अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' - जनकल्याण को समर्पित कवि
उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ के, काली मिट्टी के पात्र बनाने के लिए प्रसिद्द गाँव, निज़ामाबाद में पिता पंडित भोलानाथ उपाध्याय तथा माता रुक्मणी देवी के घर में १५ अप्रैल १८६५ को अयोध्या सिंह ने जन्म लिया। इनके परिवार के एक पूर्वज पंडित गुरुदयाल उपाध्याय द्वारा सिख धर्म की दीक्षा लेने के कारण इनके परिवार तथा इन्हें `सिंह' उपनाम प्राप्त हुआ।

अयोध्या सिंह उपाध्याय `हरिऔध' (१८६५-१९४७) हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवि और लेखक थे। वे खड़ी बोली हिंदी में कविता लिखने वाले शुरुआती कवियों में से एक थे और उन्होंने हिंदी कविता को एक नई दिशा दी। एक तरफ भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियाँ तेज हुए जा रहीं थीं, दूसरी तरफ भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेम का बिगुल सम्पूर्ण देश में बजने लगा था, तीसरी तरफ आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसाइटी इत्यादि द्वारा कुरीतियों तथा अन्धविश्वास को जड़ से मिटाने हेतु समाज के नवीनीकरण की मुहीम प्रारम्भ हो चुकी थी और चौथी तरफ जागरुक साहित्यकार अपनी लेखनी के जरिये समाज में क्रांति के बीज बो रहे थे। ऐसे ही अत्यंत उथल पुथल भरे माहौल में साल १८६५ में अयोध्या सिंह उपाध्याय का जन्म हुआ। उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ के, काली मिट्टी के पात्र बनाने के लिए प्रसिद्द गाँव, निज़ामाबाद में पिता पंडित भोलानाथ उपाध्याय तथा माता रुक्मणी देवी के घर में १५ अप्रैल १८६५ को अयोध्या सिंह ने जन्म लिया। इनके परिवार के एक पूर्वज पंडित गुरुदयाल उपाध्याय द्वारा सिख धर्म की दीक्षा लेने के कारण इनके परिवार तथा इन्हें `सिंह' उपनाम प्राप्त हुआ। इन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा घर में ही प्राप्त हुई। इनकी माता धार्मिक कर्म में प्रवृत्त रहती थीं। इनके चाचा ब्रह्मदत्त को उच्च कोटि का विद्वान तथा ज्योतिष शास्त्र का प्रकाण्ड पंडित माना जाता था। माता तथा चाचा के संरक्षण में बिताये बाल्यकाल के कारण उन्हें धार्मिक क्रियाकलापों में रुचि रही तथा संस्कृत भाषा के प्रति विशेष प्रेम जागृत हुआ। बाद में निज़ामाबाद में ही शिक्षा के दौरान प्रथम श्रेणी में मिडिल स्कूल उत्तीर्ण करने के कारण उन्हें छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। आगे की पढाई के लिए उन्होंने काशी के क्वींस कॉलेज में दाखिला लिया किन्तु स्वास्थ्य उपयुक्त न होने के कारण कुछ समय पश्चात् वे घर लौट आये और घर में रहकर ही उन्होंने संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी एवं फ़ारसी का अध्ययन किया।
१७ वर्ष की उम्र में साल १८८४ में इनका विवाह निर्मला कुमारी के साथ संपन्न हुआ। तत्पश्चात वे क़ानून की शिक्षा प्राप्त करने लगे और एक कानूनगो बन गए। वर्ष १९३२ में अवकाश ग्रहण करने तक वे इस पद पर कार्य करते रहे। इसके बाद कशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक प्राध्यापक के तौर पर अध्यापन कार्य भी किया। बाद में वे गाँव चले आए और साहित्य सेवा करते रहे। इस बीच अपने साहित्यिक योगदान के कारण १९२४ में उन्हें हिंदी साहित्य सम्मलेन का सभापित नियुक्त होने का भी अवसर प्राप्त हुआ।
लेखन एवं शैली -
बाल्यकाल से ही वे स्वतंत्रता आंदोलन के विषय में पढ़ते सुनते आये थे और देश में घटने वाली घटनाओं ने उनके मन मस्तिष्क में गहरा प्रभाव छोड़ा था। सामाजिक एवं राजनितिक उथल-पुथल ने उनकी साहित्यिक प्रतिभा को लिखने के लिए भरपूर उत्प्रेरित किया। लगभग पच्चीस वर्ष की आयु में वे लिखने और प्रकाशित होने लगे थे। शुरुआत में वे नाटक एवं उपन्यास लिखने को प्रेरित हुए। बाद में कविता लिखने की ओर अग्रसर हुए। इनका पहला नाटक `प्रद्युम्न विजय' साल १८९३ में प्रकाशित हुआ। साल १८९४ में `रुक्मिणी परिणय' नाटक प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष इनका प्रथम उपन्यास `प्रेमकांता' भी प्रकाशित हुआ। इसके अलावा दो अन्य उपन्यास, १८९९ में `ठेठ हिंदी का ठाठ' तथा १९०७ में `अधखिला फूल' नामक उपन्यास प्रकाशित हुए।
यह ऐसा दौर था जब ब्रज भाषा एवं अवधी भाषा में लेखन प्रचुरता से हो रहा था। अतः अयोध्या सिंह की प्रारम्भिक रचनाएँ ब्रज भाषा में मिलती हैं। किन्तु जल्दी ही इन्होंने साहित्य की मुख्य धारा में हो रहे भाषाई परिवर्तन को अनुभव किया और वे खड़ी बोली में लिखने लगे। इनकी काव्य रचना `रस कलश' पढ़ते हुए यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि वे ब्रज भाषा के विद्वान थे। उस काल में यह परिवर्तन केवल भाषा तक ही सीमित नहीं था बल्कि विचारों एवं रचना शैली के परिवर्तन को भी साध रहा था। तब तक लिखे जा रहे बनावटी एवं लुभावने काव्य से किसी का भला नहीं हो सकता, ऐसा विचार लेखकों को नई दिशा दिखा रहा था। अतः वे जीवन की सत्य घटनाओं के निरुपण की तरफ बढ़ने लगे थे। यही युग परिवर्तनकारी विचार अयोध्या सिंह के मस्तिष्क में भी सघन हुए जा रहा था और तब उन्होंने कृष्ण की ब्रह्म छवि से इतर एक महापुरुष के रुप में प्रस्तुत किया। ऐसा कृष्ण, जो मानव के प्रति जनकल्याण का आदर्श प्रस्तुत करता है और जो स्वयं दया, सेवा भावना और सदाचरण का उदाहरण देकर मनुष्यों को प्रेरित करता है। कृष्ण की लोक कल्याणकारी छवि रचने के पीछे स्वयं उनकी जनकल्याण की भावना भी इसमें निहित थी।
`प्रिय प्रवास' में कृष्ण को समाज कल्याणकारी नेता की छवि प्रदान कर उन्होंने उनकी पूर्वलिखित ब्रह्म छवि को निरस्त कर दिया। १९१४ में रचित इस प्रबंध काव्य को हिंदी भाषा का मील का पत्थर माना जाता है तथा यह खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है। पौराणिक विषय होते हुए भी यह प्रासंगिक मुद्दों को उठाने वाला काव्य ग्रन्थ है। श्री कृष्ण के जन्म से लेकर उनके गमन तक की घटनाओं को १७ सर्गों में लिखी गई उनकी इस कृति को `मंगलाप्रसाद पुरस्कार' प्राप्त हुआ। इसे अयोध्या सिंह ने संस्कृत काव्य शैली का प्रयोग करके लिखा है। कवि ने भिन्नतुकांत शैली काव्य रुप में इसे रचा है, जिसके बारे में वे अपने काव्य की भूमिका में स्वयं बताते हैं, साथ ही कहते हैं कि इस काव्य की भाषा संस्कृत-गर्भित है। अपनी भाषा के प्रयोग को लेकर काव्य की भूमिका में उन्होंने तर्क और उदहारण भी प्रस्तुत किए हैं। इसमें संस्कृत, प्राकृत इत्यादि भाषाओँ का समुचित विवेचन एवं तार्किक तुलना का सादृश्य भी प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं प्राकृत कोमल, कान्त और `मधुर होकर भी क्यों त्यक्त हुई? इसलिए कि सर्वसाधरण का संस्कार और हृदय उसके अनुकूल न रहा, इसलिए कि वह बोलचाल की भाषा से दूर जा पड़ी और बोधगम्य न रही। संस्कृत के शब्द बोलचाल की भाषा से और भी दूर पड़ गये थे; और वह भी बोधगम्य नहीं थे; किन्तु, धार्मिक-संस्कार ने उसके साथ सहानुभूति की, और इस सहानुभूति-जनित-हृदय-ममता ने उसको पुन: समादर का पान दिया। जिस प्रकार सोदाहरण विस्तृत तौर पर उन्होंने भूमिका लिखी है, अतः निश्चित ही इस भूमिका को पढ़ना अपने आप में हिंदी साहित्य के विविध काल खण्डों से गुजरते हुए हिंदी साहित्य की यात्रा के सम्पूर्ण सौपान चढ़ने जैसा है। इस भूमिका से यह भी पता चलता है कि अत्यंत गहन-सघन पठनीयता द्वारा ही कोई इतने अधिक उदहारण देने में सक्षम हो सकता है।
`प्रिय प्रवास' के बारे में कहा जाता है कि उनकी पत्नी के निधन उपरांत वे अपने आप को अकेला समझने लगे थे, उसी एकाकीपन में उन्होंने यह काव्य ग्रन्थ लिख कर पूरा किया। इसके बारे में वे लिखते हैं कि इस ग्रन्थ का प्रमुख विषय श्री कृष्णचन्द्र का मथुरा यात्रा है और इसी से इसका नाम प्रिय प्रवास रखा गया है, इसी के प्रथम सर्ग से पद्य का एक उदाहरण प्रस्तुत है -
जब हुए समवेत शनैः शनैः।
सकल गोप सधेनु समंडली।
तब चले ब्रज-भूषण को लिये।
अति अलंकृत-गोकुल-ग्राम को।।
इसी प्रकार उन्होंने `वैदेही वनवास' को आधुनिक युग की सरल हिंदी शैली का प्रयोग करके १९४० में लिखा है। सीता निर्वासन की कथा कहते करुण रस में रचित इस प्रबंध काव्य में १८ सर्ग हैं और इसे उन्होंने आम बोल चाल की भाषा में लिखा है। इसके सप्तदर्श सर्ग से एक उदाहरण प्रस्तुत है-
इसी पंथ की पथिका हैं जनकांगजा।।
उनका आश्रम का निवास सफलित हुआ।।
मिले अलौकिक-लाल हो गया लोक-हित।
कलुषित-जन-अपवाद काल-कवलित हुआ।।
अश्वमेध का अनुष्ठान हो चुका है।
नीति की कलिततम कलिकायें खिलेंगी।।
कृपा दिखा उत्सव में आयें आप भी।
वहाँ जनक-नन्दिनी आपको मिलेंगी।।
इनकी रचना शैली की विविधताओं में अन्य प्रमुख शैलियाँ हैं- `चुभते चौखदे' एवं `चोखे चौपदे' इन्होने उर्दू की मुहावरेदार शैली के प्रयोग से लिखा है। रस कलश को रीतिकालीन काव्य की अलंकृत शैली में लिखा है। इसके अलावा इनका एक विविध विषयों पर संकलित एक प्रमुख काव्य ग्रन्थ `पारिजात' १९३७ में प्रकाशित हुआ। अन्य काव्य रचनाओं में प्रमुख हैं- रस कलश, चुभते चौपदे, चोखे चौपदे आदि। बाल साहित्य में भी इनका अभूतपूर्व योगदान है। इनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ है- बाल विभव, फूल पत्ते, चंद्र खिलौना, बाल विलास, खेल तमाशा, उपदेश कुसुम इत्यादि। इनकी एक प्रसिद्द कविता जागो प्यारे है -
उठो लाल अब आँखे खोलो
पानी लाई हूँ मुँह धो लो
बीती रात कमल दल फूले
उनके ऊपर भंवरे डोले
चिड़िया चहक उठी पेड़ पर
बहने लगी हवा अति सुंदर
नभ में न्यारी लाली छाई
धरती ने प्यारी छवि पाई
भोर हुआ सूरज उग आया
जल में पड़ी सुनहरी छाया
ऐसा सुंदर समय न खोओ
मेरे प्यारे अब मत सोओ
सामाजिक कल्याण की अवधारणा अयोध्या सिंह को भी निरन्तर प्रगतिशील साहित्य रचने हेतु अभिप्रेरित करती रही। सामाजिक समस्याओं पर कुठाराघात करती साहित्यिक रचनाओं को भी समाज में बड़े चाव से पढ़ा जाता तथा उन्हें प्राथमिकता दी जाती। कहा जाता है कि द्विवेदी युग में साहित्यकारों में एक अद्भुत आत्मविश्वास जाग गया था।
राम कृष्ण के अलावा सामाजिक विषयों पर उन्होंने कविता लिखी। जिसमें वृद्ध विवाह, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, दलित समस्या, नारी समस्या, छुआछूत, ढोंगी साधु इत्यादि विषयों पर भी उनकी कलम खूब चली है। उनकी कविता में मार्मिक दृश्य भी उपस्थित होते हैं, वियोग तथा वात्सल्य का वर्णन भी दिखाई देता है और लोक सेवा की भावना का चित्रण प्रस्तुत करते हुए सामाजिक नवीनता लाने के प्रयोग भी निहित हैं। प्रकृति चित्रण भी प्रचुर मात्रा में किया है उन्होंने, ब्रज का दृश्य रचते हुए कृष्ण वियोग में ब्रज के वृक्ष भी रोते हुए दिखाए हैं। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि उनके रचना कर्म में विधाओं की विविधता भी है और नवीनता भी।
हरिऔध जी की भाषा पर अद्भुत पकड़ थी। वे संस्कृतनिष्ठ उच्च भाषा का प्रयोग भी करते थे और सरल आम बोल चाल की भाषा में अनोखे मुहावरों और शब्दों का प्रयोग भी अपने काव्य में करते थे। अपनी खड़ी बोली की कविताओं से उन्होंने सिद्ध किया कि ब्रज भाषा से अलग किसी बोली में भी सरसता एवं मधुरता का समावेश हो सकता है। एक श्रेष्ठ कवि होने के समस्त गुणों से ओतप्रोत वे द्विवेदी काल के प्रमुख कवि थे। उनकी लेखनगत विशेषताओं के कारण उनकी गिनती हिंदी के प्रमुख कवि, निबंधकार एवं सम्पादकों में की जाती है। स्वतंत्रता संग्राम के साक्षात् गवाह रहे अयोध्या स्िांह की देश की स्वतंत्रता देखने से पूर्व ही १६ मार्च, १९४७ को ७६ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
मुख्य जानकारी:
जन्म: १५ अप्रैल १८६५, निज़ामाबाद, आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश
मृत्यु: १६ मार्च १९४७
साहित्यिक विधाएँ: कविता, निबंध, उपन्यास
प्रमुख कृतियाँ:
काव्य: प्रिय प्रवास (महाकाव्य, जिसे मंगला प्रसाद पारितोषिक मिला)
उपन्यास: ठेठ हिंदी का ठाङ्ग
अन्य कृतियाँ: वैदेही वनवास, रसकलश, चोखे चौपदे आदि
साहित्यिक योगदान:
वे खड़ी बोली हिंदी कविता के प्रारंभिक निर्माता माने जाते हैं।
उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति, राष्ट्रभक्ति और धार्मिकता का अद्भुत समावेश देखने को मिलता है। प्रिय प्रवास को हिंदी साहित्य का पहला खड़ी बोली महाकाव्य माना जाता है। उनकी भाषा सरल, प्रवाहमयी और संस्कृतनिष्ठ थी, जिससे हिंदी कविता को एक नया आयाम मिला।
एक साहित्यिक युग संधि में जन्मे बालक ने तीन अलग अलग साहित्यिक युगों की यात्रा की। वह समय भारतेन्दु युग से होते हुए द्विवेदी युग की ओर अग्रसर था। द्विवेदी युग से छायावादी युग तक की उनकी साहित्य यात्रा में अनेक पड़ाव आए। जिसका प्रभाव उनकी रचनाओं में दिखाई देता है। अयोध्या सिंह उपाध्याय `हरिऔध' ने हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया और आज भी वे हिंदी कविता के आधार स्तंभों में गिने जाते हैं। प्रिय प्रवास की ही कुछ पंक्तियों से मैं इस आलेख को विराम देना चाहूंगी।
जैसा व्यापी विरह-दुख था गोप गोपांगना का।
वैसी ही थीं सदय-हृदया स्नेह ही मुर्ति राधा।
जैसी मोहावरित-ब्रज में तामसी-रात आई।
वैसे ही वे लसित उसमें कौमुदी के समा थीं।।
जो थीं कौमार-व्रत-निरता बालिकायें अनेकों।
वे भी पा के समय ब्रज में शान्ति विस्तारती थीं।
श्री राधा के हृदय-बल से दिव्य शिक्षा गुणों से।
वे भी छाया-सदृश उनकी वस्तुत: हो गई थीं।।
(पाठकों की जानकारी के लिए- किसी विशेष व्यक्ति की कथा को आरम्भ से अंत तक क्रमबद्ध तरीके से काव्य रुप में कहा जाए तो वह `प्रबंध काव्य' कहलाता है, इसमें कुछ अन्य गौण प्रसंग एवं कथाएँ भी दर्ज होती चलती हैं, जैसे रामचरितमानस एक प्रबंध काव्य है।)
पूजा अनिल
स्पेन
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