रुपए पैसे के रिश्ते

बेटी को भरोसा था कि मैं उसकी कही बात टालूँगा नहीं। जैसे जैसे भरोसे की अवधी बढ़ती जा रही थी। उसका विश्वास टूटता जा रहा था। अविश्वास से मेरे प्रति श्वेता के भीतर नफ़रत पैदा होने लगी थी। वह खुलकर कुछ बोल भी नहीं पा रही थी।पर, उसके भीतर की आग को मैं महसूस कर रहा था। बेटी पर दामाद का दबाव भी बढ़ता जा रहा था।

Mar 13, 2024 - 15:30
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रुपए पैसे के रिश्ते
RUPEE

वक्त की मुसीबत को पास लिए बैठा हूँ और  मन सोच की खिड़की से इधर-उधर झांक रहा है।

कल की बात है, जिसे कहते हुए... बताते हुए भी संकोच कर रहा हूँ। कुछ बातें ऐसी होती है, जिसे किसी दूसरे से शेयर नहीं की जा सकती है। पूरी तरह से गोपनीय... व्यक्तिगत... । इसे मजबूरी कहिए या बेबसी, आदमी सोचता कुछ और है और कर डालता कुछऔर है। मैं मानता हूँ , ऐसा हो जाता है। इसे ही कुछ लोग किस्मत कहते हैं। शाय, यही मेरी भी किस्मत रही हो...।

सोचा था रिटायर्मेंट के बाद सुकून भरी ज़िन्दगी जीऊँगा। देश-दुनिया घूमूँगा और कुछ दिनों तक गाँव की स्वच्छ वायु में रहकर थम रही सांसों को ताजगी प्रदान करूँगा। पर, ऐसा संभव होता दिख नहीं रहा है।

रात बेटी श्वेता का फोन आया तो मन नाना तरह की बेचैनियों से घिर गया। एक मन बात करने से कतराता रहा तो दूजे यह सोचकर घबड़ाता रहा कि श्वेता क्या सोचेगी…. यदि बात नहीं की तो…? उधेड़बुन से बाहर निकलता कि फोन कट गया।

दरअसल रिटायर्मेंट के बाद जो मेरी स्थिति हो गई है। बखान नहीं किया जा सकता...। व्याकुलता में गठ्ठरी-सा सिमट गया हूँ। यही मेरी परेशानी का सबब है। बच्चों की बेरोजगारी और मेरी भविष्य निधि (प्रोविडेंट फंड) की राशि एकमएक होकर कई तरह की चिन्ताएं बढ़ा दी है। चिन्ताओं के धुंध से निकलने की जद्दोजहद ने मेरा ब्लडप्रेशर बढ़ा रखा है। बेटी चाहती है कुछ रूपए। दामाद का भी रिक्वेस्ट आया है। रिक्वेस्ट में उसने रूपए लौटा देने को भी बात कही है। न जाने क्यों... इसे मैं धोखा समझ रहा हूँ। रुपये-पैसे के लेन-देन से रिश्ते बनते भी हैं और बिगड़ भी जाते हैं। इसलिये मैंने कभी भी रुपए-पैसे के रिश्ते से संबंध जोड़कर रखना उचित नहीं समझा। मैंने उसे टाल  देना चाहा-" बेटा,अभी तो मैं रिटायर हुआ हूँ। मुझे मिलता कितना है…यह देखने के बाद ही कुछ कह पाऊँगा..दे पाऊँगा या नहीं...।"

" ठीक है पापा।" उसके मायूस स्वर बेचैन कर गये। 

बेटी को भरोसा था कि मैं उसकी कही बात टालूँगा नहीं। जैसे जैसे भरोसे की अवधी बढ़ती जा रही थी। उसका विश्वास टूटता जा रहा था। अविश्वास से मेरे प्रति श्वेता के भीतर नफ़रत पैदा होने लगी थी। वह खुलकर कुछ बोल भी नहीं पा रही थी।पर, उसके भीतर की आग को मैं महसूस कर रहा था। बेटी पर दामाद का दबाव भी बढ़ता जा रहा था। और यही नफरत का कारण भी। इस नफ़रत को पाटने के लिए मैंने कुछ रुपए दामाद को दे देना ही उचित समझा और फोन लगाया -" हैलो..।"

" बाबूजी प्रणाम। "

" अपना एकाउंट नम्बर भेजेंगे।"

" अभी भेजता हूँ बाबूजी।" थोड़ी देर में दामाद जी ने अपना खाता नम्बर वॉट्शप कर दिया।स्वेच्छानुसार उसके एकाउंट में कुछ रुपए ट्रांसफर कर दिया।

कुछ ही दिनों बाद यह खबर आकाश को लग गई। आकाश तीन बेटों में सबसे बड़ा। जिसकी नौकरी मुँह पर आकर अटक गई थी। कई बार उसने कहा-" पापा,घुस देना होगा।तब जाकर ज्वाइनिंग लेटर मिलेगा।"

" घुस….!"

" हाँ...।"

" कितना…?"

" कम से कम पाँच लाख...। "उसने मायूस स्वर में कहा।

" दोगे किसे…?"मैंने पूछा।

" वो अपने बासु दा हैं न...।"

" बासु दा...कौन...वो लीडर...।"

" हाँ, उन्होंने कई और लड़कों से भी लिया है। उनकी बातचीत सीधे एजुकेशन मिनिस्टर से हुई है। "आकाश ने सारी बातें पूरे विश्वास से बताई। जैसे घुस ही उसकी सर्विस की गारंटी हो। 

मैंने अपना एकाउंट टटोला, रिटायर्मेंट के मिले प्रोविडेंट फंड पर एक नजर डाली, फिर धीरे से कहा -" यह कुछ ज्यादा नहीं है।"

उसने चुप्पी साध ली। उसकी मजबूरी भ्रष्टाचार के गहरे कुएं में जा गिरी। जहाँ से निकलना मुमकिन ही नहीं...नामुमकिन है। मैं भी क्या करता…? समय ही ऐसा आ गया है। मध्यवर्गीय परिवार का उत्थान और पतन  कुछ इसी तरह से रासायनिक खाद में दब्लील होता जा रहा है। बेटे और बेटी की खुशी से ज्यादा कोई धन-दौलत नहीं…!

यह मैं समझ रहा था। परन्तु भविष्य के खतरे भी कुछ कम नहीं। बुढ़ापे में यदि लड़के साथ छोड़ दिये और  सारे पैसे उन्हीं पर लुटा दिये तो…..?संकट के पहाड़ तले दबकर मर जाना होगा। खैर...पहले से जो संकट सिर पर चढ़कर बैठा हुआ है उसे तो उतार लें।

आकाश टीचर हो गया। उसकी जिन्दगी बदल गई। वह अपने परिवार के साथ मालदा टाउन जा बसा।बीच-बीच में मुझे बहुत कुछ समझाता रहता। उसकी समझदारी पर मुझे कभी हँसी आती कभी क्रोध भी आता था। वह खुद के लिए सुविधाओं का पहाड़ खड़ा करना चाहता था पर, अपने भाइयों पर एक पैसा खर्च करना नहीं चाहता था। उसे यह भी ख्याल नहीं कि अभी दो-दो भाई बेरोज़गारी के इस आँगन में खेल-कूद रहे हैं। उनकी भी कुछ आशाएं हैं...आकांक्षाएं हैं।

सरोज ने पढ़ाई पूरी करके नौकरी के लिए हाथ-पांव मारना शुरू कर दिया था।कभी वह बैंकिंग के लिए कंपटीशन की तैयारी करता दिख रहा था तो कभी रेलवे की परीक्षा की तैयारी....। परीक्षाएं भी खूब दी। नौकरी की आशा भी बंधती पर, ज्वाइनिंग लेटर की आस में आँखें पथरा जाती रहीं। जैसे जैसे नौकरी की आस जाती रही, उम्र थकान की पहाड़ी पर चढ़ती चली गई थी। सरकारी नौकरी से उसका मोह भंग होता गया था। अब प्राइवेट नौकरी की तलाश में जुटा था। यह मिलना भी आसान नहीं रह गया था।इसलिए उसने ड्राइविंग की ओर मुड़ा था। कुछ ही दिनों में उसने ड्राइविंग लाइसेंस भी हासिल कर लिया था। हैवी गाड़ी चला सकता था परन्तु,उसने छोटी गाड़ी चलाने का निर्णय लिया था। बल्कि चलाने भी लगा था प्राइवेट कार...। अपनी गाड़ी चलाने और दूसरे की गाड़ी चलाने के बीच होने वाली आमदनी पर उसने अपनी नजर जमाए रखी थी। नौकर और मालिक के बीच की अर्थ-नीति जैसे ही समझ में आई कि एक दिन मौका पाकर उसने मेरी गर्दन पकड़ ली-"पापा, मुझे गाड़ी खरीदनी है। "

"गाड़ी…?"

"हाँ...गाड़ी..।"

"नयी कि सेकेंड हैंड...। "मैंने पूछा।

उसने एक कुशल मैनेजमेंट की तरह समझाते हुए कहा-"सेकेंड हैंड गाड़ी खरीदने का कोई लाभ नहीं...जितने की गाड़ी नहीं उतने का मेंटेनेंस खर्च हो जायेगा इसलिए,खरीदना है तो नयी कार ही खरीदेंगे।"

"पैसे वैसे…?"

"मैंने एक फिनान्स कंपनी से बात कर ली है। "उसने बड़े ही मीठे अंदाज में कहा। "किस्त पर गाड़ी दिलवा देगा पर…?"

"पर क्या…?"

"पर, सिक्युरिटीज मनी के तौर पर आप की मदद चाहिए।"

"मेरी मदद...कैसी मदद…?"मैंने पूछा।

"आपने जो फिक्स्ड डिपॉजिट करा रखा है, उसे सिक्युरिटीज मनी के हिसाब से उसके पास गिरवि रखना होगा। "उसने मुस्कुराते हुए कहा।

यह सुनते ही मेरे होश उड़ गए। कई दिनों तक मेरी सुध बुद्ध खोई रही। निर्णय को लेकर संदिग्धता बनी रही। सरोज के चेहरे पर खुशहाली की लहर उमड़ती रही। और एक दिन वो किसी फिनान्स मैनेजर को लेकर घर आ गया।पहले तो उस मैनेजर ने गाड़ियों के बारे में समझाया। नाना तरह की गाड़ियों की खूबियों और खामियों के विषय में बातें करता रहा। फिर उसने चलाक लोमड़ी की भाँति अपनी बात पर उतर आया -"वैसे फायदा तो गाड़ी नकद खरीदने में ही है लेकिन बैंक से लोन लेकर भी लिया जा सकता है।"

"यह निर्णय सरोज को लेना है।"

"मैंने निर्णय ले लिया है पापा…। "उसने तुरंत जवाब दिया। "बैंक से लोन लेगें।"

उधर पीछे की ओर बैठा प्रदीप हमारी बातें न जाने कब से सुन रहा था। उसके भीतर कुछ चल रहा था। सरोज के निर्णय पर कुढ़ रहा था या फिर मेरी उदारता पर क्रोधित हो रहा था , कह नहीं सकता था। पर,उसके आव भाव को देखते हुए अंदाज लगाया जा सकता था कि वह गाड़ी-वाड़ी खरीदने के पक्ष में नहीं था। जैसे मैं खाली हुआ कि उसने धावा बोल दिया-" सरोज भैया का निर्णय सही नहीं है...वे दूसरे की गाड़ी चला रहे हैं चलाने दीजिए...नई गाड़ी खरीदने का जोखिम न उठाए तो अच्छा है।"

बहुत देर तक मैं खामोशी के चक्रवात में फंसा रहा। चक्रवात से निकलने का मौका तब मिला जब उसने अपनी जुबान खोली-"पापा, मैं चाहता हूँ कि सरोज भैया इलेक्ट्रॉनिक गुड्स की दुकान खोलें...।"

"फायदा….?"

"फायदा ही फायदा है...। "उसने गंभीरता की चादर ओढ़ते हुए कहा-"मोबाइल घर-घर,हाथ-हाथ है। बाजार पकड़ते देर नहीं लगेगी और एक बार बाजार पकड़ लिए तो समझ लीजिए कि पूरा मुहल्ला...पूरा शहर हमारी मुट्ठी में होगा।"

प्रदीप ने मेरे भीतर द्वंद्वात्मक लहर पैदा कर दी। बाजारवाद की पूरी थ्योरी खोलकर रख दी। मैंने उसकी थ्योरी समझने की चेष्टा की। प्रदीप को बाजार चाहिए और बाजार में दुकान...। सरोज को चाहिए गाड़ी और गाड़ी के अलावे कुछ नहीं चाहिए। दोनों को चाहिए मेरा खून और पैसा। मैंने दोनों को समझाने की भरपूर कोशिश की। बाजार की गिरती और चढ़ती बेईमानी का आईना दिखाते हुए कहा-"बाज़ार में खड़े होने के लिए एक बड़ी पूँजी चाहिए। लुच्ची पूँजी…! कहाँ से लाओगे?"

" आप का प्रोविडेंट फंड है न...।" उसने विद्रुप हँसी हँसते हुए कहा।

दोनों की मनसा मैं समझ गया और चुप्पी साध ली। पर, समय और समाज का हमला होता रहा। न तो सरोज ने मेरी बात सुनी और न ही प्रदीप ने...। जैसे जैसे बाज़ार की खेती से उनका घर संपन्न होता गया। प्रतिद्वन्द्विता की चमक भी बढ़ती गई। और मैं उनकी चमक का घोड़ा बनता गया ….। उनके अवसरवाद को अपनी पीठ पर लादे हुए ढ़ोता रहा निरंतर। उनके नफा-नुकसान का साँप मुझे डंसता रहा।

धीरे-धीरे मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ता गया था। पत्नी देख और समझ रही थी। परन्तु वह कर भी क्या सकती थी? लड़ती भी तो किससे लड़ती…? चारो तरफ अपनेपन की बाढ़ थी। जिसमें हम बहे जा रहे थे। एक एक करके रुपए-पैसे के रिश्ते भी दरकते गये थे। दुरियाँ जीवन को कठिन बनाती गई थी।

   शिव कुमार यादव 

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