यमुना की कराह
किनारे लगी सीढ़ियों को बहुत दूर छोड़कर यमुना ने बना लिया है अपनी मझधार को किनारा , लहरों पर तैरते , डूबते शब्द ठहर गए हैं पीड़ा के बोझ से ,
किनारे लगी सीढ़ियों को बहुत दूर छोड़कर
यमुना ने बना लिया है अपनी
मझधार को किनारा ,
लहरों पर तैरते , डूबते शब्द ठहर गए हैं
पीड़ा के बोझ से ,
घायल नदी ने ढक लिया है ज़ख्म अपना
घने स्याह चादर से ,
यमुना अब नहीं पखारती
किसी थके हारे पथिक के पांव ,
उसकी कल –कल, छल –छल सखियां
अब नहीं सुनती चाव से किसी माझी का प्रेममय संगीत
नदी अब नहीं चाहती
चंद डुबकियों में धूल जाएं बड़े से बड़ा पाप ।
सदियों से ढोते हुए सभ्यताओं के विकास का मलबा
जमुना ने झेली है अपने अस्तित्व पर प्रहार ,
नदी अब दर्द से चीखती नहीं ..
कराहती है
काली कालिंदी मलीनता से हो खिन्न लाचार
सभ्यताओं के मलबे को रख दोनों किनार,
तनुजा समेट रही अपनी ही कोख में स्वयं का विस्तार ,
बटेश्वर घाट पर बैठी
मैं सुनती रही
बहुत देर तक
उसकी मौन सिक्त आवाज़
मैं लौट आईं हूं
अपने हिस्से की जमुना साथ लेकर
वह अब भी लेटी है
स्याही चादर ताने
और
मेरे कानों में गूंज रही
सिसकती नदी की कराह !!
पल्लवी पाण्डेय
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