भक्त कवि विद्यापति और उनका काव्य संसार

"मोर पिया सखि गेल दूरी देश। जौवन दए भेल साल सनेस।। मास असाढ़ उनत नव मेघ। पिया विसलेख रहओं निरथेघ।। कौन पुरुष सखि कौन से देश। करब मोय तहां जोगिनी भेस"।।

Jun 21, 2024 - 14:05
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भक्त कवि विद्यापति और उनका काव्य संसार
Devotee poet Vidyapati
भारतीय साहित्य की भक्ति परंपरा के प्रमुख में से एक मैथिली कवि विद्यापति का स्थान भी सर्वोपरि माना जाता है। विद्यापति बंगाली कवि नहीं थे, वे मिथिला के निवासी थे और मैथिली में उन्होंने अपनी कविता लिखी। लगभग चालीस वर्ष पूर्व बंगाली विद्यापति को अपना कवि समझते थे, पर जब से उनके जीवन की घटनाओं की जांच पड़ताल बाबू राजकृष्ण मुकर्जी और डॉ. ग्रियसन ने की है तब से बंगाली अपने अधिकार को अव्यवस्थित पाते हैं।  विद्यापति विद्वान वंश के वंशज थे। उनके पिता गणपति ठाकुर ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'गंगा-भक्ति तरंगिनी' अपने मृत संरक्षक मिथिला के महाराजा गणेश्वर की स्मृति में समर्पित की थी। गणपति के पिता जयदत्त (विद्यापति के दादा) संस्कृत विधाता के लिए ही प्रसिद्ध नहीं थे  वे एक बड़े संत भी थे वरन उन्हें इसी कारण योगेश्वर की उपाधि मिली थी जयद्रथ के पिता वीरेश्वर थे उन्होंने मैथिल ब्राह्मणों की दिनचर्या के लिए नियम संबध किए थे। अतः वंश के इतिहास के परिणामस्वरुप ही विद्यापति को साहित्यिक कौशल पंडित और अन्य लक्षण विरासत में मिले। विद्यापति विपसी के रहने वाले थे। यह दरभंगा जिले में है। यह गांव विद्यापति ने राजा शिवसिंह से उपहार स्वरूप पाया था। विद्यापति के सहपाठियों में कई उत्कृष्ट विद्वान शामिल थे विद्यापति की पत्नी चंदा देवी एक विद्वान स्त्री थी साथ ही रूपवती और गुणवती भी थी विद्यापति को इस अनुकूल परिस्थितियों का लाभ मिलता रहा। उन्होंने बहुत सारी रचनाएं लिखी। विद्यापति ने शिवसिंह , लखिमा देवी, विश्वास देवी ,नरसिंह देवी और मिथिला के कई राजाओं की संरक्षता पाई थी। ताम्र-पात्र द्वारा विपसी गांव का दान शिवसिंह ने अभिनव जयदेव की उपाधि सहित सन 1400 में विद्यापति को दिया था।
बीज शब्द-अवस्था, रूपांतर, आश्रयदाता, प्रचलित ,प्राकृत, राज्य ,अनाचार, प्रपंच, प्राणवत, गति, प्रेरक, भाव, रुचि, पीड़ा, परिभाषा आदि|
मूल आलेख़- विद्यापति के आविभर्व के संबंध में डॉ. उमेश मिश्रा लिखते हैं "इनके पिता गणपति ठाकुर महाराज गणेश्वर सिंह के राज सभासद थे और महासभा में अपने पुत्र विद्यापति को ले जाया करते थे । महाराज गणेश्वर की मृत्यु 252 ल. स.में हुई थी। अतः विद्यापति उसे समय अंततः 10 या 11 की अवस्था के अवश्य रहे होंगे जिसमें उनका राजदरबार में आना-जाना हो सकता था। दूसरी बात यह है कि विद्यापति के प्रधान आश्रयदाता शिवसिंह का जन्म 243 ल.स. में हुआ और 50 वर्ष की अवस्था में राजगद्दी पर बैठे, यह माना जाता है और यह भी लोगों की धारणा है कि विद्यापति उनसे दो वर्ष बड़े थे। तीसरी बात यह है कि विद्यापति ने ' कीर्तिलता' में अपने को खेलन कवि कहा है, इसलिए वह अवश्य कीर्तिसिंह या वीरसिंह की दृष्टि में अल्पवयस के साथ खेलने के लायक नहीं होंगे। इन सभी बातों से अनुमान होता है कि विद्यापति 252 ल.स. में लगभग 10 या 11 वर्ष के थे"1. अतः डॉ. उमेश मिश्र के अनुसार विद्यापति का जन्म 225 ल. स. संवत 1425 निश्चित होता है। विद्यापति के पदों का बंगला में रूपांतर बहुत अधिक पाया जाता है। यहां तक की बंगला में विद्यापति के जो पद प्रचलित हैं, वे कई अंशो में मैथिली में प्रचलित पदों से भिन्न हैं। उसका कारण है। विद्यापति का समय मिथिला विश्वविद्यालय के गौरव का समय था और उन दिनों मिथिला और बंगाल में भाव विनिमय की अधिकता थी। अतएव बंगाल के राधा-कृष्ण के गीत मिथिला में पहुंचे और उनका पाठ बिलकुल मैथिल हो गया। 
रचनाएं विद्यापति संस्कृत के महान् पंडित थे। प्रधानता इन्होंने अपनी रचनाएँ संस्कृत में ही लिखी। संस्कृत के अतिरिक्त इन्होंने अवहट्ट और मैथिली में भी ग्रंथ पद लिखे। इनकी रचनाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
संस्कृत- शेवसर्वस्वसार, शेवसर्वस्वसारप्रमाणभूत पुराण संग्रह, भूपरिक्रमा, पुरुषपरीक्षा, लिखनावली, गंगा- वाक्यावली, दान-वाक्यावली, विभाग- सार, गृह- पत्तलक, वर्णकृत्य, दुर्गा भक्तितरंगिणी।
अवहट्ट- कीर्तिलता, कीर्तिपताका
मैथिली - पदावली 
कीर्तिलता की भाषा अपभ्रष्ट या अवहट्ट कही गई है। इसमें कीर्तिसिंह के उन प्रयत्नों का वर्णन है, जिनके आधार पर उन्होंने तिरहुत को खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त किया। डॉ. बाबूराम सक्सेना ने स्वसंपादित कीर्तिलता की भूमिका में लिखा है" विद्यापति के प्रायः पांच सौ पूर्व कपूरमंजरी के रचियता के संस्कृत के प्रबन्ध परुष जान पड़ते थे| प्राकृत के सुकुमार, इसलिए उन्होंने कपूरमंजरी प्राकृत में लिखी। विद्यापति को वही प्राकृत नीरस जान पड़ी और संस्कृत को बहुत लोग पसंद नहीं करते इसलिए विद्यापति ने देशी भाषा अपभ्रंश में कीर्तिलता बनाई।" 2 इस भाषा में तत्कालीन अपभ्रंश के लक्षण मिलते है, यद्धपि इसे विद्यापति ने ' देसिल बअना' नाम दिया है। कीर्तिलता की कुछ पंक्ति… 
                 " सक्कय बानी बहुअन भावइ
                   पाऊअ रस को मम्म न पावइ
                   देसिल वअना सब जन मिट्ठा
                   ता तेसन जपऊ अभाटा अवहट्ट" 3
विद्यापति के पहले ही अवहट्ट का उल्लेख ज्योतिरिश्वर ठाकुर के वर्णरत्नाकर में किया है। विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा कृष्ण है। विद्यापति शैव थे। उन्होंने इन पदों की रचना श्रृंगार काव्य से की है, भक्त के रूप में नहीं। विद्यापति के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना है "आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीत गोविंद के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी|"4 शुक्ला की पहले ग्रियर्सन विद्यापति को रहस्यवादी कह चुके हैं उसके अनुसार राधा जीवात्मा है और कृष्ण परमात्मा।
हिंदी के जातीय कवि: विद्यापति कीर्तिलता में सामाजिक और साहित्यिक परंपरा का समर्थन करते हैं तो पदावली में उन्हें तोड़ते भी हैं- राधा कृष्ण की मांसल मादक तथा मुक्त श्रृंगार चित्रों के द्वारा। विद्यापति के जीवन में श्रृंगार की प्रधानता मानी जाती है। जीवन को दो धाराओं के बीच बह गया है। एक धारा का नाम है पुरुष और दूसरी का स्त्री। कवि ने जिस प्रकार किसी साधारण स्त्री का भौतिक प्रेम का विवरण किया उसी प्रकार कृष्ण को भी एक कामी नायक की भांति मानते हुए कहते है…
 " मोर पिया सखि गेल दूरी देश।
      जौवन दए भेल साल सनेस।।
       मास असाढ़ उनत नव मेघ।
                 पिया विसलेख रहओं निरथेघ।।
              कौन पुरुष सखि कौन से देश।
                      करब मोय तहां जोगिनी भेस"।। 5
कृष्ण और राधा साधारण स्त्री पुरुष हैं। राधा तो सरिता के समान है, जिसमें भावनाएं तरंगों का रुप लेकर उठा करती हैं। राधा स्त्री है, केवल स्त्री है, और उसका अस्तित्व भौतिक संसार ही में है। उसका बाह्य रुप जितना अधिक आकर्षक है उतना आन्तरिक नहीं। बाह्य सौंदर्य ही उसका सब कुछ है, कोमलता ही उसका स्वरुप है मानो सुनहले स्वप्न मनुष्य के रुप में अवतरित हुए हैं। विद्यापति ने अंतर्जगत का उतना ह्रदयग्राही वर्णन नहीं किया जितना बाह्य जगत का। 
काव्य में राधा: विद्यापति की राधा अपूर्व सुंदरी रही हैं। वे राधा का वर्णन करते हुए मानते हैं कि पृथ्वी के लावण्य के अंश से विधाता ने उन्हें रचा है। जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार से करते है…
"देख देख राधा रुप अपार अपरूब के बिहि आनि मेरा ओल खिल तल।  
लावनि सार।  अंगहि अंग अनंग मुरछाएत हेरए पड़ए अथीर
मनमय कोटि- मथन करु जे जन से हेरी महि मधि गीर।" 6
राधा के रुप वर्णन में विधापति ने रुचि ली है। वे राधा के मनोभावों तथा सौंदर्य को वस्तु ही नहीं आनंददायिनी मानते हैं। विद्यापति के भक्त ह्रदय का रुप उनकी 
वासनामयी कल्पना के आवरण में छिप जाता है। वे एक कल्पित राज्य में विहार करते हैं। वे अपनी कल्पना के सौंदर्य में ऐसे डूब गए हैं कि किसी दूसरी ओर उनकी दृष्टि भी नहीं जाती। विद्यापति की राधा प्रेम करती है, इसलिए कि वह स्त्री है और स्त्रियां प्रेम करना जानती हैं। कवि विद्यापति की राधा सदाचार करना नहीं जानती। कवि भक्ति भावना से उत्तेजित होकर नहीं, वरन आनंद में आकर कहता है -
"अधर मंगइते अऔंध कर माथ। 
सहए न पार पयोधर हाथ"।। 7
विद्यापति राज दरबार के बीच कविता पढ़ा करते थे। उन्हें राज्यसभा और अपनी कला पर ही अधिक ध्यान था, इसलिए उन्होंने अपनी कविता की नींव अलंकारों और भाव, विभाव, अनुभावादि पर रखी। यही कारण है कि विद्यापति ने अपने कला- नैपुण्य -प्रदर्शन के लिए साहित्य शास्त्र का मंथन तो कर डाला ,पर जीवन का रहस्य जानने के लिए मनुष्य समाज के अंतरहस्यों की पर्यालोचना नहीं की । विद्यापति की कविता में स्त्रीत्व और पुरुषत्व की भावना जिस प्रबल वेग से बहती है, वैसी हम हिंदी साहित्य के किसी भी स्थल पर नहीं पा सकते। श्रृंगारिक कविताओं के अतिरिक्त विद्यापति के भक्ति संबधित पद बहुत कम हैं। ये पद शिव, दुर्गा और गंगा की भक्ति में लिखे गये हैं। इसमें 'नचारी' पद भी हैं जो शिवजी की भक्ति में नृत्य के साथ गाए जाते हैं।  काल संबधित पद शिवसिंह के राजयभिषेक और युद्ध आदि पर लिखे गए हैं। 
उपाधियाँ: विद्यापति अपने समय के बड़े सफल कवि थे। अतः उन्हें उनके प्रशसकों ने उपाधियां बहुत सी दीं। ये उपाधियां प्रधानत: 16 हैं -
अभिनव जयदेव, दशाविधान, कविशेखर, कंठाहार, कवि नवकविशेखर, सरस कवि, खेलन कवि, सुकवि कंठाहार, महाराज पंडित, राज पंडित, कवि रतन,कवि कंठाहार, कविवर, सुकवि, एवं कवि रंजन। विद्यापति की लोकप्रियता इतनी थी कि प्रोफ़ेसर जनार्दन मिश्र एम. ए. लिखते है "विद्यापति के प्रचार का सबसे बड़ा कारण चैतन्य महाप्रभु हुए। बंगाल में वैष्णव संप्रदाय के यह सबसे बड़े नेता हुए इन पर लोगों की इतनी श्रद्धा थी कि यह विष्णु के अवतार समझ जाते थे । विद्यापति के ललित और पवित्र भावनाओं से पूर्ण पदों को गाकर ये इस प्रकार भाव में निमग्न हो जाते थे कि इन्हें मूर्छा सी आ जाती थी।  इनके हाथों विद्यापति के पदों की ऐसी प्रतिष्ठा होने के कारण लोगों में विद्यापति के प्रति आदर का भाव बहुत बढ़ गया। इसलिए बंगाल में विद्यापति का आश्चर्यजनक प्रचार हुआ।"8 इसमें कोई संदेह नहीं कि विद्यापति ने अपने पूर्ववर्ती मैथिल कवि उमापति को कोसों पीछे छोड़ दिया है। निराला ने तो उनकी मादकता को ' नागिन की लहर ' तक कह डाला है। यह लहर रीतिकाव्य में नहीं मिलेगी।
मैथिली की मिठास, लोकधुनों का समावेश, तन्मीयता भूत करने की अपनी क्षमता के कारण विद्यापति की पदावली आज भी लोकप्रिय है और कल भी लोकप्रिय रहेगी। नागर अभिरुचि के बावजूद विद्यापति की रचनाओं में एक खुलापन है, साहस है, सौंदर्योपभोग की ललक है, रूप दर्शन की अतृप्त प्यास है। अग्रांकित पद में उनका जीवन- दर्शन और प्रेम - रहस्य निहित है।
निष्कर्ष- 
अंततः विद्यापति ने जो कुछ कहा है हृदय से कहा है, उसमें प्राणों की प्राण बात उत्कृष्ट जिजीविषा निहित है। उनका समस्त भाव संसार का प्रकृत प्रीति का विषय बन जाता है। क्योंकि वे प्रेम को मूल प्रेरक सौंदर्य मानते हैं। कवि ने अत्यंत समीप से सौंदर्य को देखा और परखा है। उन्हें सौंदर्य की प्रत्येक गति व चाल का पूर्ण ज्ञान हो गया था।
सन्दर्भ ग्रन्थ
हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, रामकुमार वर्मा, पृष्ठ 484.
हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, रामकुमार वर्मा, पृष्ठ 487.
हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, बच्चन सिंह, पृष्ठ 62.
हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, पृष्ठ 58.
हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, रामकुमार वर्मा, पृष्ठ 489.
विधापति की पदावली, पद संख्या- 2, पृष्ठ 36.
हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, रामकुमार वर्मा, पृष्ठ 490.
विद्यापति, प्रोफ़ेसर जनार्दन मिश्र एम. ए., पृष्ठ 32.
डॉ. उषा यादव 

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