अभी जिंदा हूं मैं 

उस समय बदली-बहाली का जोर था । धारा (9.4.0) अर्थात कंपनी का एक ऐसा प्रावधान, जिसके तहत कोई मां, कोई बाप अपने बेटे को अपनी जगह नौकरी देकर अपने बाकी जीवन को सुखमय बनाने और बुढ़ापे का सहारा ढूंढने में लगे हुए थे। जिनका सगा बेटा नहीं, वे दामाद को ही अपनी नौकरी देने की भाग दौड़ करते नजर आ रहे थे । बेटी खुश- दामाद ख़ुश, ताकि भविष्य खुशहाल हों ।

Mar 14, 2024 - 19:10
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अभी जिंदा हूं मैं 
alive

सुबह के उजाले में भी एक क्षण भूत सा लगा था वह। पर न वह भूत था न भविष्य । पूरा का पूरा वर्तमान था वह । नाम था मनसा ! हां, मनसा तुरी- पूरा नाम था ।

लाठी के सहारे चलकर वह मेरे घर तक पहुंचा था । दाढ़ी बढ़ी हुई और आंखें भीतर की ओर धंसी हुई, जिनमें सवाल ही सवाल तैर रहे थे ।

पिछले छः माह से लापता था वह ! मुझे एक एक कर सब कुछ याद आता चला गया था । 

उस समय बदली-बहाली का जोर था । धारा (9.4.0) अर्थात कंपनी का एक ऐसा प्रावधान, जिसके तहत कोई मां, कोई बाप अपने बेटे को अपनी जगह नौकरी देकर अपने बाकी जीवन को सुखमय बनाने और बुढ़ापे का सहारा ढूंढने में लगे
हुए थे। जिनका सगा बेटा नहीं, वे दामाद को ही अपनी नौकरी देने की भाग दौड़ करते नजर आ रहे थे । बेटी खुश- दामाद ख़ुश, ताकि भविष्य खुशहाल हों ।

नौकरी और जीवन में बड़ा गहरा संबंध होता है। अपने आश्रित को नौकरी देकर,हर मां -बाप, अपने घर -परिवार और पोते - पोतियों के साथ हंसी-खुशी का जीवन जीने की तमन्ना रखते हैं । यहां जाना है, वहां जाना है, बेटे की शादी, बेटियों की शादी, नतनी का वर ढूंढना, पोती की शादी के लिए योग्य दूल्हे की खोज करना,घर - परिवार ठीक ठाक चलने से ही ये सब हो पायेंगे ।

लेकिन मनसा ने परिस्थिति वश बेटे को नौकरी देने का मन नहीं बनाया था। बल्कि ऐसा करने के लिए मनसा को विवश किया गया था। मजबूर होना पड़ा था उसे ।

वैसे मनसा का परिवार बहुत बड़ा नहीं था । भाईयों से अलग होने के बाद और गर्भपातों की गिनती छोड़ दें,तो दो बेटे, एक बेटी और स्वयं पति-पत्नी, कुल मिलाकर पांच ही सदस्य तो थे। परन्तु पांचों का पांच रूप। पांच जीवन दर्शन । जीने के सबके अपने अपने तौर -तरीके । उस पर अपनी -अपनी जद्दोजहद भी! मनसा ने इसी क्रम में एक दिन बताया था कि कैसे और कितनी मुश्किलों से लड़कर यह नौकरी हासिल की थी उसने और उसी नौकरी को परिवार के भविष्य का नाम देकर और एक अप्रत्यक्ष दबाव के तहत छीनने का जी-तोड़ प्रयास किया जा रहा था। सही अर्थों में कहा जाए तो कमरतोड़ मेहनत और लगन के बल पर ही मनसा इस मुकाम तक पहुंचा था। हां, शुरू में मनसा पढ़ा-लिखा नौकरी करना
चाहता था, टेबुल -कुर्सी पर बैठ कर, बाबुओं जैसे रौब के साथ। पर उस जमाने में जब दलित -पिछडों के जीवन का ही अपना कोई भविष्य नहीं होता था। तो ऐसे में भला मनसा को कौन काम देता,वह भी ऐसा काम ! फिर भी मनसा ने हिम्मत नहीं हारी थी। 

मनसा का जन्म एक गरीब तुरी परिवार में हुआ था। उसके अलावा घर में और पांच भाई -बहनें थीं। पर उन सबको रखने के लिए भी उसके बाप के पास ढंग का एक घर नहीं था। तब इंदिरा आवास का जमाना भी नहीं था। किसी तरह एक झोपड़ी सा खड़ा कर रखा था उसके बाप ने। कुल मिलाकर दूर से ही सूअरबाड़े की तरह दिखता था । उसी में मां बच्चे जन्म देती और उसी में बाप  बच्चे भी पैदा  कर रहा था ।

वैसे तो मनसा का गांव महतो बहुल था और पूरे गांव में मुखिया नन्दलाल महतो का दबदबा था। उसकी सहमति के बगैर गांव में कोई अहम काम नहीं हो सकता था। किसी तुरी- महरा को नया काम शुरू करने के पहले मुखिया से इजाजत
ले लेनी पड़ती थी । मनसा के बाप को भी मुखिया से अनुमति लेनी पड़ी- गांव के स्कूल में मनसा का नाम लिखवाने की अनुमति । मनसा पढ़ना चाहता था और स्कूल जाने की ज़िद में वह सप्ताह दिन से जिद पसारे - रट लगाए हुए था।

लेकिन मुखिया सीधे तौर पर हां कर दे, तो यह मुखिया पद की तोहीन ही न होती। फिर मुखिया किस बात का ? सवाल बड़ा था ।  उन्होंने हां तो कर दिया। लेकिन बदले में मनसा के बाप को उस वर्ष मुखिया के खेतों में बेगार खटना पड़ा था
। सारा गांव इस बात का गवाह था । जब भी किसी तुरी- महरा या घटवार के बच्चों को स्कूल जाना होता, उनके मां बाप को मुखिया के दरवाजे आकर  सर झुकाना ही पड़ता था । भले ही स्कूल का खर्च और किताब-पेन्सिल का प्रबंध बाद में हो । शिक्षा के प्रति ऐसी सामंती व्यवस्था दूर दूर तक दिखाई नहीं पड़ती थी। और मनसा के घर में गरीबी इतनी थी कि पैरों में चप्पल की बात तो दूर, पैन्ट -शर्ट भी फटे होते थे। हां, मनसा पढ़ने में जितना तेज था, उतना ही बढ़िया फूटबॉल खेलता था। खेल के दौरान यूं लगता था जैसे मनसा के पैर और फूटबॉल के बीच कोई चुम्बकीय सम्बन्ध हो । इस कारण गांव के कई लड़के उसके साथी बन गये थे। वे ही मनसा को समय समय पर मदद भी करते थे। कभी किताब
तो कभी कॉपियां, तो कभी कपड़े भी बनवा देते थे ।

परजीवियों जैसा छात्र-जीवन और पिसते -कुचलते स्वाभिमान के बीच एक दिन मनसा ने माध्यमिक परीक्षा दी और पूरे गांव में एक वही प्रथम आया । मुखिया को मालूम हुआ तो हाथ मल कर रह गया। वहीं कई कानों को विश्वास नहीं हुआ।
कई आंखें फटी की फटी रह गयीं । किसी ने सराहा तो किसी के मन में सांप लोट गया तो बहुतों ने सुना मनसा की इस शानदार उपलब्धि के बारे में। महायुद्ध की तरह सरपट दौड़ गयी थी, यह खबर गांव के एक कोने से दूसरे कोने तक।
लेकिन फटेहाल -तंगहाल मनसा अपनी पढ़ाई को आगे न ले जा सका। मां बाप ने उसे कहीं भी काम करने को लगभग विवश सा कर दिया था। और तब किशोरावस्था में उसे परिवार तथा नौकरी की चिंता ओढ़ लेनी पड़ी ।

इसी बीच मनसा एक दिन कुछ लोगों के साथ नजदीक के खदान में काम करते देखा गया। कोयला-पत्थर-काटने-फेंकने से लेकर कोयला का पौवा-नापी और ब्लास्टिंग तक का काम । मुखिया नन्दलाल महतो को इस बात का पता चला । कई दिनों से मुरझायी मूंछों पर जैसे फिर से ताव आ गया।

अवचेतन में कुछ दिनों से रेंग रहे लिजलिजे कीड़े को जैसे गति मिल गयी,देर तक कहकहों में डूबे रहे । वहां उपस्थित लोगों ने सुनी उनकी वह मधुर वाणी "फस्ट आकर मनसा का कौन सा मनसा पूरा हो गया और कौन सा मनिजर बन
गया ? अरे,बजेबे - भूतवां हियां जरूर, पर खायल तो मिलतो - मूतवां हियां ही ..!"

समय का पहिया, अपनी गति से घूमता रहा। दिन महीने साल बदलते रहे। दस बारह साल के युग जैसे समय में बहुत कुछ बदला। बहुत कुछ घटा। बहुत कुछ बढ़ा भी। समय से पहले मनसा तुरी का बाप मर गया। छः माह बाद मां भी चल
बसी। अब मनसा ही घर का सब कुछ था ।

उन्हीं दिनों खदानों का नेशनालाइजेशन हुआ। इस बार भी दफ्तर में टेबुल -कुर्सी पर बैठ कर काम करने की मनसा की इच्छा पूरी न हो सकी । हां, उसे सूट-फायर के रूप में जरूर बहाल कर लिया गया । घर और बाहर दोनों जगह अब मनसा की जिम्मेवारी बढ़ गयी थी । उसने धैर्य से काम लिया । भाई-बहनों की शादी के पहले उसने पूरे कुनबे को रहने के काबिल एक घर बनाया। फिर उसने अपने बच्चों को पढ़ने स्कूल भेजा । हां, इस बार अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए
किसी मुखिया की " हां " की जरूरत नहीं पड़ी थी ।न किसी के यहां उसे बेगार खटने पर विवश होना पड़ा था।

पर यहीं से घर में खटर -पटर भी शुरू हो गई थी। कुछ भाईयों की पत्नियों के कारण और कुछ उसकी पत्नी के कारण । मनसा चाहता था घर न टूटे,पर ऐसा न हो सका।

भाईयों की शादी होती गयी,उधर घर में बर्तन से बर्तन टकराते गये। बर्तनों के टकराव ने एक दिन दीवारों को हिला दिया और घर में बंटवारे की लकीर खींच गयी ।

घर अलग हो जाने से भले ही किसी को सुख पहुंचा हो,पर मनसा के हिस्से में तो दुःख ही दुःख आये ।घाटा ही घाटा । पहले भी रीता था,अब और रीत गया था मनसा। अवसाद और दुःख के बादल भी उतने ही घने हो गये थे ।

यह दुःख तब और बढ़ गया,जब बड़ा बेटा रति तुरी पढ़ाई छोड़ ताश का शौकीन बन गया। वहीं बेटी स्कूल जाना छोड़ मां की पिछलग्गू - नकचढी बन गयी । मनसा चाहता था कि उसके बच्चे पढ़ाई में उससे भी आगे जांए, पर कहां हो पाया यह सब । छोटा बेटा भी पढ़ाई के प्रति लापरवाह ही निकला। यह देख - सुन मनसा को अपार दुःख होता । लाचार मनसा किसी एक को भी सही रास्ते पर ला पाने में नाकाम रहा । इन सबके पीछे पत्नी परबतिया देवी का शह काम कर रहा था। घर में अब उसी का राज़ चलता था ।

बदलते सामाजिक माहौल ने जहां मनसा के बच्चों को बाहर से आत्मकेंद्रित कर दिया था, वहीं परिवार में शनै:शनै: उगते स्वार्थ ने एक दूसरे को एक दूसरे के प्रति शंकालु भी बना दिया था।

उस दिन भी ब्लास्टिंग के दौरान धड़ाम -धड़ाम कर खदान में आवाजें हो रही थीं। चारों तरफ कोयला -पत्थर,टूट टूट कर हवा में उड़ते नज़र आ रहे थे और धूल-गर्दा से पूरी खदान पट सी गयी थी। कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा था। यहां तक कि ब्लास्टिंग करने वाला मनसा भी दिखाई नहीं पड़ा। लोगों को मालूम था, कि मनसा आज कल पीने लगा है। उस दिन भी उसने पी रखी थी। ब्लास्टिंग के घंटे भर बाद भी जब मनसा नहीं लौटा, तो कानों - कान यह खबर लोगों के बीच फैल
गयी। उसके बाद ही लोगों ने इधर -उधर तलाशना शुरू कर दिया। खदान के अलावा झाड़ियों में भी खोज शुरू हुई। घंटा भर बाद जब धूल-गर्दा थम गया, तभी मनसा लहूलुहान एक झाड़ी में बेहोश मिला ।

घंटों बाद ही मनसा को होश में लाया जा सका । लेकिन रह - रह कर बेहोशी के दौर भी जारी रहा। इससे न सिर्फ डाक्टरों की परेशानी बढ़ी, बल्कि कोलियरी प्रबंधन की नींद भी उड़ गयी थी। ब्लास्टिंग अफसर पहले ही फरार हो चुका था। उस पर बिना बालू ब्लास्टिंग करने और ठेकेदार के साथ सांठ-गांठ कर फर्जी बिल उठवाने का गंभीर आरोप पहले भी लग चुका था । इस वक्त मजदूरों का सबसे अधिक गुस्सा उसी पर था ।

महीने भर बाद मनसा जब अस्पताल से बाहर आया, तो जैसे वह कोई और मनसा हो । ब्लास्टिंग के साथ कोयला गर्द और धुंए के गुब्बारे उसकी आंखों में तैर रहे थे। बल्कि कसैले धुंए तथा बारूद मिश्रित कोयले के गर्द मनसा के मन में कहीं गहरे और गहरे पैठ चुके थे । हमेशा कुछ न कुछ बोलते और गुनगुनाते रहने वाला मनसा के जीवन पर ब्लास्टिंग के बाद की सी चुप्पी और खामोशी छा गयी थी ।

अब मनसा का खदान का काम पीछे छूट चुका था। वह हाजरी बनाता और वहीं हाजरी घर के बाहर चौकोर बड़े पत्थर पर घंटों बैठा रहता । अब अफसरों के सामने समस्या आयी कि इसे किस विभाग में रखा जाए ताकि इसका तनख्वाह बन सके । लेकिन मानसिक रूप से अस्वस्थ मनसा को रखने के मामले में सभी अधिकारी होशियार निकले ।

कभी का अच्छा फूटबॉल खिलाड़ी रहा मनसा,अब खुद फूटबॉल बन चुका था । फिर तो कभी उत्खनन विभाग में तो कभी विधुत एवं तांत्रिक विभाग में, तो कभी सिविल विभाग में उछाला जाने लगा मानसा । परिणाम यह हुआ कि लगी
हाजरी के बावजूद उसके पंद्रह दिनों का वेतन कट गया। परबतिया ने जाना तो खौलते पानी की तरह पति मनसा पर उबल पड़ी"पंठवा,मर ही क्यों नहीं गया । अगर ऐसी हालत रही तो एक -एक कर घर के सारे समान बेचने पड़ेंगे ..!"
तभी एक दिन फूचा महतो ने परबतिया के कान में कहा" चिल्लाती क्यों हो भाभी, अभी नौकरी का फार्म भराया जा रहा है,तुम भी मनसा दादा की जगह रति के नाम फार्म भरवा दो। कंपनी का नियम  है भी ।"

परबतिया को और क्या चाहिए था,अंधा मांगे दो आंखें !  वैसे भी मनसा से घर में कोई खुश नहीं था । सभी की यही इच्छा थी कि मनसा जैसे जीव से मुक्ति मिल जाए,चाहे जैसे भी हो और जब फूचा महतो ने परबतिया के सामने यह
प्रस्ताव रखा, तो उसकी आंखें खुल गयीं । इस प्रस्ताव के साथ और भी एक प्रस्ताव था जिसे परबतिया खूब समझती थी और जिस पर उसने मौन स्वीकृति भी तत्काल दे दी थी। इधर रति अब शराब भी पीने लगा था । यही नहीं, कभी -
कभी तो रति बाप मनसा की गर्दन पर हाथ भी फेरने लगा था। सच पूछा जाए तो मनसा के लिए उसके हृदय में अब घृणा ही घृणा पलने लगी थी। उन्हीं दिनों उसके दोस्त मोहन के पिताजी की एक सड़क दुघर्टना में मृत्यु हो गयी, जिसके
बदले मोहन को तुरंत नौकरी मिल गयी थी । नशे की हालत

में अक्सर रति अपने शराबी मित्रों से कहता"पता नहीं मेरे लिए वह शुभ दिन कब आएगा..!"

हालांकि मनसा को वेतन में जो भी मिलता ले जाकर वह पत्नी को ही देता -सारा का सारा ! फिर भी घर में वह बिलकुल उपेक्षित और अकेला महसूस करता । अन्ततः रति को नौकरी देने के लिए सहमत हो जाना पड़ा था उसे ।
और एक माह बाद ही मेडिकल बोर्ड बैठी थी। मनसा का भी उस दिन मेडिकल हुआ । परन्तु जब फिट-अनफिट की सूची निकली, तो उसमें मनसा का नाम फिट लिस्ट पर टंगा था। देखकर लगा था जैसे मनसा खुद रस्सी पर टंगा हो अर्थात,
कंपनी ने मनसा को काम करने योग्य पाया था। रति को अब मनसा के जीते जी नौकरी नहीं मिल सकती थी।

पर जैसी कि आशा थी, सूचना -पट के सामने ही खड़े कम्पनी  के इस निर्णय का परिणाम भी दिख गया। मनसा को रति और परबतिया दो गिद्ध की तरह दिखे । एक दूसरा ही चेहरा उग आए थे उन दोनों के चेहरों पर । मनसा इधर-उधर देखने लगा था। करता भी क्या ? फिर फिट अपनी इच्छा से तो हो नहीं रहा था। डाक्टर की मर्जी, जो चाहे लिख दे । तभी मनसा की सोच को विराम लगा था। कारण परबतिया ने उसे ट्रेकर की ओर धकियाया था ।

और उस दिन मैं एक जरूरी फाइल में उलझा था। सामने कई मजदूर अपनी बात रखने के लिए आगा-पीछा,ठेला-ठाली हो रहे थे। यह देख एक खीझ-सी उठी थी मन में। कैसे -कैसे मजदूर हैं कोलियरी में! आकर बैठा नहीं कि माथे पर सवार। पियून पंचानन बाहर  एक नौजवान से बातें कर रहा था । उसकी दाढ़ी अपेक्षाकृत कुछ बढ़ी हुई थी। पर आंखों की चमक उतनी ही गहरी थी । मैंने दूर से ही देखा, वह रति था, मनसा का बड़ा बेटा । पंचानन ने कुछ दिन पहले बताया था कि मनसा अब इस दुनिया में नहीं रहा ।

कई दिनों की अफवाह और मनसा को लेकर टुकड़ों -टुकड़ों में मिल रही खबरों के बाद आज उसका मृत्यु प्रमाण -पत्र भी मेरी टेबुल पर पड़ा था। पर पता नहीं क्यों यह मृत्यु प्रमाण- पत्र मुझे एक साज़िश प्रमाण पत्र सा लग रहा था ।
कभी मैं मृत्यु प्रमाण-पत्र को देखता, कभी सामने खड़े रति को। थाने से मिली मृत्यु प्रमाण-पत्र के आधार पर ग्राम सेवक के द्वारा " फार्म "टेन निर्गत किया गया था और दोनों की ही छाया-प्रतियां दरखास्त के साथ अटैच थीं । एक पल के
लिए मेरी आंखों के सामने मनसा का चेहरा उभर आया, वहीं रति का चेहरा पल -पल बदल रहा था-गिरगिट की तरह ! मैंने

भी गहरे भाव से कहीं से महसूस किया था मनसा की मृत्यु को,क्षण भर के लिए ही सही ।

"कब उसका क्रिया-कर्म है ..?" उनसे पूछा था ।
"कल ही दस कर्मा है..!" रति ने हकलाते हुए कहा था ।
"बारहवां भी करोगे ही ..?"फिर पूछा था।
"नहीं..!"उसका जवाब था।
" ठीक है, तुम जाओ।"आगे और पूछना जरूरी नहीं समझा
था ।

मनसा मर गया ? पर कहां ? और कैसे ? न मैंने रति से पूछा और न उसने बताया,पर उत्तर तो चाहिए ही था। तभी कैंटीन में चेतो घटवार मिल गया। मनसा का पड़ोसी। आलूचोप खा रहा था । उसी ने बताया था कि थाने से मिली
लाश काफी क्षत-विक्षत और कुचली हुई थी। लाश मनसा की भी हो सकती थी, और किसी और की भी। लाश ऐसी हालत में थी कि उसका सही-सही पता करना, उतना ही मुश्किल था। सुनने में आया था कि लाश के कपड़े मैले-कुचैले और फटे हुए थे। वह हर तरह से मलबे से निकाली लाश की तरह लग रही थी ‌‌ फिर भी थानेदार ने कहा था कि लाश मनसा की है, ले जाकर जला दो । पर कुछ प्रश्न थे जो अब भी अनुत्तरित थे- क्या गांव के मुखिया का भी यही कहना है ? मनसा के घरवाले क्या कहते हैं ? 

इस दुर्घटना की पूरी जानकारी किसी के पास नहीं थी। इन सबसे अलग रति खुश था ।बाप की जगह नौकरी उसे मिलने जा रही थी। जिसे प्राप्त करना उसका अंतिम लक्ष्य था । वहीं मुरली नायक खुश था कि उसका पैसा रति के काम में
खर्च हो रहा था। वह अच्छी तरह जानता था कि नौकरी लग जाने के बाद रति से सूद कई गुना वसूल लेगा वह। इस क्षेत्र में इस तरह के रोजगार करने वालों की कमी नहीं थी।

रति के काम में पंख लग गया और उसकी नौकरी वाला पेपर अब उड़ रहा था । और साथ में उड़ रहे थे ऑफिस के बड़ा बाबू - मनसुख कंगाडी ! एक दिन हवा कुछ तेज़ हुई, तो बड़ा साहब को लिए बड़ा बाबू उड़ गए मनसा के गांव "केस सही है या नहीं "की जांच करने । लौटे तो दोनों बहुत खुश दिखे। दूसरे दिन वही चेतो ने बताया कि कल दोपहर को मुरली नायक के घर में जम कर मुर्गा-दारू चला ।

महीना दिन बाद कहीं से पता चला कि रति को बाप की जगह नौकरी मिल गयी । सुनकर कोई हैरत नहीं हुई। हां, दुःख जरूर हुआ ।

बड़ी देर तक मनसा-प्रकरण पर सोचता रहा। सर दुखने लगा तो उठकर कैंटीन चला गया। संयोग से वहीं फिर चेतो घटवार मिल गया। मैंने पूछा"चेतो, क्या सचमुच रति को" ज्वाइनिंग लेटर "मिल गया ?"

उसने कहा" हां, मिल गया, और आज उसी खुशी में रति पूरे गांव वालों को सही- भात, खिला रहा है..।"

"क्या कहा, सही-भात ! यह सही-भात क्या है भाई ?"मुझे चेतो की इस नयी बात पर हंसी आ गई" भोज-भात,बहू- भात, और जात - भात भी हमने सुना था, लेकिन यह सही- भात, कभी नहीं सुना था..!"

"सही-भात,का मतलब सही-भात ! अर्थात मनसा मर गया यह सही है और उसकी जगह रति को नौकरी देकर कम्पनी ने कोई ग़लत नहीं किया - सही है..!"

" बहुत खूब ! पर यह सुझाव किसका था ? मेरा मतलब सही -भात खिलाने की आइडिया किसकी थी ?"

"मुखिया जी की ..!" 

"लगता है, मुखिया जी को कोई मोटा माल हाथ लगा है ।
"
" हां, दस हजार का हल्ला है, गांव में..!"

"और गांव वालों को क्या मिला..?"

"गांव के शिव मंदिर की ढलाई में बीस बोरी सीमेंट देने की बात है..!"

और विचित्र संयोग यह था कि " सही-भात "खाने के दूसरे दिन मनसा गांव पहुंचा, बूझे-बूझे और भारी मन से। कारण था कि गांव घुसने के पहले उसने हल्के धुंधलके में कुछ लोगों की बातें सुनी थीं। कोई कह रहा था" मानना होगा,कल रति ने
दम भर खिलाया लोगों को ..!"

" उसकी जिंदगी भी तो बन गयी, नहीं तो नौकरी कहां मिलती है अब इस तरह..!"

कहीं रति उसकी नौकरी लेने में सफल तो नहीं हो गया ? यदि ऐसा हुआ तो ? आन्तरिक उत्साह में बहुत तेज उसके बढ़ते कदमों की गति अचानक मन्द पड़ गयी । लगा वह किसी गहरी खाई में गिर गया है। नहीं, गिरा नहीं, बल्कि
गिरा दिया गया था। और यह खाई कोयले की खदानों वाली खाई से भी गहरी और खतरनाक थी । एक क्षण के लिए मनसा की आंखों के सामने अंधेरा छा गया ।

उसका जी चाहा कि वह उल्टे पांव ही लौट जाए । उसे याद हो आया कि जब वह गांव -घर के लिए चला था तो कितना खुश था। कटे हाथ का दुःख भी भूल गया था वह।बस मन में घर पहुंचने की प्रबल इच्छा थी और उसने चाहा था कि
जितनी जल्दी हो सके, वह घर पहुंच जाए । बाल-बच्चों विशेषकर पत्नी से मिलने की खाश ललक थी मन में,उस पत्नी से जिसे देखे बगैर कभी एक रात रहा नहीं जाता था। रति को भी बहुत चाहता था। एक बार वह बीमार पड़ा तो रात-रात भर मनसा ही जागता रहा था ।

और अब वह घर-परिवार से कितना निकट था, सिर्फ सौ-दो- सौ, गज की दूरी.. और वह है कि लौट जाना चाहता है। थोड़ी देर तक "हां, या न" की स्थिति में पड़ा रहा ।

अन्ततः मनसा ने सोच लिया। सामान उठाकर वह पुनः चल पड़ा -घर की ओर। सामान के नाम पर था ही क्या ?

अस्पताल से मिला एक पुराना कम्बल, जिसे उसने कन्धे पर डाल लिया और लाठी को मजबूती के साथ पकड़ गांव में घुस गया " ठक -ठक-ठक "करती लाठी की आवाज सुन, गली में कदम रखते ही कुत्तों ने मिलकर उसका स्वागत किया।

यकायक उसका जबड़ा सख्त हो उठा था । लाठी उठा कर उसने सामने आये कुत्ते पर एक जोरदार प्रहार किया। अब सामने कोई दिखाई नहीं दे रहा था ।

मनसा ने अपने घर के अगल-बगल एक नजर देखा, फिर घर के पिछवाड़े की ओर चला गया। उसने किवाड़ को धीरे से खटखटाया। दरवाजा अन्दर से बन्द था। पहले तो मन में मधुर कल्पना उठी,पर भीतर से कोई जवाब नहीं मिला, तो
उसने जोर से सिकरी खटखटायी। यूं लगा जैसे कुत्तों पर का आक्रोश पुनः उसके अन्दर उत्पन्न हो गया था।

तभी अन्दर से खाट चरमराने और फुसफुसाने की आवाज सुन उसके कान खड़े हो गये । इतने में दरवाजा आहिस्ता से खुला और एक आदमी घर से बाहर की ओर लपका। मनसा ने लफा कर एक जोरदार लाठी उस पर दे मारी, " बाप रे,..मरा..!"की चीख के साथ वह पिछवाड़े की ओर भागा । तभी -"कौन है..?" के प्रश्न के साथ दोनों किवाड़ खोल परबतिया बाहर निकली । उजियारी रात में सामने मनसा को देख वह जड़ हो गयी, मानो किसी भूत या प्रेत-आत्मा से भेंट हो गयी हो ।उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। वह मूरत बनी वहीं जम गयी थी-चुपचाप ।

तभी भीतर दूसरे कमरे से रति की आवाज आयी-"कौन है मां..?"

"कितना अच्छा सपना देख रही थी मैं..!" बेटी कुनमुनाते हुए निकली ।

"कहां, कहां से आ जाते है लोग, दूसरों की नींद खराब करने..।"छोटा बेटा कुछ ज्यादा ही नाराज़ दिखा।

अगले ही क्षण मनसा का पूरा परिवार आंगन में खड़ा था। सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं थीं। जहां रति बाप से नजरें नहीं मिला पा रहा था, वहीं बर्फ बनी परबतिया को लगा कि वह अब घर विहिन हो गयी है। इस घर में उसके लिए
अब कोई जगह नहीं बची है । मनसा ने बेटे को हिकारत भरी नजरों से देखा और कहा -"ट्रेकर क्या पलटी, तुमने मुझे मरा ही समझ लिया और षडयंत्र रच लाश बना तुम सबने मुझे ठिकाने भी लगा दिया। लेकिन मैं बच गया ..!" फिर उसने
भरपूर नजरों से परबतिया की ओर देखा और एक निर्णायक चीख सी उभरी उसके गले से - "अभी जिंदा हूं मैं !"

 श्यामल बिहारी महतो

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