आशांति में शांति का महानायक स्वामी विवेकानंद

लोकतंत्र में जाति और धर्म के साम्राज्य का सपना देखने वाली ये संकीर्ण राजनीति जब विवेकानंद और महात्मा गांधी का छल-बल से अपनी राजनीति में समायोजन करती है तो हमें लगता है कि जिनका खुद का इस आजाद देश के निर्माण में कोई योगदान नहीं है। वे सभी अब विवेकानंद, गांधी, सुभाषचंद्र बोस, पटेल, अंबेडकर और भगत सिंह की परम्परा और संघर्षों का मुखौटा लगाकर अपनी धर्मांधता और जड़ता को छिपा रहे हैं। क्योंकि 1902 और 2025 के भारत का अंतर भी हमें देखना चाहिए।

Mar 30, 2025 - 15:18
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आशांति में शांति का महानायक स्वामी विवेकानंद
Swami Vivekananda, the great hero of peace in Ashanti
 विवेकानंद को मैं गुलाम भारत के नव जागरण का स्वर मानता हूं और जीवन की विभिन्न चुनौतियों के बीच पढ़ता समझता रहता हूं। याद करें, विवेकानंद बनने के पहले नरेंद्र नाथ का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उन्नीसवीं सदी का ये समय भारत में पुनरुत्थान का युग माना जाता है क्योंकि तब हजारों साल की गुलामी के कारण भारतवासियों के जीवन में जड़ता, गरीबी, स्वार्थपरकता, अशिक्षा तथा जाति भेद और धर्म पराभाव को लेकर अति प्रचार से, समाज में एक-दूसरे के प्रति गहरी घृणा और अलगाव व्याप्त था। तब बंगाल में सबसे पहले समाज सुधारक राजाराम मोहन राय और फिर ईश्वर चन्द्र विद्या सागर, रामकृष्ण परमहंस, देवेन्द्र नाथ ठाकुर, बंकिमचन्द्र चटर्जी जैसी विभूतियां भारत को उसका खोया गौरव दिलाने के लिए सक्रिय थीं। इनमें कुछ लोगों ने शिक्षा प्रसार के माध्यम से समाज सुधार की अलख जगाई तो अनेक लोगों ने धर्म और जाति के वैदिक और पौराणिक गौरव को जगाकर भारत को उठाने और जगाने की बात की। इस तरह सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण तब गुलाम भारत के विभिन्न अंचलों और क्षेत्रों में सक्रिय था। बाल गंगाधर तिलक का गणेशोत्सव आयोजन भी इसी तरह का गुलामी के विरुद्ध, तब धर्म, एकता और हिंदू जागरण का आधार था।
  बहरहाल 19वीं और 20 वीं शताब्दी का ये इतिहास, विवेकानंद को मूलत, हिंदू जाति और धर्म गौरव का अग्रदूत ही मानता है तथा वैदिक समाज की पुनर्स्थापना का वैभव भी बताया है। लेकिन हमारा मानना है कि वीर सावरकर और संघ परिवार के हिंदुत्व और सावरकर और विवेकानंद के हिंदुत्व में रात दिन का फर्क है। क्योंकि विवेकानंद किसी भी प्रकार की धर्मांधता, संकीर्णता और कट्टरता के खिलाफ थे और सदैव विश्व धर्म के आदर्श की खोज किया करते थे। उनके जीवन में करुणा और मानवता प्रमुख थी। किंतु भारत में अंग्रेजों के जाने से नवजागरण की एक नई धारा 1935 से ही (राष्ट्रीय स्वयंसेवक-संघ) हिंदुत्व के पुनर्जागरण में जुटी है तथा आज लोकतंत्र की सत्ता और व्यवस्था पर आसीन भी है। परिणाम ये हुआ है कि जो लोग 1947 की आजादी के किसी संग्राम में शामिल नहीं थे अचानक हिंदुत्व की उदारवादी चिंतन परम्परा पर अपना एकाधिकार जताते हुए स्वामी विवेकानंद को भी अपना वैदिक ऋषि घोषित कर उन्हें युवा भारत का आदर्श बताते हुए उन्हें अपना फिलाॅस्फर और गाइड स्थापित कर रहे हैं।
लोकतंत्र में जाति और धर्म के साम्राज्य का सपना देखने वाली ये संकीर्ण राजनीति जब विवेकानंद और महात्मा गांधी का छल-बल से अपनी राजनीति में समायोजन करती है तो हमें लगता है कि जिनका खुद का इस आजाद देश के निर्माण में कोई योगदान नहीं है। वे सभी अब विवेकानंद, गांधी, सुभाषचंद्र बोस, पटेल, अंबेडकर और भगत सिंह की परम्परा और संघर्षों का मुखौटा लगाकर अपनी धर्मांधता और जड़ता को छिपा रहे हैं। क्योंकि 1902 और 2025 के भारत का अंतर भी हमें देखना चाहिए।
 इधर भारत में विवेकानंद के 1893 की विश्व धर्म संसद के उद्बोधन पर 131 साल बाद हमारी राष्ट्रवादी सरकार बहुत मेहरबान है और ये कह रही है कि विवेकानंद तो हमारे कुल गोत्र के हैं तथा हिंदुओं को उनके ज्ञान मार्ग पर चलना चाहिए। लेकिन हमारा अनुरोध है कि विवेकानंद का शिकागो का संदेश फिर से पढ़ें। उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो, का संदेश देने वाले विवेकानंद कहते हैं कि मुझे गर्व है कि मैं ऐसे धर्म से हूं जिसमें संसार को सहनशीलता और सार्वभौमिक सत्य का पाठ पढ़ाया। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् सभी धर्मों को सच्चा मानकर स्कीवार करते हैं।
महात्मा गांधी, अंबेडकर, विवेकानंद, भगतसिंह, सरदार पटेल की वर्तमान की चुनावी हिंदू धु्रवीकरण की राष्ट्रवादी राजनीति में दुर्दशा और दुरुपयोग देखकर हमें लगता है कि यदि कोई विवेकानंद को मानता है तो फिर जेहाद और गौरक्षा के नाम पर मौत, अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकारों को क्यों कुचला जा रहा है? दलितों और अल्पसंख्यकों को धर्म और जाति के नरक में क्यों धकेला जा रहा है?
हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि विवेकानंद (1863-1902) का भारतीय समाज अब 21वीं शताब्दी की उपलब्धियों और शिक्षा विकास से लैस है और उसे देशभक्त बनने के लिए कोई वंदे मातरम् का गाना जरूरी नहीं है। अंग्रेज भी जा चुके हैं और भारत भी हजारों साल की गुलामी को काटकर लोकतांत्रिक गणराज्य हो चुका है। ऐसे में, 39 साल के विवेकानंद का जीवन संदेश 76 साल का स्वतंत्र भारत समझता है। अतः अब नए सिरे से कट्टर हिंदू राष्ट्रवाद के प्रचारक, कृपया विवेकानंद के मानव धर्म और सनातन हिंदुत्व की उदारता को धोखा न दें।
  इसलिए अब विवेकानंद को अपनी संकीर्ण चुनावी हिंदुत्व की सम्पूर्णता में न घसीटें क्योंकि हम अपने महापुरुषों की गलत व्याख्या करने में माहिर हैं। यदि किसी हिंदुत्व को अपनी उदारता और सहिष्णुता पर भरोसा है तो उसे सबसे पहले बताना चाहिए कि सावरकर, विवेकानंद और महात्मा गांधी में क्या समानता है? और संघ परिवार के पाठ्यक्रम में उदार हिंदुत्व का कोई स्थान क्यों नहीं है। आखिर इस्लाम और ईसाइयों से हमारा क्या झगड़ा है? इसीलिए 1893 में शिकागो अमरीका में आयोजित विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘‘ सांप्रदायिकता, कट्टरता और उन्हीं की भयानक उपज धर्मांधता ने बहुत समय से इस सुंदर पृथ्वी को ग्रस रखा है। उन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है, कितनी ही बार उसे मानव रक्त से सराबोर कर दिया है, सभ्यता को नष्ट किया है और समूचे राष्ट्रों को निराशा के गर्त में धकेल दिया है। यदि ये राक्षसी कृत्य नहीं किए जाते तो मानव समाज उससे बहुत अधिक विकसित होता, जितना वह आज है। परंतु उनका अंतकाल आ गया है, और मुझे पूरी आशा है कि इस सम्मेलन के सम्मान में सुबह जो घंटानाद हुआ था, वह सभी प्रकार के कट्टरपन, सभी प्रकार के अत्याचारों, चाहे वे तलवार के जरिए हों या कलम के-और व्यक्तियों, जो एक उद्देश्य के लिए अग्रसर हैं, के बीच सभी प्रकार की दुर्भावनाओं के लिए मृत्यु का जय घोष बन जाएगा।‘‘ (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं)

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