' मुंडा उलगुलान ' नारा के उन्नायक बिरसा मुंडा'

इसके लिए उन्होंने सबसे पहले 'बिरसाईत' नामक धर्म की स्थापना की। इसमें मुंडा समुदाय के लोग जब शामिल होने लगे तो अंग्रेज इसे धर्मांतरण गतिविधियों के खिलाफ विद्रोह मान बैठे और ये उनके लिए चुनौती बन गए। 

Mar 12, 2024 - 13:49
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' मुंडा उलगुलान ' नारा के उन्नायक बिरसा मुंडा'
Birsa munda

रानी का राज खत्म करो, हमारा साम्राज्य स्थापित करो' ( अबुआ राज एतेजनना, महारानी राज टुंडे जना) का नारा देने वाले तथा 'धरती आबा' के नाम से पुकारे जाने वाले बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875  में खूंटी जिला के उलीहातू गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सुनना मुंडा और माता का नाम करत मुंडा था। इनकी आरंभिक शिक्षा सल्गा गाँव में हुई। आगे की शिक्षा जर्मन मिशन स्कूल से प्राप्त करने के लिए ईसाई बन गये। इस मिशन स्कूल में शिक्षा लेते समय जब इन्हें पता चला कि अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से मिशन द्वारा आदिवासियों का धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है तो उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और पुनः अपने धर्म में वापस आ गये। यहीं से उनका अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन आरंभ हुआ जो कई क्षेत्रों के लिए विद्रोह बनकर उभरा। इसके बाद उनका बास्तबिक विद्रोह ज़मीन बचाने को लेकर आरंभ हुआ। उनके लिए तब तीन बातें महत्वपूर्ण हो गई-
1.जल, जंगल और ज़मीन तीनों की रक्षा करना। 
2. नारी की रक्षा करना एवं उन्हें सुरक्षा देना। 
3. अपने समाज और संस्कृति को बनाने रखना। 

इसके लिए उन्होंने सबसे पहले 'बिरसाईत' नामक धर्म की स्थापना की। इसमें मुंडा समुदाय के लोग जब शामिल होने लगे तो अंग्रेज इसे धर्मांतरण गतिविधियों के खिलाफ विद्रोह मान बैठे और ये उनके लिए चुनौती बन गए। 

पर असल आंदोलन 1894 से आरम्भ हुआ जब अंग्रेजों से लगान माफी के लिए सभी मुंडाओं को संगठित कर आंदोलन किया। जिस कारण 1895 में इन्हें गिरफ्तार कर दो साल के लिए हजारीबाग केन्द्रीय कारा में डाल दिया गया। दो साल की सजा के उपरांत बाहर आने पर उन्हें अहसास हो गया कि अपने समुदाय की सुरक्षा तथा उसके लिए जल, जंगल, ज़मीन की रक्षा के लिए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। और फिर 1897 में अपने 400 साथियों के साथ तीर-कमानों से खूंटी थाने में धावा बोल दिया। इनके समाज में तथा जंगलों में तीर-कमान सबसे कारगर और घातक हथियार माना जाता है। ये इसी हथियार से अपनी सुरक्षा भी करते हैं और लड़ाईयां भी लड़ते हैं। पौराणिक कथाओं में भी इस शस्त्र को युद्ध के श्रेष्ठ शस्त्र माना गया है। रामायण और महाभारत में भी युद्ध के यही शस्त्र थे। पर आदिवासी इसे सदा से अपना पूज्यनीय हथियार मानते आ रहें हैं। ये अपनी लड़ाईयां इसी से लड़ते हैं और इनसे जीतना मुश्किल होता है। इसी वजह से 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत जब अंग्रेजी सेना से हुई,तो अंग्रेजी सेना हार गई। फिर जनवरी 1900 में डोभबाड़ी संघर्ष हुआ जिसमें बहुत सारे बच्चे और औरतें मारी गई तब, जब बिरसा मुंडा अपनी जनसभा को संबोधित कर रहे थे।

बिरसा मुंडा का यह संबोधन झारखंड के आदिवासी समुदाय के जागरण के लिए एवं अंग्रेजी हुकूमत की नीति के विरुद्ध था। दरअसल उन्होंने भांप लिया था कि झारखंड और आदिवासी समाज को समस्याओं की ओर धकेला जा रहा है। इसलिए आदिवासियों की आजादी और आत्मनिर्भरता के लिए अंग्रेजों का प्रवेश, एक प्रकार से बाहरी आक्रमण था। इसलिए वे अंग्रेजों के खिलाफ अपने समाज को संगठित कर विद्रोह हेतु तैयार कर रहे थे। उनकी तैयारी सफल हो गई और उनके साथ लोग आकर विद्रोह करने लगे। देखा जाए तो बिरसा मुंडा ने अपने समाज को आवाज उठाने की राजनीति सीखाई।  

बिरसा मुंडा के इस तरह के संगठित विद्रोह से अंग्रेजों को लगने लगा कि जब तक बिरसा मुंडा जीवित है तब तक उनके खिलाफ विद्रोह होता रहेगा, वे कामयाब नहीं हो पायेंगे। एक तरफ भगत सिंह जैसे गरम दल के लोग और दूसरी तरफ ये आदिवासी समुदाय के बिरसा मुंडा। अंग्रेज परेशान होने लगे थे। इसलिए षड्यंत्र का सहारा लिया। जिस वजह से 3 फरवरी 1900 को चक्रधर पुर के जामकोकई जंगल से उठवाकर उसे गिरफ्तार कर लिया गया। ये जराई केला के रोगतों गाँव के सात मुंडा थे जिन्होंने 500 रूपये के लालच में सोते हुए बिरसा को खाट सहित बांधकर बंदगांव लाकर अंग्रेजों को सौंप दिया। 

बिरसा पर अदालत में मुकदमा चला और तीन साल की सजा हुई। अंग्रेजों को लगने लगा था कि इसका जेल से बाहर नकलना खतरे से कम नहीं। इसलिए उन्होंने जेल में ही धीमा जहर देना शुरू कर दिया जिससे 9 जून 1900 को मात्र 25 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने इसे स्वभाविक मृत्यु के रूप में प्रचारित किया इसलिए कि यदि यह बात फैल जाती तो आदिवासियों के गुस्से को रोक पाना उनके लिए संभव नहीं था। 

उक्त संदर्भ में रांची के उपायुक्त के अनुसार पत्र के माध्यम से 15 विभिन्न आपराधिक मामलों में 460 आदिवासियों को आरोपी बनाया गया था जिनमें से 63 को दोषी ठहराया गया था। 63 में से एक को मौत की सज़ा हुई, 39 को आजीवन कारावास, 23 को चौदह साल तक कैद की सज़ा सुनाई गई। उस जेल में बिरसा मुंडा सहित छ: और लोगों की मौतें हुई।

लेकिन बिरसा मुंडा की मौत आदिवासियों के लिए उनके भगवान की मौत थी। वे उन्हें भगवान... बिरसा भगवान बोलते थे। 

बिरसा मुंडा ने भी अन्य महापुरुषों की तरह नारा दिया था। जैसे महात्मा गॉंधी ने -'भारत छोड़ो', सुभाषचंद्र ने - 'जय हिंद' , भगत सिंह ने- ' इन्कलाब जिंदाबाद' उसी तरह बिरसा मुंडा ने 'उलगुलान' का नारा दिया। 'उलगुलान' का एक तो शाब्दिक अर्थ होता है-'महान क्रांति या महा विद्रोह ' दूसरा अर्थ ' जल, जंगल और जम़ीन के लिए हक़ की लड़ाई। इस तरह बिरसा मुंडा ने महान क्रांति के रूप में जल, जंगल और जम़ीन के लिए हक़ की लड़ाई लड़ी और उलगुलान के उन्नायक बने। उनके जनजाति समाज के किए गए कार्यों के लिए भारत सरकार के केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा 10 नवम्बर 2021 को आयोजित बैठक में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को याद करने के लिए बिरसा मुंडा की जयन्ती को ' जनजातीय गौरव दिवस' के रूप में मनाने की घोषणा की। और तब से 15 नवम्बर, बिरसा मुंडा की जयन्ती ' जनजातीय गौरव दिवस' के रुप में मनाया जाने लगा है।


 डॉ.अनुज प्रभात

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