बिजनेस पार्टनर
अकेलेपन से ऊबकर उसने एक दो स्कूलों में भी आवेदन किया मगर इन्टरव्यू में कुछ ज्यादा नहीं बोल पाती थी। कई बार तो समझ ही नहीं आता था कि जो सवाल पूछा गया है उसका नौकरी से कोई संबंध भी है या नहीं। फिर अख़बार में देखकर दूसरे शहरों में भी आवेदन किया। एक छोटे से शहर में उसे नौकरी मिल गई। शुभ अभी छोटी कक्षा में ही था यही सोचकर उसने जाने का मन बना लिया। ख़ुद को समझाया,,"जब तक शुभ बड़ी कक्षा में आएगा तब तक किसी बड़े शहर में भी नौकरी मिल ही जायेगी।
विनीता ने नए शहर में नौकरी के लिए आवेदन पत्र मेल द्वारा भेज दिए। घर को पूरी तरह व्यवस्थित कर दिया। शुभ को भी मना लिया। उसे समझाने में सफल हो गई कि छुट्टियों में वह पापा के साथ रहेगा और बाकि दिन विनीता के साथ दूसरे शहर में। उसका परीक्षा परिणाम घोषित हो चुका था और उस स्कूल की एक ब्रांच उस शहर में भी थी जिसमें वो दोनों जा रहे थे। प्रिंसिपल ने उस स्कूल में बात कर ली और जाते ही दाखिला देने का आश्वासन भी ले लिया। सब कुछ भूलकर अपना सामान इकट्ठा कर रहा था। कुछ सामान यहीं पर अपनी अलमारी में छोड़कर जा रहा था कि छुट्टियों में वापिस आऊंगा।
विनीता ने अपना सब सामान साथ ही ले लिया था। उसकी कोशिश यही थी कि वापिस यहां नहीं लौटना पड़े तो अच्छा है। मन डरता था कि शुभ आकर अकेले कैसे रहेगा लेकिन क्या कर सकती थी। सहमति पत्र में यही लिखा गया था। उसने सिर को झटका दिया और सामान लगाने लगी। विकास अभी तक भी घर नहीं लौटे थे। कई महीनों से उनका यही चल रहा था। सब सो जाते तभी घर आते। ख़ुद खाना गर्म करके खा लेते या नहीं खाते। विनीता बिस्तर पर लेटे हुए जागती रहती मगर कभी भी आवाज़ नहीं लगाते।
यही उदासीनता उनके अलग होने का कारण बन गई थी। दिन भर विनीता इंतजार करती और फिर आने पर भी चुपचाप घूमती रहती। विकास या तो फ़ोन पर लगे रहते या टीवी या लैपटॉप। जितना विनीता पूछती बस उतना ही जवाब मिलता। कई बार तो वह भी नहीं मिलता। ऐसे दिखाते जैसे कुछ सुना ही न हो। कभी झुंझला पड़ती तो या तो उठकर चले जाते या गुस्से में बिफर पड़ते। कई साल तक यही सब चलता रहा। विनीता अपमानित महसूस करती थी लेकिन कर कुछ नहीं पा रही थी। उसने खुद को एक दायरे में कैद कर लिया था। अगर उसने घर छोड़ा तो परिवार की बदनामी होगी। बेटे को पापा से दूर होना पड़ेगा। शादी के बाद उसने नौकरी छोड़ दी थी और इतने लंबे अंतराल के बाद नौकरी मिलना आसान नहीं था। विकास के बारे में सोचने लगती। विकास घर का बना खाना ही खाते थे। ऑफिस में भी पूरा टिफिन लेकर जाते। यही सब सोचकर विनीता अपनी भावनाओं को दबाती आ रही थी। स्थिति ऐसी हो चुकी थी कि एक घर में रहते हुए भी दोनों पड़ोसियों की तरह ही रह रहे थे। पड़ोसी फिर भी एक दूसरे के हाल चाल पूछ लेते हैं, उन दोनों में उतना भी संवाद नहीं बचा था। शुभ के सामने भी कई बार तो जोरदार बहस हो जाती थी। सामान्य बातचीत नहीं थी। जब भी बात होती, बहस ही होती थी। शुभ के भविष्य को देखते हुए ही विनीता ने यह कठोर निर्णय लिया था। दस साल लगा दिए इस कदम को उठाने में। अब जब महसूस हुआ कि दुनिया को दिखाने के लिए साथ रहकर शुभ का भविष्य भी उसी की तरह संकुचित हो जाएगा तो उसने इस कैद से ख़ुद को मुक्त करने का निर्णय लिया था।
शुभ अभी केवल छह साल का ही था। किसी भी बात को समझने की उसकी उम्र नहीं थी। इतना ज़रूर समझने लगा था कि मम्मी, पापा से नाराज़ रहती हैं और दोनों में कभी बात नहीं होती है।
"पापा तो आपके बेस्ट फ्रेंड थे ना। आपकी दोस्ती टूट गई है क्या मम्मा ?"
बड़े भोलेपन से अक्सर पूछता था। विनीता के पास बात बदल देने के सिवा दूसरा कोई जवाब नहीं होता था। हमेशा उसने चाहा कि अपने घर को ही अपनी प्रमुखता बनाए रखे। बनाया भी। मगर घर एक अकेले इंसान के सोचने से नहीं बनता है। उसे घर बनाए रखने के लिए सभी सदस्यों का आपस में सामंजस्य स्थापित करना ज़रूरी है। गृहस्थी भी दो पहियों पर चलने वाली गाड़ी है। एक अकेला अधिक समय तक उसे नहीं खींच सकता है। शादी के बाद पांच सालों तक सब संतुलन में रहा लेकिन उसके बाद विनीता के लाख चाहने पर भी कुछ नहीं बदला सब बिखरता चला गया। उन पांच सालों की स्मृतियों को सच मानते हुए विनीता ने और भी पांच साल अपने घर को बचाने में लगा दिए। शुभ के होने के बाद तीन साल तक ख़ुद को भुलाए रखा। जब वह स्कूल जाने लगा तो अहसास हुआ कितना पीछे छूट गई है, ज़िंदगी में। फिर भी ख़ुद को ही समझाती रही कि मेरे परिवार के प्रति मेरा कर्तव्य सबसे पहले है। कभी खयाल ही नहीं आया कि खुद के लिए भी कोई राह तलाश लेनी चाहिए। वक्त हमेशा एक जैसा नहीं रहता है। परिस्थितियों के साथ साथ इंसान की सोच भी बदल जाती है।
अकेलेपन से ऊबकर उसने एक दो स्कूलों में भी आवेदन किया मगर इन्टरव्यू में कुछ ज्यादा नहीं बोल पाती थी। कई बार तो समझ ही नहीं आता था कि जो सवाल पूछा गया है उसका नौकरी से कोई संबंध भी है या नहीं। फिर अख़बार में देखकर दूसरे शहरों में भी आवेदन किया। एक छोटे से शहर में उसे नौकरी मिल गई। शुभ अभी छोटी कक्षा में ही था यही सोचकर उसने जाने का मन बना लिया। ख़ुद को समझाया,,"जब तक शुभ बड़ी कक्षा में आएगा तब तक किसी बड़े शहर में भी नौकरी मिल ही जायेगी। अभी तो अनुभव प्राप्त करना है। अनुभवी होने पर अच्छी जगह नौकरी मिल ही जायेगी।"
विकास ने बस इतना ही कहा," जब जाने का मन बना लिया है तो मैं कौन होता हूं रोकने वाला।"
पहले बहुत गुस्सा आया फिर ठंडे दिमाग से सोचा कि "अब पैर पीछे नहीं हटाऊंगी। मेरी ज़िंदगी की जरूरतें मुझे ही पूरी करनी हैं, किसी दूसरे पर खुद को नहीं थोपूंगी।"
जाने में बस एक महीना रह गया था इसलिए विनीता सब कुछ फिर से देखना चाहती थी जो इस शहर में उसे भाता था। कपड़ों की दुकानें, मिठाई की दुकानें, सिनेमा हॉल, शॉपिंग मॉल, मंदिर और पार्क सभी कुछ। उस आरामघर को कैसे भूल सकती थी जहां पिछले दो साल से जा रही थी। वृद्धों का एक छोटा सा घर जिसे एक महिला ही चलाती थी और इसमें दस पंद्रह बेसहारा बुजुर्ग लोग रहते थे। दमयंती जी से अपनापन सा हो गया था। उनसे खुलकर बातें कर पाती थी।
"बेटा, तुम्हारी परिस्थिति तुम ही बेहतर जानती हो। बस जो मेरे मन में आ रहा है, तुम्हारी बात सुनकर, वही कह रही हूं। पांच साल तुम्हारे सपनों की तरह अदभुत थे। पांच साल एकदम विपरीत बीते। बस पांच दिन ऐसे बिता दो जैसे तुम पहले पांच सालों में थी।"
विनीता को उनकी बात कुछ समझ नहीं आई। उसने कारण पूछा।
"विकास के बदले व्यवहार के कारण तुम्हारा व्यवहार भी उसके प्रति बदल गया है। अपने आप को पहले के जैसे ही रखो। उसे उतना ही प्यार दो जितना पहले पांच सालों में दिया था। उतना ही खयाल रखो जितना तब रखती थीं। उसके बाद जाओगी तो मन पर बोझ नहीं रहेगा कि अंतिम दिन तक घर को बचाने की, रिश्ता निभाने की कोशिश तुम्हारी तरफ से नहीं हुई।"
विनीता अब भी उनकी बात पूरी तरह नहीं समझ पा रही थी पर न जाने क्यों उसे मान लेने का उसका मन हुआ।
"पांच दिन तक पहले वाली विनीता बनने का नाटक करना है।" उसे इतना ही समझ आ रहा था। घर आई तो पुरानी फोटो निकालकर देखी। उसमें कैसी दिखती थी, क्या पहनती थीं, कैसे रहती थीं, सब वापिस याद किया और जाने से पांच दिन पहले अभिनय शुरू हो गया। जितनी देर विकास घर में होता उसे यही अहसास करवाती जैसे उसका साथ दुनिया की हर चीज़ से प्यारा है। हर दिन उसकी पसंद का खाना। एक सूची तैयार की थी उसकी पसंद की चीजों की। जो काम हो जाता उस पर सही का निशान लगा देती। ख़ुद की जिंदगी भी उसी की पसंद के अनुसार गुजार रही थी। उसकी पसंद के कपड़े पहनती। वही बोलती जो उसे अच्छा लगता। कोई शिकायत नहीं। किसी काम में कोई लापरवाही नहीं। जब विकास घर में होता तो शुभ से ज्यादा ध्यान उसी पर देती।
"तुम्हारी जाने की टिकट हो गई या मैं करवा दूं ?" तीसरे दिन विकास ने पूछा।
"करवा ली है मैने। तुम्हे समय ही कहां मिल पाता है ?" अभी वेटिंग चल रही है। उम्मीद है कंफर्म हो जायेगी, जाने से पहले।" विनीता ने बड़े प्यार से उसकी बात का जवाब दिया।
"हां, वही तो। समय मिल नहीं पाता है और काम छूट जाते हैं। फिर झुंझलाहट में तुमसे उलझ जाता हूं।" विकास ने बड़े दुखी मन से कहा।
"छोटे छोटे काम तो मुझे भी कर लेने चाहिए। पूरी तरह तुम्हारे ऊपर निर्भर हो गई हूं। बच्चों की तरह हर समय तुम्हारा ध्यान बस अपने ही ऊपर चाहने लगी हूं।"
एक दूसरे की बातें सुनकर दोनों हैरान थे। उन्हे समझ नहीं आ रहा था कि उनके मुंह से आज़ कडूवा सच मीठा बनकर क्यों निकल रहा है ?
"सीट अगर कंफर्म नहीं हो पाती है तो मैं कार से छोड़ आऊंगा। इस बहाने मैं भी कहीं बाहर जा पाऊंगा। खपा जा रहा हूं इस बिजनेस में।" विकास की बात सुनकर विनीता ने मुस्कुराकर सहमति में गर्दन झुका दी। विकास गया तो विनीता को अचानक ही रोना आ गया।
"कहीं कुछ गलत तो नहीं कर रही हूं मैं?" मन ही मन उसने ख़ुद से पूछा। आंसू पोंछते हुए मन के भीतर से ही आवाज़ आई।
"अब जाने का समय पास आ रहा है इसलिए विकास अच्छा बन रहा है। उसके रूखे व्यवहार ने ही यह कदम उठाने पर मजबूर किया है, मुझे।" दूसरी आवाज़ भी उसके मन के भीतर से ही आई जिसने पहली आवाज़ के कारण विकास के प्रति मन में उमड़ आई सहानुभूति को तुरंत ख़त्म कर दिया।
आज़ विकास के घर में अंतिम दिन था। कल सुबह उठते ही शुभ के साथ विनीता को अपनी ज़िंदगी के नए सफ़र पर निकलना था। पिछले चार दिनों में विकास के व्यवहार में काफ़ी बदलाव आया था। एक दो बार उसने खुलकर अपनी बात विनीता को बताई थी। शुभ को लेकर भी चिंता जताई थी। साथ में छोड़ने जाने को भी तैयार था। लेकिन वह नहीं कहा जो विनीता सुनना चाहती थी।
"मत जाओ शुभ को लेकर। मुझे मेरे परिवार के साथ ही रहना है। कुछ भी सज़ा दे दो मगर मुझसे दूर मत जाओ। तुम लोगों के बिना नहीं रह पाऊंगा।"
जब भी विकास पास होता विनीता के कान बजने लगते। परंतु ऐसा विकास ने कुछ नहीं कहा। समान की सूची को देख रही थी विनीता, कुछ रह तो नहीं गया है। एक बार जाकर वह दोबारा विकास के घर नहीं आना चाहती थी। आंखें बार बार भर आती थीं। रह रह कर वो सभी पल मन मस्तिष्क पर हावी हो जाते थे जो इस घर में बीते थे। तभी दरवाज़े की घंटी बजी।
"शिल्पा मेरा नाम है। विकास जी का घर यही है ?" दरवाज़ा खुलते ही एक युवती सामने खड़ी थी और विकास के बारे में पूछ रही थी।
"मेरे पति, सुमित विकास जी की कंपनी में पार्टनर थे। किसी ने साजिश रचकर कंपनी पर केस कर दिया है। मेरे पति अभी जेल में हैं और विकास जी केस लड़ रहे हैं। दूसरी कंपनी में नौकरी भी कर रहे हैं।"
उसने बताया तो विनीता को धक्का सा लगा। शिल्पा के घर पर आने का कारण पूछा।
"मेरे पास कंपनी से एक फोन आया था कि आपसे एक बार मिलूं। आप नौकरी दिलाने में मेरी मदद कर सकती हैं।" शिल्पा को बाहर बगीचे में बिठाकर विनीता ने उस नंबर पर फ़ोन लगाया जिससे शिल्पा के पास फ़ोन गया था।
"जी विनीता मैम, मैंने ही विकास सर के कहने पर शिल्पा मैम को आपके पास भेजा है।"
विनीता ने कुछ देर सोचा फिर शिल्पा का परिचय और अनुभव उसी शिक्षण संस्थान में भेज दिया जहां उसे जाना था। फोन भी कर दिया।
"मेरे पति दुर्घटना ग्रस्त हो गए हैं, नहीं आ रही हूं। एक योग्य उम्मीदवार को भेज रही हूं।" कुछ देर बाद उनकी सहमति आ गई।
अगले दिन विकास ने ऑफिस की छुट्टी ले ली थी। कार से सब लोग निकले और शिल्पा को छोड़कर वापिस आ गए।
"तुमने अपना फैसला क्यों बदल दिया वीनू ?" वापिस लौटते हुए विकास ने पूछा।
"कंपनी में मैं भी हिस्सेदार हूं। अपनी कंपनी को बचाना है। तुम अपने नौकरी पर ध्यान दो। कंपनी को मैं संभालूंगी। केस खत्म होने तक, सच्चाई सामने आने तक। सुमित के जेल से छूटने तक और उसके बाद कंपनी को वापिस उसकी ऊंचाईयां दिलाने तक।"
विकास ने कार की गति तेज़ कर दी। शुभ सो गया था विकास ने धीरे से कहा।
"अच्छा हुआ जो तुम्हे बिसनेस में पार्टनर बनाया। तुम वापिस आ गई। लाइफ में पार्टनर बनकर तो छोड़ गई थीं।"
"कुछ बोल रहे हो, विकास?" विनीता ने अपनी सोच से बाहर निकल कर प्यार से पूछा।
"यही की गाना अच्छा बज रहा है। सालों बाद सुन रहा हूं। तुम भी सुनो।”
कार में धीमी आवाज़ में बज रहा था।
“तुम अगर साथ देने का वादा करो..."
अर्चना त्यागी
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