कबीर की विचार चेतना और प्रासंगिकता

कबीर भले ही अनपढ़ थे, फिर भी उनके उपदेश, उनका विचार अज के समाज में भी प्रासंगिक है। वे हमारे दिलों में आज भी जिंदा है, उनकी वाणी किताबों तक सीमित नहीं रहीं। उनकी वाणी हमारी संस्कृति में, हमारे नसलों में आज भी जीवित है। इसी कारण आज भी हमारे बुज़ुर्ग जब हमें उपदेश देते हैं, तब कहते हैं , "ऐसी वाणी बोलिए मनका आपा खोए। औरन को शीतल करें, आपहुं शीतल होए।।"“यानी अपने शब्दों में काबू रखना चाहिए जिससे दूसरों का दिल न दुखें, किसी को तकलीफ न हो।

Jun 21, 2024 - 13:28
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कबीर की विचार चेतना और प्रासंगिकता
Kabir's thought
कबीर भले ही अनपढ़ थे, फिर भी उनके उपदेश, उनका विचार अज के समाज में भी प्रासंगिक है। वे हमारे दिलों में आज भी जिंदा है, उनकी वाणी किताबों तक सीमित नहीं रहीं। उनकी वाणी हमारी संस्कृति में, हमारे नसलों में आज भी जीवित है। इसी कारण आज भी हमारे बुज़ुर्ग जब हमें उपदेश देते हैं, तब कहते हैं , "ऐसी वाणी बोलिए मनका आपा खोए। औरन को शीतल करें, आपहुं शीतल होए।।"“यानी अपने शब्दों में काबू रखना चाहिए जिससे दूसरों का दिल न दुखें, किसी को तकलीफ न हो। यही नहीं, बड़प्पन को एक खजूर के पेड़ को सामान करते हुए कबीर कहते हैं, “बड़ा हुआ टोक्य हुआ, जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।”यदि आप की बड़प्पन या महानता में परोपकार का भाव नहीं झलकता है, तो आपका बड़ा होना खजूर के पेड़ की तरह व्यर्थ है। क्योंकि खजूर का पेड़ इतना लम्बा जय कि उसका फल तोडना आम आदमी के बाद की बात नहीं है। इतना ही नहीं उसके पत्ते इतने पत्तले हैं कि यात्रियों को छाया तक नहीं मिलता। इस तरह के समाज यथार्थ कबीर ने  अपने दोहों द्वारा प्रस्तुत किया है जो आज के लिए भी प्रासंगिक है।
भले ही कबीर एक संत थे, फिर भी वे संत के रूप में हमारे सामने नहीं आते, वे एक दार्शनिक है, एक समाज सुधारक है, एक क्रांतिकारी है, यही नहीं सामाजिक कुरीतियों और सामाजिक बुराइयों के ख़िलाफ़ लड़ वे हमेशा रहे थे।
मूल शब्द : भरण-पोषण, बाह्य आडम्बर, कट्टर 
प्रस्तावना: शोध विधि:
प्रस्तुत शोध आलेख विश्लेषणात्मक एवं वर्णनात्मक प्रस्तुति का है। शोध कार्य के लिए मूल ग्रन्थ एवं सहायक ग्रन्थ का आधार लिया गया है।
भूमिका :
भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के ज्ञानमार्गी कवि कबीरदास का जन्म काशी के लमही गाँव में हुआ था। उस समय देश की राजनैतिक स्थिति असंतुलित थी। हिन्दू-मुस्लिम दंगें चल रही थी। उसी दंगों के फलस्वरूप कबीर के हिन्दू माँ-बाप मारे गए। बाद में ऐसा माना जाता है कि कबीर का भरण-पोषण, नीरू-नीमा नमक मुस्लिम दम्पति ने किया था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। पर ज्ञान अर्जत करने का प्यास उनपर बना रहा। कहीं भी किसी महात्मा का प्रवचन होता, तो कबीर वहाँ उपस्थित रहा करता था। दूर दूर तक महात्माओं को सुनने जाया करता था। इस प्रकार  के उनका अर्जित किया हुआ ज्ञान, समाज में बदलाव लाने का सामर्थ्य रहा, समाज के मिथ्याडम्बरों से, अंध विश्वासों से लोगों को मुक्ति दिलाने का सामर्थ्य रहा।
तथ्य विश्लेषण  :
कबीरदास एक संत पुरुष थे। भक्तिकाल के निर्गुण भक्ति धरा के ज्ञान मार्गी शाखा के प्रमुख कवि थे। हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर के महत्व को रेखांकित करते हुए अपनी किताब ‘कबीर 1941’ में लिखते हैं, “हिंदी साहित्य के हज़ार वर्ष के इतिहास में कोई लेखक कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर पैदा नहीं हुआ।” शायद यही बात है कि जब हम कबीर का ज़िक्र करते हैं, तब ऐसे व्यक्ति का चेहरा सामने उबरकर आता है जो क्रन्तिकारी है, जो समाज सुधारक है और सबसे बढ़कर वे एक सरल ह्रदय वाला व्यक्ति है। इसलिए उनके दोहे में वे ऐसे कहते हैं, भगवन मुझे इतना दीजिए मेरे परिवार के पेट भर जाए और कोई भिक्षा माँगने आएँ, तो उसको भी भूखे में न रहने दें, यानी उसका भी पेट भरा सकूँ।
“साईं  इतना दीजिए  जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूँ, साधू भी भूखा न जाए।।”
उस पूरे भक्ति काल के जितने भी प्रमुख कवि हुए थे, वे सामजिक आर्थिक स्थर पर काफ़ी तथाकथित निम्न जाती से सम्बंधित थे। उदहारण वश, कबीर बुनकरों के जुलाह जाति से सम्बंधित थे, उस उग के रैदास भी चमड़े का काम करते थे। दादू दयाल कपास का काम करते थे। उनकी उसी पहचान ने उनको उत्पीडन का शिकार बनादिया था। उनपर हुए उत्पीड़नों के कारण उनमें एक असंतोष की भावना पैदा हुई थी। इसी भावना ने उन्हें रचना करने के लिए प्रेरित किया था। विशेष कर कबीर दास ने समाज में प्रचलित रूढ़िवादिता और कट्टरता का विरोध किया था। इसी विरोध के वजह से ही वे आम जनता के बीच लोकप्रिय हो गए थे। भले ही कबीर अनपढ़ व्यक्ति थे, फिर भी उनकी विचारधारा अज के समाज में भी प्रासंगिक है। उनके एक दोहे से यह बात स्पष्ट नज़र आती है कि उन्होंने कभी कलम तक छुआ नहीं है। ‘मसि कागद छूयो नहीं, कलम गहीं नहि हाथ...’। कहते हैं, उनके पढ़े –लिखे न होने की वजह से उनकी वाणी मौखिक रूप में की गयी है और बाद में उनके शिष्यों ने उन्हें ग्रन्थ बद्ध किया था।
13वीं, 14वीं शताब्दी में जब देश के राजतंत्र अव्यवस्थित था, तब पूरे देश मुगलों के अधीन होने जा रहा था। उसी समय कबीर का जन्म सन् 1398  में एक हिन्दू परिवार में हुआ था। हिन्दू-मुस्लिम दंगों के कारण अपने हिन्दू माँ-बाप को खोया हुआ नवशिशु, जुलाह-दंपति नीरू-नीमा के छत्र-छाया में पलने लगा। पर दरिद्रता ने उन्हें अपनी पढाई आगे बढ़ाने नहीं दिया। किन्तु वे हताश नहीं हुए। जहाँ भी कोई प्रवचन हो रहा था, उन प्रवचनों को सुनने दूर- दूर तक जाया करते थे। उनका समाज जात-पांत, छुआछूत, धार्मिक पाखंड, मिथ्याडंबरों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों, हिन्दू-मुस्लिम वैमनास्यों, शोषण- उत्पीड़न आदि विकृतियों और विसंगतियों से ग्रस्त थे। धर्म के नाम पर पूरे समाज में पाखंड फैला हुआ था। सारा समाज मिथ्या प्रपंच में अनुरक्त था। इसी समय, तत्कालीन समाज के उन नसों को कबीर ने पहचाना और उनके विरुद्ध लड़ने और सत्य की खोज करने का अथक परिश्रम किया। सरल भाषा में कहें तो, वे एक प्रखर, साहसी, निर्भीक और निरभिमानी गुणों से धनी मार्गदर्शक थे। उनके विचार धरा आज भी एक वर्ग-विहीन, आडंबरहीन समाज के निर्माण के लिए, मानवता का प्रेम बढ़ाने, हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द बढ़ाने एवं नैतिकता का निर्माण करने के सन्दर्भ में प्रासंगिक है।
उन्होंने समाज के लोगों के आडम्बरों को और जाति प्रथा को तोड़ दिया था। अज भी जातियाँ-उपजातियाँ, विभाजित विभिन्न वर्गों ने समाज को खोखला कर रखे हैं। छुआछूत समस्या आज भी है। धर्म के अधर पर आअज भी लोग लड़ रहे हैं, लोग एक दुसरे के तुलना में अपनी जाति को ज्यादा बहतर, अपने धर्म को ज्यादा बहतर दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। इसलिए कबीर आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी आज से 500 साल पहले वे थे।
आज भी समाज में मानवता कराह रही है। कबीर उस मानवता के पक्षधर थे। वे कहते हैं, ऊँचे कुल में जन्मे लेने या ब्राह्मण होने मात्र से कोई ऊँचा या श्रेष्ट नहीं होता। अपने आचरण और सुन्दर कर्मों से ही मनुष्य ऊँचा बन जाता है। यह बात भगवन बुद्धा ने भी कहा था कि अपने कर्म से ही व्यक्ति ऊँच या नीच बन जाता है। कबीर ने उस बात को और स्पष्ट करने के लिए दृष्टांत भी दिये थे। जैसे सोने के कलश में मदिरा भरा हो, तो सज्जनों के लिए पेय नहीं बन जाता, सज्जन उसकी निंदा करने लगते हैं। ठीक उसकी तरह ऊँचे कुल में जन्म लेकर यदि व्यक्ति नीच काम करता है, तो वह निंदा का ही पात्र बन जाता है।
“ऊँचे कुल का जनमियाँ, जे करणी ऊँच न होइ।
  सोबन कलस सुरै भरया, साधू निंदत सोइ।। ”  
आज पूरे विश्व में धर्म के नाम पर आतंक मची हुई है। लोगों ने चाहे कितना भी पढ़े लिखे क्यों न हो, भाईचारा भुलाकर, धर्म के नाम पर आपस में मार-पीठ करना आरम्भ कर दिया है, एक दुसरे को नीचा दिखाने लगा है। उसी समय कबीर की अमृत वाणी से प्रेरणा मिलती है। उन्होंने अपने भावों, विचारों और सिद्धांतों को सरल, सुबोध एवं सहज भाषा में प्रस्तुत किया था, जो आम जनता की समझ मंक भी आ  सकें। उनकी वाणी आज भी विचारोत्तेजक एवं प्रेरणा दायक है। सर्व-धर्म, समभाव, विश्व में सभी के प्रति समदृष्टी आदि मानवीय गुणों पर उन्होंने बल दिया था। इसलिए उन्हें ‘मानवता वादी कवि’ भी कहलाते है।  वे कहते हैं, बड़ी बड़ी किताबें पढ़ने से, रटने से, लोग बुद्धिमान या तो पंडित नहीं हो सकते हैं, कम से कम प्रेम या प्यार के वह ढाई अक्षरों को पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप को पहचान ले, तभी वे ज्ञानी के श्रेणि में गिने जा सकते हैं। 
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
  ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।”
यही नहीं कबीर के समय, समाज में एक मुग़ल साम्राज्य का आगमन हो रहा था। छोटी जाति के हिन्दू परिवार धीरे धीरे अपने ही स्वार्थ्य के लिए इस्लाम को अपनाने लगे। इसी कारण उस समाज के हिन्दू जनता पर दर्मंतरण का दबाव था। आज के समाज में भी विश्व में कई हिन्दू और बौद्ध लोग पैसे और अन्य सुविधाओं को प्राप्त करने के लालच में ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म को अपनाने लगे। कबीर ने लोगों की इन प्रवृत्तियों का खंडन किया। 
वे  एक ही इश्वर को मानते थे, जो निर्गुण और निराकार थे। वे मंदिर, मज्जिद, रोज़ा, ईद, व्रत आदि को व्यक्ति के दिखावा मानते थे। उन्होंने मूर्ति पूजा, अवतारवाद और कर्मकांडों का घोर विरोध किया। वे हिन्दू धर्म के मूर्तिपूजा का खंडन करते हुए कहते हैं कि अगर पत्थर को पूजते ही भगवान मिल जाता है और आपके सारे कामनाएँ सफल हो जाती हैं, तो एक छोटे पत्थर तो क्या मैं बड़े पहाड़ की पूजा करता हूँ, पर उस पत्थर संसार के दुःख नहीं दूर कर सकता। अगर उसे घर ले  जाकर आटा पीसें, तो पूरे संसार पीसे हुए आटे से रोटी तो खा सकती है।
“पाहन पूजैं हरि मिलैं, तो मैं पूजूँ पहार।
  तातैं वह चाकी भली, पीस खाय संसार।।”
आज के इस 21वीं सदी में भी लोग अपनी जान की भी परवाह न करके कितने दूर-दूर तक तीर्थ यात्रा पर जाते हैं। अपने घर-द्वार छोड़कर मीलों तक ऊपर चढ़कर मंदिर में पहुँचते हैं। इन बातों का सत्य कबीर ने 14वीं, 15वीं शताब्दी में इस प्रकार स्पष्ट किया था। कबीर कहते हैं की आस्था पर विश्वास करना चाहिए, न कि पत्थरों पर। 
हिन्दू धर्म को ही नहीं इस्लाम धर्म को भी लेकर कबीर ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट किये थे। इस प्रकार के समाज में चल रहे मिथ्या आडम्बरों पर प्रहारकर उन्होंने जनता को, लोक चेतना को जगाने का प्रयास किया था, जो आज के समाज में भी समीचीन है। उन्होंने हर धर्म-भेद, वर्ग-भेद, जाति-भेद पर कटाक्ष किया था। इस्लाम धर्म पर कटाक्ष करते हुए वे बोलते हैं,
“कंकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
  ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।”
कबीर लोगों के आस्था पर सवाल करते हुए पूछते हैं, इश्वर को पाने के लिए उनके प्रति सच्चे मन से आवाज़ लगाना चाहिए पर इसके विपरीत पत्थर से बने मस्जिद पर चढ़कर जोर-जोर से अपने खुदा को, अपने इश्वर को क्यों आवाज़ दे रहे हैं, क्या इश्वर या तो खुदा बहरा है? यह दिखावे के सिवाय और क्या हो सकता है। इस प्रकार कबीर ने हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों के खोखलेपन को दिखाया था।
कबीर के व्यक्तित्व में ऐसा प्रतीत होता है कि वह शान्ति प्रिय व्यक्ति थे। सत्य,अहिंसा उनका धर्म था। वे कहते है, कि दुसरे के दोष देखने से पहले अपने दोष को देखिए। सिंहली भाषा में भी इसके लिए एक मुहावरा है –“दुसरे की आँख में गिरी लकड़ी को निकालने से पहले अपनी आँख में गिरी बाल को निकालिए” 
“दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
  अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत ।।”
दोहे में कबीरदास कहते है, मनुष्य दुसरे के दोष देख-देखकर हँसता है। जब किसी के दोष देखते तो उसपर मज़ाक उड़ाते हैं, हँसते हैं, पर कभी उनके ध्यान में यह नहीं आता कि तुमने जो दोष किये थे उनके भी कोई सीमा नहीं हैं। 
यह दोहा आज के सन्दर्भ में बहुत प्रासंगिक है। राजनैतिक दलों को देखें तो उसमें यह बहु सटीक बैठता है। किसी भी राजनैतिक सभा में जाकर देखे तो, वहाँ कोई नेता अपने विरोधी दल की बुराइयों को बढ़ा चढ़ा कर सत्ता के सामने ले आता है, उस पर व्यंग्य करता है, जबकि अपने दल में इससे अधिक दोष पाया जाता है। कहीं सामने वाले ने कोई आरोप लगा दिया तो उसका उत्तर न देकर सीधा उसे कटघरे में खड़ा कर देते हैं। राजनीति से सम्बंधित कबीर की यह वाणी भी आज के सन्दर्भ में बहुत ही महत्वपूर्ण है। 
यह भी द्रष्टव्य है कि कबीर अपने युग के एक प्रगतिशील विचारक और सामज सुधारक थे। उन्हें एक युगद्रष्टा कवि माने जाते हैं। उनकी वाणी उनका व्यक्तित्व युगीन परिस्थितियों की देन रहा। उन्होंने न सिर्फ अपने वर्तमान को भोगा, बल्कि भविष्य में आनेवाली समस्याओं को भी पहचाना है। वे अपने बारे में बताते हुए कहते हैं-इस संसार में मैंने बुराई खोजने निकला, पर कोई बुराई मैंने नहीं देखा। जब अपने मन के अन्दर झाँक कर देखा तो पता चला कि मुझसे बुरा और कोई इस संसार में नहीं है। अगर संसार के व्यक्ति भी दूसरों की बुराई खोजने में अपना समय व्यय न कर अपने को सुधारने का प्रयास करें तो यह संसार कितना महान होता है। कबीर समाज सुधारक भी है। उनका यह विचार आज के समय में भी प्रासंगिक रही।
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।   
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।”
यही नहीं कबीर कहते हैं। किसी भी प्राणी का निंदा व अपहास न करें, क्योंकि वह अपना समय आने पर आपको असहनीय पीड़ा दे सकता है। जैसे पाँव के नीचे आने वाले छोटे से तिनके का कभी अपमान मत कीजिए, क्योंकि वह अगर उड़कर आपकी आँख में आ गिरा तो असहनीय पीड़ा दे सकता है।
“तिनका कबहुँ न नंदिये, जो पाँवन तर होय।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।”
और एक बात पर कबीर ध्यान आकृष्ट कराते हैं। वह है मुँह से निकली शब्द वापस लेकर सुधार नहीं सकते। इसलिए मुँह से कुछ बोलने से पहले मन नामक तराजू से तौल कर सही-गलत पहचानकर निकालना चाहिए। आज के इस संचार के युग में कोई राजनैतिक दल के कोई नेता हो या प्रसिद्ध अभिनेता हो बिना सोचे समझे बयानबाज़ी कर देते है, वह किसी भी माध्यम से आग की तरह लोगों तक पहुँच जाती है। वे चाहे कितना ही सफ़ाई देते रहे कि उनका यह मतलब नहीं, वह मतलब नहीं, पर निकली हुई ज़बान वापस नहीं ला सकती, जबकि उनका अभिप्राय किसी को हानि या दुःख देना नहीं था। कबीर कहते हैं,
“बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
  हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।”
समय के महत्व को परिलक्षित करती उनकी यह पंक्ति, उनके विचारधारा को प्रस्तुत करते हैं। वर्तमान समाज में, बड़े-बूढ़े कोई भी हो आज का काम कल तक टालने की आदत दाल रखा है। कबीर कहते हैं कोई भी काम कल पर मत छोड़ना। कहते हैं, कल जो करना हैं, वह आज करो, आज जो करना है वह अभी करो क्योंकि अगले पल में जीवन समाप्त हो जाएगा, तो तुम कब वह काम करोगे।
“काल करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
  पल में परलय होइगा, बहुरि करेगा कब्ब।।”
इतना ही नहीं आज कल धन-दौलत, ऐशोआराम के पीछे दौड़ने के कारण व्यक्ति सही, गलत का अंतर भूल चुका है। जिसके पास धन-दौलत अधिक हो वह किसी पर स्त्री का सांगत प्रिय करने लगे, या किसी बुरे काम में अपना पैसा खर्च करने लगे, यहीं नहीं जहाँ तक कि माँ लोग अपने बच्चे को भूल जाती हैं।  यहीं कारणवश समाज में ब्रष्टाचार, डकैती पनपने लगी। इसलिए कबीर भगवन से यहीं प्रार्थना करते हैं, ऐ भगवान, आप मुझे इतना धन दीजिए, बस मेरा गुज़ारा हो जाए और आनेवाले मेहमान का भी पेट भरा जाए।
“साईँ  इतना दीजिए, जा में कुटुम समय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाय।।” 
इसी प्रकार अधिक लालच  भी व्यक्ति को कुँए में ढकेल देता है। लालच का बुरा असर बताते हुए कबीर कहते हैं;
“मक्खी गुड़ में गाड़ी रहे, पंख रहे लिपटाय।
तारी पीटे सर धुने, लालच बुरी बलाय।।”
अर्थात, मक्खी गुड़ देखते ही उससे लालच होकर उसमे लिपट जाती है, अपने सारे पंख और मुँह गुड़ से चिपका लेती है, पर जब मन भरकर उड़ने लगी तो तब वह उड़ न पाने के कारण अफ़सोस होने लगती है। ठीक वैसे ही मनुष्य भी सांसारिक सुखों से ऐसे बांध जाते है जैसे वह कभी मरते नहीं, धन-दौलत इकट्टा करते हैं, पर उसे भी अंत समय में पता चलता है कि वह कोई भी पुन्य काम नहीं किया जो मरने के बाद ले जा सकें। इसलिए उपर्युक्त दोहा भी आज के समय में प्रासंगिक है।
निष्कर्ष;
इस अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि प्रगतिशील चेतन के प्रतिनिधि कवि, भक्त, संत एवं समाज सुधारक रुपी बहुआयामी व्यक्तित्व से  पूर्ण महा संत, कबीरदास के अमृत वाणी को आज के समाज में भी लानी चाहिए और उनके विचारानुसार समाज में समत्व की भावना लानी चाहिए। खबीर ने समय की नसों को खूब पहचाना। तत्कालीन विसंगतियों एवं विकृतियों के विरुद्ध लड़ने  का अथक दृढ़ता का साहस उन्हें जीवनानुभव से मिला था। उनके आजीवन संघर्ष आज भी यथावत है।  उनकी हर बात आज उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उनके समय मे थी। आजकल धार्मिक कर्मकाँडों ने समाज में बहुत ही विकृत रूप ग्रहण किया है। राजनैतिक लाभ के उद्देश्य से आम जनता की धार्मिक भावानाओं उकसाया जा रहा है। वे कर्मकांड, अंधविश्वास, असंगतियाँ, रूढ़ियाँ आज भी समाज से लुप्त नहीं हुए हैं। ऐसे परिदृश्य मे कबीर को पढ़ना और समझना ही नहीं उनको जीवन मे उतारना साँप्रदायिक सद्भाव बनाये रखने में मदद कर सकता है।
डॉ. दिलंका रसांगी नानायक्कर

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