खान अब्दुल गफ्फार खान
ख़ान अब्दुल ग़़फ्फ़ार ख़ान (१८९० - २० जनवरी १९८८) सीमाप्रांत और बलूचिस्तान के एक महान राजनेता थे जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और अपने कार्य और निष्ठा के कारण `सरहदी गांधी' (सीमान्त गांधी), `बच्चा खाँ' तथा `बादशाह खान' के नाम से पुकारे जाने लगे। वे भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेज शासन के विरुद्ध अहिंसा के प्रयोग के लिए जाने जाते है।

ख़ान अब्दुल ग़़फ्फ़ार ख़ान एक पख्तून थे जो महात्मा गाँधी के अहिंसक सिद्धान्तों के बहुत बड़े प्रशंसक थे। वे काँग्रेस को सीमान्त क्षेत्र में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध अपनी शिकायतों पर बल देने का एक रास्ता मानते थे। उन्हें फ़्रंटियर गांधी, सीमान्त गान्धी भी कहा जाता था। उनके अनुयायी अहिंसा के प्रति बचनबद्ध थे और उन्हें अपनी कमीजों के लाल रंग के कारण लाल कुर्ती का लोकप्रिय नाम मिला.
ख़ान अब्दुल ग़़फ्फ़ार ख़ान (१८९० - २० जनवरी १९८८) सीमाप्रांत और बलूचिस्तान के एक महान राजनेता थे जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और अपने कार्य और निष्ठा के कारण `सरहदी गांधी' (सीमान्त गांधी), `बच्चा खाँ' तथा `बादशाह खान' के नाम से पुकारे जाने लगे। वे भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेज शासन के विरुद्ध अहिंसा के प्रयोग के लिए जाने जाते है। एक समय उनका लक्ष्य संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत था। इसके लिये उन्होने १९३० में खुदाई खिदमतगार नाम के संग्ठन की स्थापना की। यह संगठन `सुर्ख पोश' (या लाल कुर्ती दल) के नाम से भी जाने जाता है।। बताया जाता है कि स्कूली शिक्षा के दौरान फिल्म अभिनेता ए के हंगल भी फ़्रंटियर गान्धी यानी ख़ान अब्दुल ग़़फ्फ़ार ख़ान के नेतृत्व में चल रहे लाल कुर्ती आन्दोलन से जुड़ गये थे।
खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म पेशावर, पाकिस्तान में हुआ था। उनके परदादा आबेदुल्ला खान सत्यवादी होने के साथ ही साथ लड़ाकू स्वभाव के थे। पठानी कबीलियों के लिए और भारतीय आजादी के लिए उन्होंने बड़ी बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थी। आजादी की लड़ाई के लिए उन्हें प्राणदंड दिया गया था। वे जैसे बलशाली थे वैसे ही समझदार और चतुर भी। इसी प्रकार बादशाह खाँ के दादा सैफुल्ला खान भी लड़ाकू स्वभाव के थे। उन्होंने सारी जिंदगी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। जहाँ भी पठानों के ऊपर अंग्रेज हमला करते रहे, वहाँ सैफुल्ला खान मदद में जाते रहे।
आजादी की लड़ाई का यही सबक अब्दुल गफ्फार खान ने अपने दादा से सीखा था। उनके पिता बैराम खान का स्वभाव कुछ भिन्न था। वे शांत स्वभाव के थे और ईश्वरभक्ति में लीन रहा करते थे। उन्होंने अपने लड़के अब्दुल गफ्फार खान को शिक्षित बनाने के लिए मिशन स्कूल में भरती कराया यद्यपि पठानों ने उनका बड़ा विरोध किया। मिशनरी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात् वे अलीगढ़ गए किंतु वहाँ रहने की कठिनाई के कारण गाँव में ही रहना पसंद किया। गर्मी की छुट्टियाँ में खाली रहने पर समाजसेवा का कार्य करना उनका मुख्य काम था। शिक्षा समाप्त होने के बाद यह देशसेवा में लग गए।
पेशावर में जब १९१९ ई. में फौजी कानून (मार्शल ला) लागू किया गया उस समय उन्होंने शांति का प्रस्ताव उपस्थित किया, फिर भी वे गिरफ्तार किए गए। अंग्रेज सरकार उनपर विद्रोह का आरोप लगाकर जेल में बंद रखना चाहती थी अत: उसकी ओर से इस प्रकार के गवाह तैयार करने के प्रयत्न किए गए जो यह कहें कि बादशाह खान के भड़काने पर जनता ने तार तोड़े। किंतु कोई ऐसा व्यक्ति तैयार नहीं हुआ जो सरकार की तरफ ये झूठी गवाही दे। फिर भी इस झूठे आरोप में उन्हें छह मास की सजा दी गई।
१९३० ई. में सत्याग्रह आंदोलन करने पर वे पुन: जेल भेजे गए और उन्हें गुजरात (उस समय पंजाब का भाग) की जेल भेजा गया। वहाँ पंजाब के अन्य बंदियों से उनका परिचय हुआ। उन्होंने जेल में सिख गुरुओं के ग्रंथ पढ़े और गीता का अध्ययन किया। हिंदू मुस्लिम एकता को ज़रूरी समझकर उन्होंनें गुजरात की जेल में गीता तथा क़ुरान की कक्षा लगायीं, जहाँ योग्य संस्कृतज्ञ और मौलवी संबंधित कक्षा को चलाते थे। उनकी संगति से सभी प्रभावित हुए और गीता, क़ुरान तथा गुरु ग्रंथ साहब आदि सभी ग्रंथों का अध्ययन सबने किया। बादशाह ख़ान (ख़ान अब्दुल ग़़फ्फ़ार ख़ान) आंदोलन भारत की आज़ादी के अहिंसक राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करते थे और इन्होंने पख़्तूनों को राजनीतिक रूप से जागरूक बनाने का प्रयास किया। १९३० के दशक के उत्तरार्द्ध तक ग़़फ्फ़ार ख़ां महात्मा गांधी के निकटस्थ सलाहकारों में से एक हो गए और १९४७ में भारत का विभाजन होने तक ख़ुदाई ख़िदमतगार ने सक्रिय रूप से कांग्रेस पार्टी का साथ दिया। इनके भाई डॉक्टर ख़ां साहब (१८५८-१९५८) भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी थे।
खुदाई खिदमतगार का जो सामाजिक संगठन उन्होंने बनाया था, उसका कार्य शीघ्र ही राजनीतिक कार्य में परिवर्तित हो गया। खान साहब का कहना है : प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती है कि हम खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है। और हमारे नेता सदा आगे बढ़ते चलते है। मौत को गले लगाने के लिये हम तैयार है। १९३० ई. में सत्याग्रह करने पर वे पुन: जेल भेजे गए और उनका तबादला गुजरात (पंजाब) के जेल में कर दिया गया। वहाँ आने के पश्चात् उनका पंजाब के अन्य राजबंदियों से परिचय हुआ। जेल में उन्होंने सिख गुरूओं के ग्रंथ पढ़े और गीता का अध्ययन किया। हिंदु तथा मुसलमानों के आपसी मेल-मिलाप को जरूरी समझकर उन्होंने गुजरात के जेलखाने में गीता तथा कुरान के दर्जे लगाए, जहाँ योग्य संस्कृतज्ञ और मौलवी संबंधित दर्जे को चलाते थे। उनकी संगति से अन्य कैदी भी प्रभावित हुए और गीता, कुरान तथा ग्रंथ साहब आदि सभी ग्रंथों का अध्ययन सबने किया
२९ मार्च सन् १९३१ को लंदन द्वितीय गोल मेज सम्मेलन के पूर्व महात्मा गांधी और तत्कालीन वाइसराय लार्ड इरविन के बीच एक राजनैतिक समझौता हुआ जिसे गांधी-इरविन समझौता (उaह्प्ग्–घ्rैग्ह झ्aम्ू) कहते हैं। गांधी इरविन समझौता।गांधी इरविन समझौते के बाद खान साहब छोड़े गए और वे सामाजिक कार्यो में लग गए।
गांधीजी इंग्लैंड से लौटे ही थे कि सरकार ने कांग्रेस पर फिर पाबंदी लगा दी अत: बाध्य होकर व्यक्तिगत अवज्ञा का आंदोलन प्रारंभ हुआ। सीमाप्रांत में भी सरकार की ज्यादतियों के विरूद्ध मालगुजारी आंदोलन शुरू कर दिया गया और सरकार ने उन्हें और उनके भाई डॉ॰ खान को आंदोलन का सूत्रधार मानकर सारे घर को कैद कर लिया।
१९३४ ई. में जेल से छूटने पर दोनों भाई वर्धा में रहने लगे। और इस बीच उन्होंने सारे देश का दौरा किया। कांग्रेस के निश्चय के अनुसार १९३९ ई. में प्रांतीय कौंसिलों पर अधिकार प्राप्त हुआ तो सीमाप्रांत में भी कांग्रेस मंत्रिमडल उनके भाई डॉ॰ खान के नेतृत्व में बना लेकिन स्वयं वे उससे अलग रहकर जनता की सेवा करते रहे। १९४२ ई. के अगस्त आंदोलन के सिलसिले में वे गिरफ्तार किए गए और १९४७ ई. में छूटे।
मशहूर राजनयिक नटवर सिंह अपनी किताब ‘वॉकिंग विद लायंस, टेल्स फ़्रॉम डिप्लोमेटिक पास्ट में' लिखते हैं,`काँग्रेस के पाँच लोगों ने भारत के विभाजन का विरोध किया, महात्मा गांधी, ख़ान अब्दुल ग़़फ्फ़ार ख़ान, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद. ३१ मई से २ जून के बीच १९४७ में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई जिसमें पाकिस्तान को स्वीकार करने का अहम फ़ैसला लिया गया. सीमांत गांधी को लगा कि उनके साथ धोखा किया गया है.'
देश का बटवारा होने पर उनका संबंध भारत से टूट सा गया किंतु वे देश के विभाजन से किसी प्रकार सहमत न हो सके। इसलिए पाकिस्तान से उनकी विचारधारा सर्वथा भिन्न थी। पाकिस्तान के विरूद्ध उन्होने स्वतंत्र पख़्तूनिस्तान आंदोलन आजीवन जारी रखा। देश के विभाजन के विरोधी ग़़फ्फ़ार ख़ां ने पाकिस्तान में रहने का निश्चय किया, जहां उन्होंने पख़्तून अल्पसंख़्यकों के अधिकारों और पाकिस्तान के भीतर स्वायत्तशासी पख़्तूनिस्तान (या पठानिस्तान) के लिए लड़ाई जारी रखी। भारत का बँटवारा होने पर उनका संबंध भारत से टूट सा गया किंतु वह भारत के विभाजन से किसी प्रकार सहमत न थे। पाकिस्तान से उनकी विचारधारा सर्वथा भिन्न थी। पाकिस्तान के विरुद्ध स्वतंत्र पख़्तूनिस्तान आंदोलन चलाते रहे। उन्हें अपने सिद्धांतों की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी, वह कई वर्षों तक जेल में रहे और उसके बाद उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में रहना पड़ा।
इनका संस्मरण ग्रंथ `माई लाइफ़ ऐंड स्ट्रगल' १९६९ में प्रकाशित हुआ।
१९७० में वे भारत और देश भर में घूमे। बादशाह ख़ान के भतीजे मोहम्मद यूनुस अपनी आत्मकथा `परसंस, पैशंस एंड पॉलिटिक्स' में लिखते हैं, `जब बादशाह ख़ान हाथों में अपने कपड़ों की गठरी लिए हुए नीचे उतरे तो इंदिरा गांधी ने उसे उनके हाथ से लेने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने उसे देने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा आप वैसे ही बहुत बड़ा बोझ उठा कर चल रही हैं. मुझे अपना हिस्सा उठाने दीजिए. बादशाह ख़ान भारत में जहाँ-जहाँ गए लोगों की बड़ी भीड़ उनको सुनने के लिए उमड़ पड़ी.' १९७२ में वह पाकिस्तान लौटे। १९८५ के `कांग्रेस शताब्दी समारोह' के आप प्रमुख आकर्षण का केंद्र थे।
न सिर्फ़ ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कई साल जेल में रखा, बल्कि आज़ादी के बाद पाकिस्तान की सरकार भी उन्हें जेल में रखने से पीछे नहीं रही. वर्ष १९८७ में ख़ान अब्दुल ग़़फ्फ़ार ख़ान एक बार फिर भारत आए, जहाँ उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न दिया गया. २० जनवरी १९८८ की सुबह ६ बजकर ५५ मिनट पर बादशाह ख़ान ने ९८ वर्ष की उम्र में अंतिम साँस ली. उनकी अंतिम इच्छा थी कि उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में जलालाबाद में उनके घर के अहाते में दफ़नाया जाए. फ़्रंटियर गांधी के क़रीब बीस हज़ार प्रशंसकों और समर्थकों ने पाकिस्तान में उतमनज़ई से उनके जनाज़े के साथ बिना किसी पाकिस्तानी पासपोर्ट और अफ़ग़ान वीज़ा के डूरंड लाइन पार कर अफ़ग़निस्तान में प्रवेश किया.
उनके साथ कारों, ट्रकों और बसों का एक लंबा काफ़िला गया. जलालाबाद में इस जलूस में कई और हज़ार लोग शामिल हो गए. उनके अंतिम संस्कार में पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल ज़िया-उल-हक़ और भारत के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी दोनों मौजूद थे.
लाल कुर्ती आन्दोलन भारत में पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त में ख़ान अब्दुल ग़़फ्फ़ार ख़ान द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थन में ख़ुदाई ख़िदमतगार के नाम से चलाया गया एक ऐतिहासिक आन्दोलन था। `ख़ुदाई ख़िदमतगार' एक पश्तो शब्द है जिसका हिन्दी में अर्थ होता है `ईश्वर की बनाईं हुई विश्व के सेवक'। हाल के वर्षों में भारत में खुदाई खिदमतगार को फिर से जीवित करने का प्रयास किया गया है. खान अब्दुल गफ्फार खान के एक अनुयायी फैसल खान ने संगठन की इकाइयां देश के कई राज्यों में स्थापित कर, युवाओं को धार्मिक सौहाद्र से रहने, जनसेवा करने एवं सीमान्त गांधी के विचारों के ओर ले जाने के लिए कोशिश की है।
अनीस राही
हरिद्वार
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