सिनेमा

सिनेमा थियेटर जो डाल्बी साउंड से दर्शकों को अंत तक थर्राता रहता है, के बेहतरीन प्रतिध्वनि कर्टेंस और स्थापत्य और भव्यता हमें बरबस खींच ले जाती है‌‌ और हम सभी कहते भी नहीं थकते कि सिनेमा का मजा तो केवल थियेटर में ही है।

Jun 7, 2025 - 17:50
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सिनेमा
Cinema

मनोरंजन मानव जीवन का अभिन्न अंग है। यह हमारे जीवन में रचा बसा है। उदाहरण के लिए नृत्य संगीत, चित्रकला, खेलकूद या विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियां। आधुनिक जीवन में सिनेमा, टेलीविजन, कम्प्यूटर, गेमिंग कम्प्यूटर, रेडियो और स्मार्ट फोन भी मनोरंजन का साधन है।
अब जब हम सिनेमा की बात करते हैं तो यह हम सभी जानते हैं कि एक मैटिनी शो हमारे पूरे दिन भर के कार्यक्रमों को बदल देता है भले ही वे कितने ही आवश्यक क्यों न हों।
ऐसा क्यों?
सिनेमा थियेटर जो डाल्बी साउंड से दर्शकों को अंत तक थर्राता रहता है, के बेहतरीन प्रतिध्वनि कर्टेंस और स्थापत्य और भव्यता हमें बरबस खींच ले जाती है‌‌ और हम सभी कहते भी नहीं थकते कि सिनेमा का मजा तो केवल थियेटर में ही है।
यही कारण है कि मैं भी अमेजान या फ्लिपकार्ट में नये नये होम थिएटर ढूंढता रहता हूं और ढेर सारे ये प्रोडक्ट्स ख़रीद लेने के बावजूद मुझे मेरे प्रिय थीम सांग्स आज भी पी वी आर में ही अच्छे लगते हैं। हां यहां दो फायदे और मिल जातें हैं एक तो सोशल स्टेटस और दूसरा वाट्स एप स्टेटस। अगर आप किस्मत वाले भी हो तो हो‌ सकता है आप अपनी पसंदीदा रो में हों।
जब मैं छोटा था तो फिल्म के साथ-साथ पीछे चलने वाले प्रोजेक्टर्स भी मुझे बेहद आकर्षित करते थे। अंधेरे में उससे निकलने वाली रोशनी भी चलायमान लगती है। बड़े होने पर फिल्म डिस्टीब्यूटर्स से मुलाकात का मौका और सिनेमा की सम्पूर्ण विधा तथा तकनीक को‌ समझने का मौका मिला।
फिल्म के‌‌ विज्ञान पर‌ ध्यान दें तो हम जानते हैं कि पारंपरिक फिल्म कैमरों में रोल्स का इस्तेमाल किया जाता था जो सिल्वर ब्रोमाईड से बनतें है और वे रोशनी को अवशोषित कर‌ लेतें हैं। वे ही प्रोसेसिंग के पश्चात प्रोजेक्टर्स से फिल्म थिएटर में दिखाये जाते थे।
आधुनिक फिल्म कैमरों और प्रोजेक्टर्स में डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल होता है रोल्स नहीं और यहां इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज रोशनी अवशोषित करते हैं और उन्हें इलेक्ट्रॉनिक रूप से प्रोसेस कर प्रदर्शित किया जाता है।
यही कारण है कि परंपरा अनुसार आज भी फिल्मों के जगत को 'सिल्वर स्क्रीन' कहा जाता है।
इसके अलावा फिल्म थिएटर के निर्माण की भी तकनीकी है और इसमें पर्दों का इस्तेमाल, प्रतिध्वनि (रिवर्बिरेशन) स्थापत्य जैसे कि चिकनी और सपाट दीवारों की जगह कलाकृति युक्त दीवारों का इस्तेमाल होता है और यही कारण है आपके महंगे से महंगे होम थिएटर भी सामान्य से फिल्म थिएटर या आज के अत्याधुनिक पी वी आर का मुकाबला नहीं कर सकते।
फिल्म निर्माण की विधा भी पूरे विश्व में अलग अलग हैं। इसका कारण यह है कि जैसा हम कहते हैं कि फिल्में समाज का आईना है। इसलिए पूरे विश्व में हर देश की फिल्में उस देश की विशिष्टता को समाहित किये हुये रहतीं हैं।
हमारे देश में फिल्में सामाजिक समस्याओं, मनोरंजन, हास्य और नाट्य विशिष्टता (ड्रामा) से युक्त होती हैं।
मेरा मानना है कि भारतीय सिनेमा की सभी श्वेत श्याम ( ब्लैक एंड व्हाइट) फिल्में विश्वस्तरीय और भारतीय धरोहर हैं और बाद की सभी फिल्मों को हम इस स्तर पर रखने के लिए उंगलियों पर गिन‌ सकतें हैं। जबकि मेरी जानकारी के अनुसार भारत में हर वर्ष लगभग ८०० से अधिक फिल्में बनतीं हैं।
विश्व सिनेमा से तुलना करने पर हम सभी जानते हैं कि विशेषकर हालीवुड फिल्में हमें हतप्रभ कर देतीं हैं। उनकी साई फाई (काल्पनिक विज्ञान विषयक) अतुलनीय हैं उदाहरण के लिए प्रसिद्ध फिल्में जुरासिक पार्क और अवतार।
वी एफ एक्स (फिल्म में कम्प्यूटर तकनीकी) के इस्तेमाल में वे उल्लेखनीय है उदाहरण के लिए एक और उल्लेखनीय फिल्म टाइटैनिक।
हमारे यहां भी इन‌ तकनीकों का इस्तेमाल किया गया है परन्तु मैं केवल एक फिल्म का नाम लेना चाहूंगा और वह है दक्षिण भारतीय ब्लाक बस्टर मगाधीरा।
तुलनात्मक रूप से और स्पष्टतः भारतीय फिल्में अभी भी तकनीकी रूप से काफी पीछे है यद्यपि कहानी प्रस्तुतिकरण में उनका सानी नहीं है जब बात भारतीय भावनाओं की हो।
और यदि गानों की बात हो तो यह बात पूरी दुनिया में सिर्फ बालीवुड में है और वे आपको जब चाहे रूला भी सकते हैं और हंसा भी बशर्ते आप मनुष्य हों।
भारत में यद्यपि विभिन्न सामाजिक विषयों पर फिल्में बनायीं जाती रही है फिर भी फिल्म निर्माण में केवल कहानी पर ही ध्यान दिया जाता रहा है और आज भी अन्य सभी तकनीकी पहलुओं को नजरंदाज कर दिया जाता है यहां तक कि जब ऐतिहासिक फिल्में बनायी जाती है और जहां तकनीकी रिसर्च और उपयुक्त सेट्स की अनिवार्य आवश्यकता होती है।
तुलनात्मक रूप से इस संदर्भ में मैं प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय फिल्म गांधी का उल्लेख करूंगा। इसका कारण हम सभी जानते हैं कि हमारा सामाजिक और राजनीतिक परिवेश। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे यहां फिल्में पैसा कमाने का साधन है न कि सामाजिक मुद्दों को उजागर करना या एक कला विधा का वैश्विक प्रदर्शन।
फिर भी प्रारंभिक श्वेत श्याम फिल्में दिल को कुछ ठंडक प्रदान करतीं हैं। मैं यहां यह भी कहना चाहूंगा कि एक प्रसिद्ध भारतीय फिल्म जो कुछ वर्षों पूर्व ऐकेडमिक अवार्ड (आस्कर अवार्ड) के लिए भारत से भेजी गई असफल हो ग‌ई क्योंकि वहां की अवार्ड समिति (ज्यूरी) को भारतीय दल फिल्म की संकल्पना को समझा नहीं सके और न ही उन्हें फिल्म के संदर्भों से अवगत कराया।
भारत आज भी फिल्म के वैश्विक मानक को‌‌ नहीं छू पाया है जो सैंतालीस में था। भारतीय मूल्य पतित हो गए हैं। सैंतालीस में यह विश्व की सबसे महंगी मुद्रा के बिल्कुल बराबर था- एक और आज १ / १००।
मेरी आज की एकमात्र १००‌ प्रतिशत फिल्म को छोड़कर - ओके जानूं।
पी वी आर में ही देखें।

अजय कुमार मिश्र
मध्य प्रदेश

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