गजल
कहीं का तीर कहीं का तुक्का गजल कह रहा हूं ।
संसद में रोज लात ओ मुक्का गजल कह रहा हूं ।।
पडोसी को कितना समझाया था हमने दोस्तो।
अब रो रहा फाड के बुक्का गजल कह रहा हूं ।।
इस उम्र मे अब कुछ होता नही दोस्तो।
वक्त बिता रहा गुडगुडा के हुक्का गजल कह रहा हूं ।।
लीला कुदरत की अजब-गजब है दोस्तो ।
कहीं पे बाढ कहीं पे सुक्खा गजल कह रहा हूं ।।
जमाने का चलन कैसा आया है साहिबो ।
कोई खा रहा कोई है भुक्खा गजल कह रहा हूं ।।
अस्मते रोज लुट रही मुल्क मे साहिबो ।
दिल तुम्हारा फिर भी न दुक्खा गजल कह रहा हूं ।।
बडी मुश्किल से बनाया था उसने आशिया साहिबो ।
नफरतो ने घर उसका फुक्का गजल कह रहा हूं ।।
(स्व रचित )
रवीन्द्र सेठ रवि