Amrita Pritam: A Literary Icon of Indian Feminism | विद्रोही तेवर की लेखिका : अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम की आत्मकथा `रशीदी टिकट' के अनुसार प्रीतम सिंह से तलाक के बाद कवि साहिर लुधियानवी के साथ उनकी नजदीकियां बढ़ गई, लेकिन फिर जब साहिर की जिन्दगी में गायिका सुधा मल्होत्रा आ गई तो उनक वह संबंध जीवन की दौड़ में पीछे छूट गया। उसी दौरान अमृता प्रीतम की मुलाकात आर्टिस्ट और लेखक इमरोज से हुई जिसके साथ उन्होंने अपना बाकी जीवन व्यतीत किया। अमृता जी की प्रेम कहानी उनके जीवन पर आधारित विभिन्न घटनाओं और वास्तविकताओं पर आधारित है। अमृता इमरोज लव स्टोरी नाम की एक किताब भी लिखी गयी है।

Sep 8, 2024 - 21:12
Sep 8, 2024 - 21:27
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Amrita Pritam: A Literary Icon of Indian Feminism |  विद्रोही  तेवर की लेखिका : अमृता प्रीतम
Amrita Pritam: A Literary Icon of Indian Feminism
 Amrita Pritam: A Literary Icon of Indian Feminism : सामाजिक  मान्यताओं के प्रति विद्रोह,पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में स्त्री की स्वायत्तता को कुचलने की प्रथा से विद्रोह, प्रेम जैसी भावनाओं को पुरूषों  के एकाधिकार में सीमित कर दिए जाने की परंपरा के प्रति विद्रोह-इन विद्रोही तेवरों से ही जिनके व्यक्तित्व का निर्माण होता है, उस मशहूर शख्सियत का नाम साहित्य जगत में अमृता प्रीतम है। अमृता के लिए लेखन व्यक्तित्व की स्वायत्तता का मसला था, जिसके लिए वह कोई भी कीमत चुकाने लिए तैयार थी।
उनके विद्रोही तेवर की झलक उनके इस कथन में महसूस  कीजिए- `सभ्यता का युग तब आएगा जब औरत की मर्जी के बिना कोई  औरत के जिस्म को हाथ नहीं लगाएगा।' आगे वे फिर लिखती हैं-स्त्री की शक्ति से इन्कार करने वाला आदमी स्वयं की अवचेतना से इन्कार करता है।' 
प्रख्यात लेखिका दीपाली अग्रवाल लिखती है- `प्रीतम की किताब के सफहों की धारियाँ नारीवाद को वो आधार है जिस पर लिखे हर दर्फ से क्रांति की महक आती है। अमृता ने अपने जहन को सिर्फ कागजों पर ही नहीं उतारा बल्कि उसे शब्द-दर-शब्द जिया भी। मुखर कलम के साथ वह नारी स्वतंत्रता और स्वायत्तता का बेड़ा उन्होंने लगी। Amrita Pritam एक लेखक नहीं बल्कि नारी-जीवन की अवधारणा का एक मुकम्मल उदाहरण है। अमृता अपनी जिन्दगी में बेहद खुश रही, क्रांतिकारी रही और कहती रही- मैं सारी जिन्दगी जो भी सोचती और लिखती रही,वो सब देवताओं को जगाने को कोशिश थी, उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं।' फिर वह कहती है- `कहानी लिखने वाला बड़ा नहीं होता, बड़ा वह है  जिसने कहानी अपने जिस्म पर झेली है।'
सचमुच उनकी कलम से क्रांति जन्म लेती थी। क्रांतिकारी विचारों और अभिव्यक्ति की ताकत ने उन्हें नारीवाद (इास्ग्हग्ेस्) से बहुत पहले नारीवादी (इास्ग्हग्ेू) के रूप में देखने पर मजबूर किया। एक साहित्यकार लिखते हैं-
Amrita Pritam के सभी उपन्यास समाज में स्त्री की गरिमा को समझने और उसकी चुनौतियों के पक्ष में बोलने के लिए मजबूर करते हैं।
उपन्यासों जैसे- `एक थी सारा',`कुटकी सड़क', `उन्चास दिन',`पिंजर' में अमृता की कलम ने मानो महिला किरदारों से बात कर, बड़े सलीके से उनकी आवाज को जगह दी'..
महिला और पुरुष के रिश्ते पर अमृता ने बेबाक लिखा -`मर्द ने औरत के साथ अभी तक सोना ही सीखा है, जागना नहीं।इसलिए मर्द और  औरत का रिश्ता उलझन का शिकार रहता है।'
महिलाओं के मन में उलझे ख्यालों और बाहरी कैद की परेशानियों, लगभग  उनके सभी लेखों में दिखाई देती हैं।
एक साहित्यकार और समालोचक लिखते हैं- `अमृता के गुजर जाने के बाद भी किसी महान लेखक की तरह उनकी विरासत, विचार और  आवाज जीवित है जो आज के फेमिनिस्ट लेखकों के लिए प्रेरणा बने हुए  हैं।'
अमृता प्रीतम पंजाबी की सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। इन्हें पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर १०० पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा `रसीदी टिकट' भी शामिल है.
१९५६ में काव्य संग्रह `सुनेहदे' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। इसके साथ ही वह पहली पंजाबी महिला थी, जिन्हें वर्ष १९६९ में पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया गया था। इनकी महत्वपूर्ण  रचनाएं अनेक देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं।
इन्हें कई अन्य महत्वपूर्ण पुरस्कारों से नवाजा गया। १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार दिया गया। १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार (अन्तरराष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च  साहित्यिक पुरस्कार `कागज ते कैनवास' कविता संग्रह के लिए ज्ञानपी' पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष २००४ में पद्म विभूषण से सम्मानित  किया गया।  अमृता प्रीतम का जन्म ३१ अगस्त १९१९ को गुजरांवाला, पंजाब (अविभाजित भारत) में हुआ। इनके पिता का नाम करतार सिंह  और माता का नाम राज बीबी था। १६ वर्ष  की आयु में ही इनका विवाह  लाहौर  के कारोबारी `प्रीतम सिंह' से हो गया।  अमृता के नाम के साथ पति का नाम `प्रीतम' हमेशा के लिए  जुड़ गया जिसे उन्होंने कभी नहीं बदला।
हालाँकि १९६० में इनका प्रीतम सिंह के साथ तलाक हो गया। इन्हें नवराज क्वात्रा और कांडला नामक दो संतान हुई। १९४७ के भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय अमृता प्रीतम लाहौर से देहरादून आ गई। फिर कुछ समय बाद दिल्ली आ गई। यहाँ अमृता प्रीतम ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली केन्द्र से जुड़ गई। उनपर विभाजन का गहरा असर पड़ा। इस दर्दनाक मंजर को देखने के बाद अपनी कविता `अज्ज आखाँ वारिस  शाह नूँ' लिखी लेखक खुशवंत सिंह जिन्होंने इस कविता का अंग्रेजी में अनुवाद किया था, एक जगह लिखते हैं कि `उन चंद पंक्तियों ने अमृता प्रीतम को भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में लोकप्रिय और अमर बना दिया था।
Amrita Pritam की आत्मकथा `रशीदी टिकट' के अनुसार प्रीतम सिंह से तलाक के बाद कवि साहिर लुधियानवी के साथ उनकी नजदीकियां बढ़ गई, लेकिन फिर जब साहिर की जिन्दगी में गायिका सुधा मल्होत्रा आ गई तो उनक वह संबंध जीवन की दौड़ में पीछे छूट गया। उसी दौरान अमृता प्रीतम की मुलाकात आर्टिस्ट और लेखक इमरोज से हुई जिसके साथ  उन्होंने अपना बाकी जीवन व्यतीत किया।  अमृता जी की प्रेम कहानी उनके जीवन पर आधारित विभिन्न घटनाओं और वास्तविकताओं पर आधारित है। अमृता इमरोज  लव स्टोरी  नाम की एक किताब भी लिखी गयी है।
अमृता प्रीतम के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने ही लिव-इन-रिलेशनशिप की शुरूआत की थी। काफी लम्बी बिमारी के चलते ३१ अक्टूबर २००५ को ८६ साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।
प्रसिद्ध साहित्यकार और समालोचक अदिति भारद्वाज ने लिखा है- `अमृता प्रीतम  के साहित्य में `प्रेम' की एक केन्द्रीय  भूमिका रही है। यहाँ पर प्रेम एक संवेदना है जो सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में आया है। पिंजर की `पूरो' जो विभाजन के दौरान हुई हिंसा का साक्षात मानवीकरण थी, राशिद द्वारा अपहृत और उत्पीड़ित होने के बाद भी उसी राशिद के प्रेम के बदले पाकिस्तान में ही बने का निर्णय करती है और अन्ततः प्रेम को ही सर्वोपरि मानवीय मूल्य सिद्ध करती है जो तमाम नफरत और हिंसा के बाद  भी शेष रहता है।'
अब उनकी उस कालजयी कृति जिसपर उन्हें ज्ञानपी' पुरस्कार मिला, उसकी चर्चा अनिवार्य और प्रसंगानुकूल है। अमृता प्रीतम की सृजन -प्रतिभा को नारी-सुलभ कोमलता और संवेदनशीलता के साथ-साथ मर्म- भेदिनी कला-दृष्टि का सहज वरदान प्राप्त है। उनको रचनाकार की यह विशिष्टता उन्हें एक ऐसा व्यक्तित्व प्रदान करती है जो तटस्थ भी है और आत्मीय भी। निजता की भावना से उनकी कृतियाँ सराबोर है। भारतीय ज्ञानपी' पुरस्कार से सम्मानित `कागज और कैनवास' में अमृता जी की उत्तरकालीन प्रतिनिधि कविताएं संग्रहित हैं। प्रेम और यौवन के धूप-छाँही रंगों में अतृप्त का रस घोलकर उन्होंने जिस उच्छल काव्य-मदिरा का आस्वाद अपने पा'कों को पहले कराया था, वह इन कविताओं तक आते-आते पर्याप्त संयमित हो गया है और सामाजिक यथार्थ के शिला-खण्डों से टकराते युग-मानव की व्यथा-कथा ही यहाँ मुख्य रूप से मुखरित हैं। `कागज और कैनवास' से कुछ कविताओं को यहाँ उद्धृत किया जा रहा है जो द्रष्टव्य हैं। 
`एक मुलाकात' शीर्षक कविता को पढ़िए-
`कई वर्षों के बाद अचानक एक मुलाकात 
हम दोनों के प्राण एक नज्म की तरह काँपे
सामने एक पूरी रात थी
पर आधी नज्म एक कोने में सिमटी रही
और आधी नज्म एक कोने में बै'ी रही
फिर सुबह सवेरे
हम कागज के फटे टुकड़े की तरह मिले
मैनें हाथ में उसका हाथ लिया
उसने अपनी बाँह में मेरी बाँह डाली
और हम दोनों एक सेंसर की तरह हँसे
और कागज को एक 'ंडे मेज पर रखकर
उस सारी नज्म पर एक लकीर फेर दी।'
दूसरी कविता `एक घटना' को पढ़िए-
तेरी यादें
बहुत दिन बीते जलावतन  हुई 
जीती की मरी-कुछ पता नहीं
सिर्फ एक बार-एक घटना घटी
ख्यालों की रात बड़ी गहरी थी
कि पत्ता भी हिले
कि बरसों के कान चौकते। 
फिर तीन बार लगा
जैसे कोई छाती के द्वार खटखटाये 
और दबे पांव छत पर चढ़ता कोई
और नाखूनों से पिछली दीवार को कुरेदता 
तीन बार उ'कर मैनें साँकल टटोली
अंधेरे को जैसे एक गर्म पीड़ा थी
वह कभी कुछ कहता और कभी चुप होता
ज्यों अपनी आवाज को दाँतों मे दबाता 
फिर जीती जागती एक चीज
और जीती जागती आवाज। 
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वह पीछे को लौटी
पर जाने से पहले कुछ पास आई
और मेरे वजूद  को एक बार  छुआ
ऐसे,
जैसे धीरे से कोई वतन की मिट्टी को छूता है।'
इसी तरह `विश्वास' और `सिगरेट'
शीर्षक कविता भी रूह को स्पर्श करती हैं।
साहित्यकार अदिति भारद्वाज लिखती हैं-`अमृता के उपन्यासों जैसे 
एकता,कामिनी, अक्क-दा-बूटा ,
ऐनी, डॉक्टर देव,एक खाली जगह, 
इन सबमें अमृता ने स्त्रियों का एक ऐसा संसार दिखलाया है जहाँ पर वह एक ऐसे समाज में अपने प्रेम को मान्यता दिलवाने के लिए प्रतिबद्ध दिखती हैं, जहाँ पर प्रेम और यौन चेतना जैसी भावनाएं सिर्फ  पुरूषों के अधिकार में है।
इसीलिए अमृता की कहानियाँ हो या उपन्यास, उनकी स्त्री पात्र, इस सामाजिक व्यवस्था के प्रतिरोध में खड़ी नजर आती है। और वास्तव में देखा जाए तो अमृता प्रीतम की जिन्दगी और उनका साहित्य, इश्क और इंसानियत की इबारत से बढ़कर कुछ था भी तो नहीं।'

– अरूण कुमार यादव
मुंगेर, बिहार 

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