प्रेम और सौंदर्य के कवि धर्मवीर भारती

`यह तुमने क्या किया प्रिय! क्या अपने अनजाने में ही उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी  उजली पवित्र  माँग भर रहे थे साँवरे? पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर

May 27, 2025 - 14:41
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प्रेम और सौंदर्य  के कवि धर्मवीर भारती
Dharamveer Bharti, poet of love and beauty
`बरबाद मेरी जिन्दगी ,
इन फिरोज़ी होठों पर
गुलाबी पाँखुरी पर हल्की सुरमई आभा
कि ज्यों करवट बदल लेती कभी बरसात की दुपहर 
इन फिरोज़ी  होठों पर
तुम्हारे स्पर्श  की बादल-धुली कचनार  नरमाई 
तुम्हारे वक्ष की जादू  भरी मदहोश  गरमाई 
तुम्हारी चितवनों  में नर्गिसों  की पाँत  शरमाई 
किसी की मोल पर मैं आज अपने को लुटा सकता
सिखाने को कहा
मुझसे प्रणय  के देवताओं ने 
तुम्हें आदिम गुनाहों का अजब - सा 
इन्द्रधनुषी  स्वाद
मेरी जिन्दगी बरबाद ! '  
- धर्मवीर भारती
उपर्युक्त पंक्तियाँ रूह को स्पर्श करती हैं। मुहब्बत रूह की खुराक है और निस्संदेह हिन्दी साहित्य के संसार में कवि धर्मवीर भारती प्रेम और सौंदर्य के कवि के रूप में विख्यात हैं।
धर्मवीर भारती के प्रेम का रूप `कनुप्रिया' में भी मिलता है जहाँ राधा अपनी निरीहता में आम के बौर को माँग में भरे खड़ी है और कृष्ण सेनाओं के संगठन में व्यस्त है।
प्रेम अपनी लघुता में भी महान होता है।इस भावना को भारती जी की `कनुप्रिया' की इन पंक्तियों में अनुभव करने का प्रयत्न कीजिए-
`यह तुमने क्या किया प्रिय!
क्या अपने अनजाने में ही
उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी 
उजली पवित्र  माँग भर रहे थे साँवरे?
पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो
माथा नीचा कर
इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त होकर
माथे पर पल्ला डालकर  
झुककर तुम्हारी चरण धूलि लेकर 
तुम्हें प्रणाम  करने ---------------
नहीं आयी,नहीं आयी,नहीं आयी।'
धर्मवीर  भारती की कृति `कनुप्रिया'
अर्थात् कृष्ण की प्रिया राधा की अनुभूतियों की गाथा है। ऐसा लगता है जैसे धर्मवीर भारती ने नारी के अन्तर्मन की एक परत खोलकर  देखी है। इस रचना में नारी के मन की संवेदनाओं और प्यार के नैसर्गिक  सौंदर्य का अप्रतिम चित्रण है। कनुप्रिया का प्रथम संस्करण १९५९ ईस्वी में प्रकाशित हुआ था। यह एक खंड काव्य है। यह खंडकाव्य मानवीय  अनुभूतियों की एक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसमें माधुर्य की नैसर्गिक धारा प्रवाहित  होती है। राधा और कृष्ण की प्रणय गाथा शाश्वत है। `कनुप्रिया'  कवि की कोमलतम भावनाओं का एक सजीव चित्रण है। राधा केवल एक समूर्त नारी नहीं ह ैकिन्तु नारी के अनेक रूपों का एक समन्वय है।इसमें राधा की भावनाओं का मार्मिक चित्रण है। राधा शक्ति है पर मानवीय चेतना में अपनी सीमाओं से परिचित है। उसे पता है कि कृष्ण भगवान है वह एक पार्थिव शरीर है। कृष्ण अपने कर्तव्य पालन के लिए धरती पर अवतरित हुए हैं। अपना कर्तव्य समाप्त करके उन्हें विष्णुलोक वापस जाना ही जहाँ राधा की पहुँच नहीं है। राधा के मन में यही एक प्रश्न है जो उसे कचोटता रहता है। एक लेखक लिखते हैं कि नारी और नारायण के बीच की यह दीवाल क्या टूट सकती है?
राधा तो स्वयं शक्ति है। उसी की चेतना में से कृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ है। उसी की चेतना में कृष्ण की रासलीला हुई है। और फिर  चिर मिलन और चिर विरह की आध्यात्मिक गाथा बन गई। 
`कनुप्रिया' की कुछ सुन्दर भावों से भरी पंक्तियों का तात्पर्य समझिए-
`जहाँ खड़े होकर तुमने मुझे बुलाया था
अब भी मुझे आकर बड़ी शान्ति मिलती है
मैं कुछ सोचती भी नहीं
कुछ याद करती नहीं 
बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता '
`कनुप्रिया' में प्रेम की अनुभूति और सौंदर्य की झलक इन पंक्तियों में जो मिलती है, वह हृदयस्पर्शी और अनुकरणीय है-
`लो मेरे असमंजस!
अब मैं उन्मुक्त  हूँ
और मेरे नयन अब नयन नहीं हैं
प्रतीक्षा  के क्षण हैं
और मेरी बाँहें ,बाहें नहीं हैं
पगडण्डियाँ हैं
और मेरा यह सारा
हल्का गुलाबी, गोरा, रूपहली
धूप-छाँव वाला सीपी-जैसा जिस्म
अब जिस्म नहीं है
सिर्फ  एक पुकार है'
--------------------------
और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से
कि अपने शायक उतार कर 
तरकस में रख ले
और तोड़ दे अपना धनुष 
और अपने पंख समेटकर द्वार पर
प्रतीक्षा करे चुपचाप 
जबतक मैं अपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम- चिह्न 
अपने अधरों से
तुम्हारे वक्ष पर लिखकर, थक कर
शैथिल्य  की बाहों में
डूब न जाउँ-----------।
आओ मेरे अधैर्य !
दिशाएं घुल गयी हैं
जगत् लीन हो चुका है
समय मेरे अलक -पाश में बँध चुका है।
और इस निखिल सृष्टि के 
अपार विस्तार में
तुम्हारे साथ मैं हूँ- केवल मैं-
तुम्हारी अंतरंग केलिसखी!
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सुनो मेरे प्यार!
तुम्हें मेरी जरूरत थी न, लो मैं सब छोड़कर आ गयी हूँ
ताकि कोई  यह न कहे
कि तुम्हारी अन्तरंग  केलिसखी 
केवल तुम्हारे सांवरे तन के नशीले संगीत  की
लय बनकर रह गयी-----------।'
----------------------------------
सुनो मेरे प्यार!
प्रगाढ़ के लिक्षणों  में अपनी अन्तरंग 
सखी को तुमने बाँहों में गूथा
पर उसे इतिहास  में गूँथने से हिचक क्यों गये प्रभु?
बिना मेरे कोई  भी अर्थ  कैसे निकल पाता
तुम्हारे इतिहास  का
शब्द, शब्द,  शब्द--------
राधा के बिना
सब
रक्त के प्यासे
अर्थहीन शब्द। '
यह संदेश है कनुप्रिया का मानवता को...देवत्व के साथ मानवता की अनिवार्यता।
धर्मवीर भारती रचित `अंधायुग' एक प्रसिद्ध पद्य नाटक है। इसमें जीवन के शाश्वत मूल्यों और उनकी समस्याओं को पौराणिक संदर्भ में आधुनिक  जामा पहनाकर प्रस्तुत किया गया है। इसमें मानवीय चेतना का बोध, नव निर्माण  के प्रति अटूट आस्था और शाश्वत मूल्यों की अभिव्यक्ति दी गयी है। इसमें कृष्ण म्ाानव भविष्य के प्रति आस्था जाग्रत करते हैं। सामाजिक और  सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन किसी भी जाति और संस्कृति के लिए बहुत बड़ा खतरा होता है। कवि आरंभ में ही स्पष्ट करता है-
`युद्धोपरांत यह अंधायुग अवतरित हुआ जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएं सब विकृत हैं एक बहुत पतली सी डोरी मर्यादा की ' युद्धोत्तरकालीन भारत की परिस्थितयों के संकेत इन शब्दों में अंतर्निहित हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध  का ध्वंस और तृतीय विश्वयुद्ध की संभावना का त्रास, दोनों मिलकर जिस मानसिकता का निर्माण करते हैं,`अंधायुग' के आरंभिक अंशों में उसी की अभिव्यक्ति है। कृति के अंत की बात लें तो देखिए कवि कहता है-
`उस दिन जो अंधायुग अवतरित हुआ जग पर
बीतता नहीं,रह-रहकर दोहराता है
हर क्षण होती है प्रभु की मृत्यु  कहीं न कहीं
हर क्षण अंधियारा गहरा  होता जाता है'
युद्ध को जीतने वाला युधिष्ठिर भी
सुखी नहीं:
ऐसे भयानक महायुद्ध  को
अर्धसत्य, रक्तपात, हिंसा से जीतकर 
अपने को बिल्कुल हारा हुआ अनुभव कर
यह भी यातना ही है।'
`गुनाहों का देवता' उपन्यास में ब्रिटिश शासन  के दौरान इलाहाबाद में घटी एक कहानी है। इस कहानी में प्रेम के अव्यक्त और  अलौकिक रूप को दिखाया गया है। यह उपन्यास भावना और वासना के बीच संघर्ष को दिखाता है। यह उपन्यास आधुनिक शिक्षित मध्यमवर्गीय  समाज की मानसिकता और रूढ़िग्रस्तता को दिखाता है। इस उपन्यास में चंदर, सुधा, विनती और पम्मी जैसे पात्र हैं। यह देश की सबसे दर्द भरी प्रेम-गाथा है। युवाओं की नजर में यह हिन्दुस्तान की सबसे दुखांत प्रेम- कहानियों में से एक है। इस उपन्यास  की आखिरी लाइनें  हैं-
`सितारे टूट चुके थे, तूफान खत्म हो चुका था नाव किनारे पर आकर लग गयी थी- मल्लाह को चुपचाप रूपये देकर विनती का हाथ थाम कर चंदर  ठोस धरती पर  उतर पड़ा...मुर्दा चाँदनी में दोनों छात्राएँ मिलती-जुलती हूई  चल रही थी। गंगा की लहरों में बहता हुआ राख का साँप टूट-फूटकर  बिखर चुका था और नदी फिर उसी तरह बहने लगी थी जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं।'
`सूरज का साँतवा घोड़ा ' धर्मवीर भारती द्वारा रचित एक लघु उपन्यास है। इस उपन्यास में सात दोपहरी में कही गई कहानियाँ हैं और हर कहानी दूसरी कहानी में गुमफित है। लेखक ने इस उपन्यास में कई सामाजिक समस्याओं को पाठकों तक पहुँचाया है, जैसे-दहेज की समस्या, आर्थिक संघर्ष की समस्या,महिला शोषण की समस्या आदि। इस उपन्यास  द्वारा लेखक भारतीय समाज की असलियत से अवगत कराना चाहते हैं, जहाँ ऊपर से सबकुछ अच्छा है,परंतु अंदर ही अंदर बहुत गंदगी है। भारती जी ने इस उपन्यास के माध्यम से समाज की कुप्रथाओं को पाठकों के सामने रखा है,परन्तु उन्हें यह भी आशा है कि भविष्य में भारत बदलेगा।
धर्मवीर भारती का जन्म २५ दिसंबर १९२६ को हुआ था और  उनका निधन ४ सितंबर १९९७ को सुआ था। उनको १९७२ में भारत सरकार पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया था। वे इलाहाबाद  विश्वविद्यालय  से हिन्दी में एम.ए. और पीएच.डी. की पढ़ाई कर चुके थे।वे प्रख्यात  साप्ताहिक पत्रिका `धर्मयुग' के प्रधान संपादक थे। उनकी पहली पहली पत्नी कान्ता भारती (विवाह १९५४ में) और दूसरी पत्नी पुष्पा भारती थी।
अध्यापन और लेखन उनके जीवन के आदर्श रहे। विद्यार्थी जीवन से ही पत्रकारिता  में संलग्न रहे। 
`परिमल' संस्था के साथ उनकी सक्रिय भागीदारी रही। `सूरज का साँतवा घोड़ा' और `अंध युग' बी. ए. और एम. ए. के सिलेबस मे विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। इसके साथ ही साहित्य के अनेकों विद्यार्थियों ने भारती जी के साहित्य  पर पीएच. डी.की डिग्री प्राप्त की।
उनकी दृष्टि में वर्तमान को सुधारने और भविष्य को सुखमय बनाने के लिए 
आम जनता के दुख-दर्द को समझने और दूर करने की आवश्यकता है। अपनी रचनाओं के माध्यम से `जन' की आशाओं,आकांक्षाओं,विवशताओं,  कष्टों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास उन्होनें किया है। १९९९ में युवा कहानीकार उदय प्रकाश के निर्देशन में साहित्य अकादमी दिल्ली के लिए  डॉक्टर भारती पर एक वृत्त चित्र का निर्माण हुआ  है।
उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। उन्होंने देश-विदेश की बहुत यात्राएं की,जिसकी स्पष्ट झलक उनकी रचनाओं में परिलक्षित होती है। उनका कृतित्व वैविध्यपूर्ण है।
उनका निबंध संग्रह-ठेले पर हिमालय, पश्यनती, कहनी-अनकहनी, कुछ  चेहरे,कुछ चिन्तन, शब्दिता, मानव मूल्य और साहित्य  प्रसिद्ध हैं। एकांकी और नाटक में-नदी प्यासी थी, नीली झील, आवाज का नीलाम प्रसिद्ध हैं। आलोचना में `प्रगतिवाद: एक समीक्षा', मानव मूल्य और साहित्य प्रसिद्ध  हैं। कविता संग्रह में ठंडा लोहा,सात गीत वर्ष, कनुप्रिया, सपना अभी भी, कुछ लंबी कविताएं,आद्यांत आदि प्रसिद्ध हैं। कहानी संग्रह में मुर्दों का गाँव,
स्वर्ग और पृथ्वी, चाँद और टूटे हुए लोग, बंद गली का आखिरी मकान, साँस की कलम से (समस्त कहानियाँ एक साथ) प्रसिद्ध हैं। आधुनिक  हिन्दी काव्य में अपनी आधुनिक दृष्टि, रोमांटिक प्रवृत्ति, वयक्तिवादी चेतना तथा सहज जीवन्त एवं बोलचाल की भाषा के लिए वे प्रख्यात हैं। धर्मवीर भारती जी हिन्दी साहित्य के गगन में दैदीप्यमान मार्तण्ड की तरह सदैव  आलोकित रहेगें और हमें उनपर गर्व रहेगा।   
– अरूण कुमार यादव
मुंगेर, बिहार 

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