द्वार खुले हैं
उदास बुढिया घर लौट गयी । बेमन से ही सही पर उसने मन लगा कर शासकीय भाषा सीखी । और फिर एक दिन धीरे धीरे चलती हुई न्याय की आस में दूसरे दरवाजे पर जा पहुँची ।
महाराज ने सिंहासन पर बैठते ही अपने सभागार के चार द्वार बनवाये । पहले दिन ही सारे राष्ट्र में राजा की ओर से घोषणा की गयी कि राजा और राष्ट्र की दृष्टि में सब बराबर है । आज से सबको न्याय मिलेगा । कोई छोटा बङा नहीं । राजा और उसका न्याय सबके हैं ।
लोगों में हर्ष की लहर दौङ गयी । उन्होने खुले मन से राजा की जय जयकार की । राज्य में कई दिन तक जश्न मनाये गये ।
एक दिन बेटों की सतायी हुई एक बूढी औरत न्याय की उम्मीद लिए द्वार पर आई और द्वारपाल से भीतर जाने देने के लिए चिरौरी करने लगी ।
“ माँ तुम भीतर नहीं जा सकती । तुम उस भाषा में नहीं बोलती , जिस भाषा को हमारा राजा बोलता है ।“
उदास बुढिया घर लौट गयी । बेमन से ही सही पर उसने मन लगा कर शासकीय भाषा सीखी । और फिर एक दिन धीरे धीरे चलती हुई न्याय की आस में दूसरे दरवाजे पर जा पहुँची ।
“ बेटा मुझे राजा से मिला दो । “
द्वार पर तैनात गार्ड ने उसे सिर से पाँव तक देखा - ‘ हमें तुमसे पूरी हमदर्दी है बुढिया , पर विधर्मी और गरीब लोग राजा से नहीं मिल सकते । “
बूढी औरत गश खाकर वहीं गिर पङी ।
स्नेह गोस्वामी
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