देवाधिदेव महादेव ॐ नमः शिवाय

क्या आप शिवरात्रि और महाशिवरात्रि का अंतर जानते हैं, यदि नहीं तो चलिए मैं बताती हूं। हर महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि कहते हैं, लेकिन फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी पर पड़ने वाली शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहा जाता है, शिव का तीसरा नेत्र इसी दिन खुला, इसीलिए यह रात्रि महाशिवरात्रि कहलाई, जिसका उत्सव सनातन धर्म में बड़े ही हषोर्ल्लास और भक्ति के साथ मनाया जाता है।

Mar 15, 2025 - 11:51
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देवाधिदेव महादेव ॐ नमः शिवाय
Devadhidev Mahadev Om Namah Shivay

देवों के देव देवाधिदेव महादेव ही एक मात्र ऐसे भगवान हैं, जिनकी भक्ति हर कोई करता है। चाहे वह इंसान हो, राक्षस हो, भूत-प्रेत हो अथवा देवता हो। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड शिव के अंदर ही समाया हुआ है। जब कुछ नहीं था, तब भी शिव थे। जब कुछ न होगा, तब भी शिव ही होंगे, इसीलिए शिव को महाकाल कहा जाता है, अर्थात 'समय'। भगवान शिव को रूद्र नाम से भी जाना जाता है। रुद्र का अर्थ है- रुत् (दूर करने वाला) अर्थात दुखों को हरने वाला, इसप्रकार भगवान शिव का स्वरूप कल्याणकारी तो है ही, साथ ही उनमें हमको परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है - शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार बने हुए हैं। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्यस्वरूप आशुतोष होते हुए भी भयंकर रौद्ररूप हैं। ऐसे शिव की उपासना के लिए सप्ताह के सभी दिन अच्छे हैं, फिर भी सोमवार को शिव का प्रतीकात्मक दिन कहा गया है। इस दिन शिव की विशेष पूजा-अर्चना करने का विधान है। सोमवार चंद्र से जुड़ा हुआ दिन है, इसीलिए शैव पंथ में चंद्र के आधार पर ही सभी व्रत और त्योहार मनाए जाते हैं। चंद्रमाह की चौदहवीं रात अर्थात् अमावस्या से पहले की रात महीने की सबसे अंधेरी रात होती है। उसे शिवरात्रि कहा जाता है। साल में होने वाली बारह शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

शिवरात्रि और महाशिवरात्रि का अंतर- 

क्या आप शिवरात्रि और महाशिवरात्रि का अंतर जानते हैं, यदि नहीं तो चलिए मैं बताती हूं। हर महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि कहते हैं, लेकिन फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी पर पड़ने वाली शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहा जाता है, शिव का तीसरा नेत्र इसी दिन खुला, इसीलिए यह रात्रि महाशिवरात्रि कहलाई, जिसका उत्सव सनातन धर्म में बड़े ही हषोर्ल्लास और भक्ति के साथ मनाया जाता है।

क्यों मनाई जाती है महाशिवरात्रि- 

1. सृष्टि की शुरुआत में इसी दिन की आधी रात को भगवान शिव का निराकार से साकार रूप में (ब्रह्म से रुद्र के रूप में) अवतरण हुआ था। 

2. पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग (जो महादेव का विशालकाय स्वरूप है) के उदय से हुआ। 

3. ईशान संहिता में बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात आदि देव भगवान श्री शिव करोड़ों सूर्यों के समान ज्योति वाले लिंगरूप में प्रकट हुए। 

4. इस कथा को हम सब जानते हैं कि समुद्र मंथन से निकले हलाहल नामक विष को शिव शंकर ने अपने कण्ठ में धारण किया था। जहर इतना शक्तिशाली था कि भगवान शिव अत्यधिक दर्द से पीड़ित हो उठे और उनका गला नीला हो गया था। इस कारण से भगवान शिव 'नीलकण्ठ' के नाम से प्रसिद्ध हुए। उस विष ने भोलेनाथ के शरीर का तापमान बढ़ा दिया। कैलास जैसे ठंडे स्थान पर भी भोलेनाथ पसीने-पसीने हो गए, जिसे देख सभी देवताओं और दैत्यों ने उनका जल से अभिषेक कर उनकी सहायता की। चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जगाए रहने की भी सलाह दी। शिव को आनंदित करने और जागए रखने के लिए देवताओं ने अलग-अलग नृत्य और संगीत बजाए। जैसे ही सुबह हुई, शिव शांत हुए। उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने उन सभी को आशीर्वाद दिया। तब से महाशिवरात्रि का उत्सव मनाया जाने लगा।

5. इसके साथ ही महाशिवरात्रि को शिव और पार्वती के विवाह के स्मरणोत्सव के रूप में  भी मनाया जाता है, इसलिए इस दिन भगवान शिव व माता पार्वती की पूजा और व्रत उपवास किया जाता है।

6. इस दिन को शिव के तांडव नृत्य की उपासना स्वरूप मनाने की मान्यता भी प्रचलित है।  

महाशिवरात्रि को 'बोधोत्सव' क्यों कहा गया है

तीसरा नेत्र अर्थात बोध। हम सबके दो नेत्र तो होते ही हैं, जो हमारी इंद्रियों के अंग हैं, जिनसे हम संसार की सभी दृश्यमान भौतिक वस्तुओं का अनुभव करते हैं, पर हम सबके अंदर एक तीसरा नेत्र भी होता है, जिसकी सहायता से हम इस ब्रह्मांड के सूक्ष्म आयामों को देख सकते हैं, पर यह तीसरी आँख उन आयामों को तब ही देख सकती है, जब हमें आध्यात्मिक चेतना हो, बोध हो, ज्ञान हो। हम सभी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि हम सबके अंदर शिव का अंश हैं, हम सब उसी के संरक्षण में हैं। हमें इस रात कुछ ही क्षणों के लिए ही सही उस असीम विस्तार का अनुभव करना चाहिए, जिसे हम शिव कहते हैं, इसीलिए इस उत्सव को बोधोत्सव भी कहा गया है।

महाशिवरात्रि का पूजा विधान

हम सभी जानते हैं कि इस दिन देवाधिदेव महादेव का अभिषेक किया जाता है, पर कैसे?

रात्रि के चार प्रहर होते हैं, और हर प्रहर में शिव की पूजा की जा सकती है। हमारे शास्त्रों में शिवरात्रि को चार प्रहरों में चार बार अलग-अलग विधि से पूजा का प्रावधान है- 

1. महाशिवरात्रि के प्रथम प्रहर में भगवान शिव की ईशान मूर्ति को दुग्ध द्वारा स्नान करवाना चाहिए।

2. दूसरे प्रहर में उनकी अघोर मूर्ति को दही से स्नान करवाना चाहिए 3. तीसरे प्रहर में घी से स्नान करवाना चाहिए।

4. चौथे प्रहर में उनकी सद्योजात मूर्ति को मधु अर्थात शहद द्वारा स्नान करवाना चाहिए।

पारंपरिक पूजा विधान - 

शिव पुराण के अनुसार महाशिवरात्रि पूजा में छह वस्तुओं को अवश्य शामिल करना चाहिए- 

1. शिव लिंग का जल, दूध और शहद के साथ अभिषेक अर्थात शुध्दिकरण, जो वास्तविक पूजा अनुष्ठान का प्रतीक है।

2.  धतूरा व बेलपत्र, जो आत्मा की शुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं।

3. चंदन का लेप स्नान के बाद शिव लिंग को लगाया जाता है। यह पुण्य का प्रतिनिधित्व करता है।

4. जलती धूप, धन, उपज, बेर, फल, जो दीर्घायु और इच्छाओं की सन्तुष्टि को दर्शाते हैं।

5. दीपक, जो ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग है।

6. शमी व पान के पत्ते, जो सांसारिक सुखों के साथ सन्तोष के प्रतीक हैं।

यहां यह भी ध्यान रखें कि शिव अभिषेक में तुलसी के पत्ते, हल्दी, चंपा और केतकी के फूल, तिल या तिल से बनी वस्तुओं का प्रयोग नहीं किया जाता है।

इसप्रकार विधिविधान से पूजा अभिषेक करने से भगवान शिव शीघ्र अतिप्रसन्न होते हैं, इसीलिए इन्हें आशुतोष भी कहा जाता है। 

महाशिवरात्रि का आध्यात्मिक मूल्य 

पारिवारिक परिस्थितियों में मग्न लोग महाशिवरात्रि को शिव के विवाह के उत्सव की तरह मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाओं में मग्न लोग महाशिवरात्रि को, शिव के द्वारा अपने शत्रुओं पर विजय पाने के दिवस के रूप में मनाते हैं। साधक महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात्रि के रूप में मनाते हैं। साधकों के लिए, यह वह दिन है, जिस दिन वे कैलास पर्वत के साथ एकात्म हो गए थे। वे एक पर्वत की भाँति स्थिर व निश्चल हो गए थे। उनके भीतर की सारी गतिविधियाँ शांत हुईं और वे पूरी तरह से स्थिर हुए।

महाशिवरात्रि का प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक महत्त्व

इस रात, पृथ्वी ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार अवस्थित होता है कि मनुष्य की भीतरी ऊर्जा प्राकृतिक रूप से ऊपर की तरफ जाती है, अतः इस रात प्रकृति मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में मदद करती है, इसीलिए पूरी रात मनाए जाने वाले इस उत्सव में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है, कि ऊर्जाओं के प्राकृतिक प्रवाह को उमड़ने का पूरा अवसर मिले। हम मनुष्य है और इस अखिल सृष्टि में मानव को ही सीधी रीढ़ की हड्डी का वरदान प्राप्त है, अतः इस रात यदि हम अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रख शिव का ध्यान करते हुए, साधना करें, तो हमारे अंदर अवस्थित सकारात्मक ऊर्जा उर्ध्वगामी हो हमें अलौकिक शक्ति का सान्निध्य प्रदान करेगी। इसीलिए यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह रात केवल नींद से जागते रहने की रात बन कर न रह जाए, बल्कि यह हमारे लिए जागरण की रात्रि होनी चाहिए, चेतना व जागरूकता से भरी वो रात, जो हमारे जीवन के नए प्रभात का पथ प्रशस्त कर, हमें शिवत्व में स्थापित करेगी, वो शिवत्व, जो स्वयं समस्त द्वंद्वों से परे सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है- महाशिवरात्रि।

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्।

यह रचना मौलिक एवं अप्रकाशित है।

डॉ. मधु गुप्ता

सेवानिवृति व्याख्याता,

एड्जंक्ट प्रोफेसर, 

हिंदी विभाग, माहेश्वरी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जयपुर।

Career Counsellor | Poet | Writer | Blogger | Orator | Social influencer

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