आजादी के भूले-बिसरे नायक

खुदी राम बोस—आजादी के वीर योद्धा में खुदी राम बोस का नाम अमिट है, वे आजादी के लिए फांसी पर चढ़ने वाले भारत के सब से पहले शहीद हैं , जो मात्र 19 साल की उम्र में 11 अगस्त 1908 को फांसी पर चढ़ाए गये।

Mar 12, 2024 - 14:05
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आजादी के भूले-बिसरे नायक
Forgotten hero of freedom

देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इस आजादी के महोत्सव में कितने ही वीरों ने अपना
बलिदान दिया है, जब अंग्रज हुकूमत का जुल्मो जिल्लत का का राज था। तिलका मांझी और गंगू मेहतर को
घोड़े की पूँछ में बांध कर मीलों घसीटे जाने के बाद फांसी पर चढ़ाया गया, नीरा आर्य के स्तनों को काट
दिया।

आज देश को आजाद हुए आज 76 साल हो गए हैं, इस आजादी की लड़ाई में भारत के कोने-कोने से असंख्य
वीरों ने अपना तन-मन-धन सब न्योछावर किया है, लेकिन इतिहास में हर एक का नाम लिख पाना बहुत
कठिन था। फलतः कुछ ऐसे भी जांबाज थे जो इतिहास के पन्नों में नहीं लिखे जाने से आज गुमनाम से हो
गए हैं। आजादी के अमृत महोत्सव में हम अपने उन्हीं कुछ जाने-अनजाने और बिरसा दिए गए नायकों को
याद करने की कोशिश की करते हैं।

यह पूरा सच है कि तात्या टोपे और लक्ष्मी बाई की ही तरह सभी आजादी के दीवानों के दिलों में एक ही
समान जज्बा था ।

खुदी राम बोस—आजादी के वीर योद्धा में खुदी राम बोस का नाम अमिट है, वे आजादी के लिए फांसी पर
चढ़ने वाले भारत के सब से पहले शहीद हैं , जो मात्र 19 साल की उम्र में 11 अगस्त 1908 को फांसी पर
चढ़ाए गये। बताया जाता है कि फांसी से एक दिन पहले जेलर ने खुदी राम बोस को चार आम दे कर कहा
था, ये बड़े मीठे और अच्छे आम हैं,तुम इन्हें खा लेना। सुबह जेलर ने देखा आम वैसे ही रखे हैं तो सवाल
किया, खुदी राम बोस ने कहा, जिसे सुबह फांसी होने वाली हो वह रात में क्या खाएगा। ये आम आप रख लें।
जेलर ने आम ले लिए, पर देखा कि आम तो खाली हैं, उन में हवा भरी हुई है। जेलर खुदी राम की जिन्दा
दिली पर हैरान रह गया। हंसते हुए खुदीराम बोस फांसी के फंदे पर झूल गए ।

बाजीराव राउत—बात आजादी के वीरों की हो और बाजीराव का नाम ना लिया जाए? भले इतिहास बाजी राव के
नाम पर मौन हो। भारत की आजादी के इतिहास में सब से कम उम्र में शहीद होने वाला बालक मात्र 12
साल की उम्र में 11 अक्तूबर 1938 को अंग्रेजों की गोलियों का शिकार हुआ, जुर्म बस इतना था कि ‘वानर
सेना’ के बाजी राव राउत ने अंग्रेजों को ओडिशा-ढ़ेकनाल की ब्राहमी नदी, नाव से नदी पार कराने से इंकार
कर दिया था।

हेमू--सिंध का भगतसिंह-- हेमू सात साल की उम्र से ही देश भक्ति और क्रांतिकारियों की कहानी कहते
सुनते बड़े हुए। एक बार अंग्रेजों ने उनके पिता को गिरफ्तार कर लिया तो उन्हें छुडाने के लिए हेमू ने बंदूक
उठा ली, फिर शिक्षक ने संगठन की बात समझा कर शान्त किया । बाद में हेमू ने स्वराज मंडल ज्वाइन
कर लिया, स्वदेशी अपनाओ और विदेशी का बहिष्कार करने की भावना सब के मन में जागृत की। रैली करके
विदेशी कपड़ों की होली जलाई। एक बार हेमू के कुछ क्रांतिकारी साथियों को ब्रिटिश सरकार ने हिरासत में ले
लिया तो उन्हें छुडाने के लिए हेमू ने भारी विरोध प्रदर्शन किया जिसमें उनका साथ देने अपार जन समूह खड़ा
हो गया था। ब्रिटिश हुकूमत मुर्दाबाद, इंकलाब जिन्दाबाद....बेगुनाहों को आजाद करो के नारे लगाए गए। हैरान
परेशान अंग्रेजी सरकार ने गोलियाँ चलानी शुरु कर दी। हेमू ने अपने साथियों के साथ चालीस अंग्रेज सिपाहियों
को मार गिराया। छोटी सी उमर में ही हेमू ब्रिटिश सरकार का सिर दर्द बन गए थे । 23 अक्तूबर 1942 को

ब्रिटिश सरकार की हथियारों से भरी ट्रेन को सिंध के रोहिणी स्टेशन पर रेल की पटरी उखाड़ कर पलटने की
योजना बनाई जिसमें उनके साथी किशन और नंद भी शामिल थे। अंग्रेजों ने देख लिया तो हेमू ने अपने
साथियों से भागने के लिए कहा और खुद खड़े रहे। हेमू को गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में भीषण यातनाएँ
दी गयीं, पर हेमू ने अपने साथियों का नाम नहीं बताया। ब्रिटिश सरकार ने ‘हेमू कालारी’ के साहस से
भयभीत होकर फंसी की सजा सुनाई। 19 साल की छोटी उम्र में हेमू की आँखों में फांसी का डर ना हो कर
शहादत की चमक थी। हेमू को सिंध का भगतसिंह कहा जाता है । हेमू का बलिदान इतिहास के पन्नों में दर्ज
ना हो कर बस कुछ किताबों में ही ठहरा हुआ है।

जगमोहन मंडल—महात्मा गाँधी और बिनोवा भावे के साथ नमक कानून में सक्रिय रहने वाले जगमोहन मंडल
के नाम और संघर्ष को लोग भूलते जा रहे हैं। आज की युवा पीढ़ी के लिए ‘जगमोहन मंडल’ बिल्कुल अनजाना
सा नाम है। बिहार के पूर्णिया जिले के हरहुआ गाँव के जगमोहन मंडल, पटना के विद्यापीठ में पढ़ते हुए
ही क्रांति कारियों के सानिध्य में आए और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हो गए। नील की खेती के विरोध में
आंदोलन करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेज सिपाहियों ने मारते-मारते उनके पैर तोड़ दिए, इलाज
के बाद भी उनके पैर लड़खड़ाते रहे पर जगमोहन अपने देश की आजादी के लिए घुड़सवारी करके सक्रिय रहे।
स्वतंत्रता सेनानी पूर्व सी.एम.भोला पासवान शास्त्री, विशुनदेव मिश्रा, चुम्मन चौधरी,दशरथ यादव आदि के साथ
मिलकर पूर्णिया, कटिहार,और खगड़िया में वायरलेस तार काटने का जोखिम भरा काम भी किया । 1942 की
अगस्त क्रान्ति से पहले अपने युवा साथियों को संगठित कर अपनी पत्नी को भी सहभागी बना कर हाथ करघा
को उन्नत किया। अगस्त क्रान्ति में अंग्रेज सिपाहियों के साथ कई मुठभेड़ हुई, कई बार उन्हें जेल में डाल
कर यातनाएँ दी गयी , पर जगमोहन के हौसले को तोड़ा नहीं जा सका । 1947 में देश आजाद हुआ और
1948 में जगमोहन की मृत्यु हो गयी। जगमोहन मंडल के जज्बे और कारनामे आजाद भारत के जश्न से दूर
खड़े हैं।

आचार्य हरि प्रसाद वैद्य-—हरि प्रसाद को वैद्य और आखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक पंडित श्री राम
शर्मा के भाई के नाम से ही जाना जाता है। जबकि स्वतन्त्रता संग्राम में इनकी अहम भूमिका है। हरि प्रसाद
ने आजादी की लड़ाई में हिंसक तरीके को ना अपना कर एक अनोखे ही ढ़ंग से लड़ा था। उन्होंने अपने पेशे
को ही अपना हथियार बना लिया था। क्रांतिकारी लोग, अंग्रेजों पर घात लगाने के लिए खेतों में छुपा करते थे।
इसलिए खेतों के आसपास पुलिस चौकस रहते थे। वैद्य हरिप्रसाद को जब किसी क्रांतिकारी के घायल या
बीमार होने की खबर मिलती, तो वे स्त्री का वेश बना कर आँचल में दवाएँ और हाथ में लोटा लेकर शौच का
बहाना बनाकर खेतों में जाते। पर्दा प्रथा होने से कोई रोक नहीं सकता था । लेकिन संदिग्ध गतिविधियों की
जानकारी पा कर अंग्रेजी सरकार ने उन पर नोटिस जारी कर दिया।,उनके औषधायल की सालाना जुर्माने की
रकम को दुगुना कर दिया। फिर भी हरिप्रसाद ने क्रांतिकारियों की मदद से मुंह नहीं मोड़ा। कोई सबूत नहीं
मिलने से ब्रिटिश सरकार कोई कठोर सजा नहीं दे सकी 1932 में वे कांग्रेस में शामिल हो गए। हरिप्रसाद ने
कितने ही स्कूल और लाइब्रेरी भी खोली शिक्षा के प्रसार के लिए।आजादी के इस गुमनाम नायक का नाम
इतिहास में कहीं दबा पड़ा है।

जुब्बा सहनी--- जुब्बा सहनी का नाम भी आजादी के इतिहास में एक गुमनाम नाम है । गरीब मल्लाह के बेटे
जुब्बा अपने परिवार की तरह ही मजदूर थे । पर स्वाभिमान और स्वतंत्रता की भावना से भरे हुए । एक बार
चीनी मिल के अंग्रेज सुपरवाइजर ने अपने बूट से ठोकर खाकर जुब्बा को अपशब्द कहे थे तब जुब्बा ने उसे

ईख के खेत में पटक कर खूब पीटा और ईख के खेत से निकल भागे । 1930 के नमक आन्दोलन से 1942
के भारत छोड़ो आंदोलन में वे क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहे।आंदोलनों के कारण अंग्रेजी सरकार की मार
से जुब्बा की पसली की हड्डी टूट गयी। भाई को गोली लगी और एक साथी घायल हो गया । जुब्बा ने उग्र हो
कर थानेदार वॉलर को पकड़ कर खूब पीटा,थाने के अपराधियों ने भी उनका साथ दिया । थाने से सभी सामान
बाहर निकाल कर आग लगा दी गयी , जुब्बा सहनी ने वॉलर को उठा कर आग में डाल दिया,118 लोगों पर
मुकदमा चलाया गया। जुब्बा ने सारा जुर्म अपने सिर ले कर साथियों को बचा लिया। जुर्म की सजा फांसी
हुई। 1944 की सुबह जुब्बा सहनी को फांसी दे दी गयी। आजादी के लिए मर मिटने वाले जुब्बा सहनी का
बलिदान लिखा नहीं जा सका।

इस कड़ी में शायर और ग़ज़ल कार हसरत मोहानी का नाम भी अह है जो आजादी के गुमनाम नायकों में
एक हैं। उनकी मशहूर ग़ज़ल “चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है….” आज हर कोई जानता है ।पर
आजादी के लिए अपनी कलम से लिखे कलाम से क्रांतिकारियों का जोश बढ़ा कर ब्रिटिश सरकार के होश
उडाने का जिसने काम किया उसे जमाने ने एक शायर-ग़ज़ल गो तक ही जाना। गुमनाम नाम ना जाने
कितने हैं…। जयहिन्द


मंजुला शरण

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