाकर उन्हें जब जैसा सूझा उन्होंने किया पूरा जीवन अपने फक्कड़पने में मस्त रहे किन्तु शोषित-पीड़ित जनता, किसानों और सर्वहारा के प्रति आत्मिक समानुभूति से कभी विलग नही हुए। घुमक्कड़ी वृत्ति के कारण वे कभी घर गृहस्थी में समय नहीं दे सके। उनकी पत्नी अपराजिता देवी उनकी थोड़ी बहुत खेती बाड़ी सम्हालती रहीं और उस खेती एवं किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी से ही उनका जीवन निर्वाह होता रहा। बाबूराम गुप्त लिखते हैं कि ‘नागार्जुन घुमक्कड़ और अक्खड़ स्वभाव के हैं। प्रेमचंद-सी भारतीय कृषक मजदूर के प्रति आत्मीयता, निराला से फक्कड़पन और अक्खड़पन तथा अनुचित बातों पर कबीर सी फटकार का मिलाजुला रूप ही नागार्जुन है।' उनका मूल और पूर्ण नाम वैद्यनाथ मिश्र था किन्तु लेखन में उन्होंने इस नाम का प्रयोग कभी नहीं किया। हिंदी में वे `नागार्जुन' तथा मैथिली में `यात्री' उपनाम से रचनाएं करते रहे। काशी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से भी कविताएँ लिखीं किन्तु मित्रों के आग्रह के बाद हिंदी में `नागार्जुन' उपनाम से ही लिखते रहे।
नागार्जुन का रचनाकाल अत्यंत विस्तृत है। सन् १९२९ से १९९७ तक लगभग अड़सठ वर्षों के रचनाकाल में उन्होंने क्या नही लिखा। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य आदि सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। संस्कृत और बांग्ला में न केवल मौलिक रचनाएं की बल्कि इनसे हिंदी में अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद भी किया। हिंदी में सतरंगे पंखों वाली, युगधारा, प्यासी पथराई आँखें,तालाब की मछलियाँ,तुमने कहा था,खिचड़ी विप्लव हमने देखा,हजार-हजार बाँहों वाली एवं पुरानी जूतियों का कोरस सहित दो दर्जन से अधिक काव्य संकलन, भस्मांकुर एवं भूमिजा नामक दो प्रबंध काव्य रतिनाथ की चाची, बलचनमा,नयी पौध,बाबा बटेसरनाथ,वरुण के बेटे, दुखमोचन, कुम्भीपाक आदि लगभग एक दर्जन उपन्यास प्रकाशित हुए। उन्होंने कहानियाँ भी लिखीं जो कथा मंजरी भाग-१ एवं कथा मंजरी भाग-२ में प्रकाशित हुई हैं। सन १९६९ में नागार्जुन को मैथिली काव्य संकलन `पत्र हीन नग्न गाछ' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ का भारत भारती सम्मान,मध्यप्रदेश सरकार द्वारा मैथिलीशरण गुप्त सम्मान तथा बिहार सरकार द्वारा राजेन्द्र शिखर सम्मान सहित अनेक पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए। नागार्जुन सारा जीवन सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग रहते हुए जन संवेदना को अपने साहित्य में व्यक्त करते रहे। ५ नवम्बर १९९८ को लगभग ८७ वर्ष की आयु में बिहार के दरभंगा ज़िले में ख़्वाजा सराय में साहित्य के अथक साधक बाबा नागार्जुन का देहावसान हो गया।
साहित्य की कोई भी विधा हो नागार्जुन दोनों में ही जन-जीवन की पीड़ा को अभिव्यक्ति देते रहे। उन्होंने उस पीड़ा और संघर्ष को न केवल देखा और अनुभव किया बल्कि उसे आत्मसात भी किया, और अपने पाठकों के समक्ष पूरी ईमानदारी से उसे प्रस्तुत किया। उन्होंने साहित्यकार के उच्चासन पर आसीन होकर केवल सहानुभूति का साहित्य नहीं रचा अपितु साधारण जनता से घुल मिलकर उनके अभिन्न अंग बनकर उनके दुःख-सुख और हर्षोल्लास के साथ तादात्म्य स्थापित कर देशज संवेदना के साथ उसे व्यक्त किया। नागार्जुन का संपूर्ण जीवन और साहित्य अपने देश की चिंताओं से उद्वेलित, लोक संवेदना से परिपूर्ण तथा क्रांतिकारी जीवन बोध के साथ जनवादी परम्परा के प्रति समर्पित रहा है। संघर्षपूर्ण जीवन पथ पर उन्होंने जो आत्मानुभूत किया उसे ही साहित्य में व्यक्त किया।
नागार्जुन का जीवन अनुभव इतना व्यापक है कि कभी-कभी वह परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों के समुच्चय प्रतीत होते हैं। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार `आंदोलन के विविध और बदलते स्वरूप से कवि की आस्था में भी परिवर्तन आते गए हैं। गांधी, मार्क्स, विनोबा,जयप्रकाश अलग-अलग समयों में कवि के नायक रहे।' इतने विस्तृत रचना काल में ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि तत्कालीन समय में देश की परिस्थितियां भी तेजी से परिवर्तित हो रही थीं । महान रचनाकार वातावरण और परिस्थितियों के प्रति हमेशा सजग रहता है और अपनी सजक काव्यदृष्टि के कारण नागार्जुन भी परिस्थितियों का अतिक्रमण नही कर सके। किंतु फिर भी इस सजगता के बावजूद वे अपनी अभिव्यक्ति में इतने सहज हैं कि कोई भी विचार कभी ऊपर से थोपा हुआ नहीं लगता।
प्रगतिशील कवि स्मृति और कल्पना की अपेक्षा ठोस जीवन अनुभव पर अधिक भरोसा करता है। अपनी आंखों पर भरोसा रखते हुए जो सामने है वह उसी को सत्य मानता है। जिस प्रकार कबीर कागज की लेखी के स्थान पर आंखों देखी को प्राथमिकता देते हैं इस प्रकार नागार्जुन ने जो देखा उसी को समझा और जो समझा उसी को कहा। अपनी कविता `बादल को घिरते देखा है' में वे कहते हैं-
अमल धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गया धनपति कुबेर वह? / कहाँ गयी उसकी वह अलका?
नहीं ठिकाना कालिदास के / व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या / मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय / बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था / मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर / महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है / बादल को घिरते देखा है।
वस्तुतः नागार्जुन कालिदास की काव्यनिष्ठा पर संदेह नही करते, उसका सम्मान है किंतु उन्होंने जो देखा है उसकी सच्चाई सबसे बढ़कर है। उनके जीवन अनुभव अलग हैं इसलिए जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण भी अलग है।
जीवन दृष्टि के समान नागार्जुन की सौंदर्य दृष्टि न केवल सूक्ष्म है बल्कि अत्यंत व्यापक भी है। उनके काव्य में सारी सृष्टि का सौंदर्य सिमट कर घनीभूत हो गया है। सामाजिक कुरूपता उन्हें प्रतिकर्षित करती है और यही प्रतिकर्षण कविताओं में अनुभूति की यह सच्चाई बनकर प्रायः व्यंग्य का रूप ले लेता है।
बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!
सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के!
ग्यानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के!
जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बन्दर बापू के!
लीला के गिरधारी निकले तीनों बन्दर बापू के!
नागार्जुन के साहित्य में अनुभूति की यह सच्चाई जीवन की सच्चाई से उद्भूत हुई है। मैनेजर पाण्डेय कहते हैं- ‘नागार्जुन अपने समय और समाज की सच्चाई कविता में लाकर उसे जन-मन में उतारते हैं।... नागार्जुन की काव्य-यात्रा उनकी जीवन-यात्रा से अलग नहीं है।’
अनुभूति की यही सच्चाई उनके उपन्यासों में भी अभिव्यक्त हुई है। प्रकाश मनु के शब्दों में `नागार्जुन के उपन्यासों की मुख्य रूप से चार कोटियां हैं। उनके प्रतिनिधि उपन्यास हैं बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ और वरुण के बेटे। यह एक तरह से उनके कालजई उपन्यास भी हैं जिनसे पता चलता है कि गांव के भीतर उनकी जड़ें कितनी गहरी हैं और गांव को भी कितने गहरे प्यार और लगाव के साथ जीते और अपने उपन्यासों में फिर फिर रचते हैं।' उनके कथा साहित्य में पात्र इतने वास्तविक हैं कि वे आपको अपने आसपास कहीं भी नजर आ सकते हैं।
नागार्जुन की यथार्थवादी दृष्टि कभी भी अतिरिक्त तार्किकता के मोह जाल में नहीं फंसी। वे आदर्श का प्रवचन करने वाले नहीं यथार्थ का दिग्दर्शन करने वाले साहित्यकार हैं। संवेदना के समान उनका शिल्प भी इतना सहज और सार्थक है कि भावधारा कहीं भी विच्छिन्न नही होती। सच्चाई यह है कि साधारण होकर असाधारण लिखना ही नागार्जुन की सबसे बड़ी विशेषता है।
डॉ. सुधीर कुमार अवस्थी
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