ऐसा गाँव जहाँ मनाये जाते हैं बारह महीनों के बारह त्यौहार

  संक्रांति की सुबह ४ बजे ब्रह्म मूहुर्त में जागरण के समापन के साथ पुजारी द्वारा सुफल के रूप में बीते दिन लाये गये ब्रह्मकमल बांटे जाते हैं। ये सुफल ग्रहण करते ही सभी भक्त अपने अपने घरों को प्रस्थान कर जाते हैं।  `कार्तिक मास’- उत्तराखंड के अन्य भागों की तरह दीपावली रांसी गाँव में भी मनाई जाती है।

May 29, 2025 - 13:39
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ऐसा गाँव जहाँ मनाये जाते हैं बारह महीनों के बारह त्यौहार
A village where twelve festivals of twelve months are celebrated

    भारत के जन जीवन में सांस्कृतिक अवयवों की आलौकिक छठा के कारण ही इसे विश्व का सबसे अनोखा देश कहा जाता है। क्षेत्रफल में विश्व के कई देशों के सम्मिलित क्षेत्रफल से भी अधिक ७वें बड़े इस देश की बड़ी एक बड़ी खूबी यह भी है कि एक ही समय में पूरे देश में कई ऋतुएं, तीज त्योहार, वेश भूषा, खानपान चलता रहता है। कहीं कड़ाके की ठंड बढ़ रही होती है तो कहीं सुहावना मौसम अपने यौवन पर होता है। इस देश का एक ऐसा ही प्रदेश है उत्तराखंड। विश्वविख्यात फूलों की घाटी, विश्व की सबसे बड़ी पैदल धार्मिक नंदादेवी यात्रा, हिन्दुओं के चार धामों में से एक बदरीनाथ के कारण उत्तराखंड विश्व में विशिष्ट पहचान रखता है। इसी 
    उत्तराखंड प्रदेश का एक ऐसा भी गाँव है जिसमें साल के बारह महीनों के बारह त्योहार होते हैं। इससे पहले कि हम इस गाँव के इन अनोखी परम्पराओं को जानें उससे पहले इस गाँव से भौगोलिक परिचय कर लेते हैं। यह गाँव है उत्तराखंड के जनपद रुद्रप्रयाग का राँसी गाँव। राँसी गाँव निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेश से २०८ कि०मी० की दूरी पर है। यहाँ पहुँचने के लिए ऋषिकेश से नेशनल हाइवे संख्या ५८ पर १४० कि०मी० दूर रूद्रप्रयाग पहुँचना पड़ता है। रूद्रप्रयाग ही वह स्थान है जहाँ से केदारनाथ व बद्रीनाथ के लिए सड़क मार्ग अलग अलग हो जाते हैं। यहाँ से केदारनाथ मार्ग (नेशनल हाइवे संख्या १०९) पर ४० कि.मा. की दूरी पर कुण्ड नामक स्थान पड़ता है। यहाँ से एक रास्ता, जो केदारनाथ का मुख्य मार्ग है, केदारनाथ के लिए चला जाता है और दूसरा मार्ग ऊखीमठ चला जाता है। (इसी मार्ग से चोपता, गोपेश्वर, चमोली होते हुए भी बद्रीनाथ पहुँचा जा सकता है।) ऊखीमठ से एक मार्ग चोपता, गोपेश्वर के लिए चला जाता है और दूसरा मार्ग पहुँचता है राँसी,जो कुण्ड नामक स्थान से २८ कि०मी० की दूरी पर है। राँसी से ३कि०मी० आगे तक द्वितीय केदार मध्यमहेश्वर पँहुचने के लिए सड़क जाती है, जहाँ से फिर १८ कि.मी. पैदल चलकर मध्यमहेश्वर पँहुचा जा सकता है। इसी द्वितीय केदार के रास्ते पर पड़ता है राँसी गाँव।
आइये जानते हैं कि इस गाँव का नाम रांसी क्यों पड़ा
गाँव का यह नाम कैसे पड़ा के बारे में यहाँ के मन्दिर के पुजारी और शिक्षक रविन्द्र भट्ट ने बताया कि राँसी गाँव में भगवती राकेश्वरी का मन्दिर है। स्थानीय भाषा में भगवती राकेश्वरी को राँस माई कहा जाता है। कालान्तर में यही नाम प्रचलन में आने के कारण  इस गाँव का नाम राँसी पड़ा। 
कौन थी राकेश्वरी माई-


केदारखंड के अध्याय ९१ में इस संबंध में वर्णित है कि - 


`कथं वै प्राप्तवाशांप चन्द्रो दाक्षायणीपति:।'
`कथं च मुक्तवाच्छापादिति मे शंस जीवन।'
अरुन्धती मुनि वशिष्ठ से पूछती हैं कि - दाक्षायणी के पति चन्द्रमा को कुष्ठ रोग से ग्रसित होने का शाप कैसे मिला? तो गुरू वशिष्ठ उनकी शंका का समाधान करते हुए बताते हैं कि - 
    एक बार राजा चन्द्रमा ने बृहस्पति की पत्नी तारा को देखा तो वे कामसन्तप्त हो गये। तारा भी चन्द्रमा को देखकर कामसन्तप्त हो गई। कामबाण से आक्रान्त होकर उन्हें उपस्थित अन्य देवताओं का भी भान न रहा। जब बृहस्पति को दोनों के इस काम सम्बन्ध के बारे में पता चला तो उन्होंने चन्द्रमा को श्राप दिया कि तूने मेरी भार्या का सतीत्व हरण किया है तू क्षय रोग से ग्रसित हो जावे। तब चन्द्रमा ने भगवान शंकर से विनय की तो शंकर ने उन्हें स्त्रोत (मन्त्र) देकर इस स्थान पर भेजा। चन्द्रमा ने यहाँ पर देवी की स्तुति की तो वे कार्तिक पूर्णिमा को राजयक्ष्मा से मुक्त हो गए। तब से देवी का नाम राकेश्वरी पड़ गया। कालांतर में राकेश्वरी देवी को स्थानीय भाषा में रांसमाई कहे जाने से गाँव का नाम भी राँसी कहा जाने लगा। वर्तमान के इस गाँव में सम्वत (साल) के बारह महीनों में अलग अलग त्योहार मनाये जाते हैं-
सबसे पहले बात करते हैं हिन्दी महीने के पहले माह चैत्र (मार्च अप्रैल) के त्योहार के बारे में-
हिन्दी महीनों में साल के इस पहले माह को पूरे उत्तराखंड में बड़ी धूमधाम से स्वागत करते हुए मनाया जाता है। संक्रांति के दिन से ही यहाँ हर घर की देहरी पर फूल डाले जाते हैं। ये फूल घर गाँव के हरेक बच्चा अपने आस पास से चुनकर इकट्ठा करते हैं।
रांसी गाँव में गाँव भर के बच्चे संक्रांति से आठ दिनों तक प्रत्येक घर की देहरी पर सामूहिक रूप से फेरी लगाकर, गीत गाते हुए फूल डालते हैं।
आठवें दिन इस त्योहार का विशेष दिन होता है। इस दिन बच्चों का आराध्य घोघा देवता की डोली को पूरे गांव की सीमा में घुमाया जाता है। प्रत्येक घर पर घोघा का स्वागत किया जाता है। बच्चों को भेंट के रूप में चावल, दाल, गुड़ व कुछ नकदी भेंट की जाती है।
पर्व के समापन से पहले घोघा का यहाँ त्रिकुण्ड नामक स्थान पर स्नान कराया जाता है। स्नान के बाद गाजे बाजों, शंख, घड़ियाल, घंन्टियों की स्वर लहरियों के बीच, घोघा डोली को गाँव में स्थित पौराणिक रांसमाई मन्दिर में लाया जाता है जहाँ गाँव भर के स्त्री पुरुष घोघा देवता (डोली) के स्वागत के लिए एकत्रित हुये रहते हैं। डोली की पूजा अर्चना के बाद डोली को मन्दिर में रख दिया जाता है। अब सभी लोग बनदेवी की पूजा के लिए जंगल की ओर प्रस्थान करते हैं। अब बच्चों का नेतृत्व गाँव के बड़े बुजुर्ग करते हैं। वन पहुँचकर सामुहिक भोज तैयार किया जाता है। इस भोज को फुलछोला कहा जाता है। यहां वनदेवी को भोग लगाकर, सामुहिक भोजन किया जाता है। बताते चलें कि वन में बच्चों द्वारा वनदेवी की पूजा करना और सामूहिक भोज करना, सनातन परम्परा में अतीत का हिस्सा रहा है। हिन्दु धर्म में बहुत पवित्र और पुण्य दायिनी मानी जाने वाली सत्यनारायण व्रत कथा में भी बच्चो के वन में वनदेवी को भोग लगाने के लिए इस तरह के सामुहिक भोज के प्रमाण मिलते हैं।
साल के दूसरे माह `बैशाख' में भी रांसी गाँव में अनेक परम्पराओं का निर्वहन किया जाता है।
चैत्रमास की मासान्त (हिन्दी माह चैत का अन्तिम दिन) को रांसी गाँव के ग्रामीण अपने पड़ोसी गाँव उनियाणा के साथ मिलकर गोठी का आयोजन करते हैं। तीन दिनों तक चलने वाले इस आयोजन में इन दोनों गांवों के प्रत्येक परिवार का व्यक्ति भाग लेता है। इस आयोजन के कुछ कड़े नियम होते हैं जिनका पालन प्रत्येक व्यक्ति को करना होता है, जिनमें सिर पर  टोपी पहनना अनिवार्य होता है, पैरों में चप्पल, जूता पहनना निषिद्ध होता है। सभी को एक साथ ही भोजन करना होता है। ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य होता है। इन नियमों में से किसी भी नियम का उल्लंघन करने पर समिति द्वारा दण्ड निर्धारित किया होता है।
संक्रांति के दिन गोठी का उद्यापन होता है। पहले सुबह बच्चों को भोजन करवाया जाता है। तनिदुपरांत गाजों बाजों के साथ गाँव में स्थित राकेश्वरी देवी के मन्दिर से एक गेडू (बड़ा बर्तन) पुजारी की अगुवाई में, निकट बहने वाली मधुगंगा के तट पर जाकर गंगाजल लाया जाता है। इसी दिन आम आदमी को मन्दिर के गर्भगृह में जाकर हरगौरी (शिव-शक्ति) को जलाभिषेक करने का मौका दिया जाता है।
संक्रांति को दोपहर बाद प्रत्येक घर के एक व्यक्ति द्वारा जंगल से कच्चे पेड़ से लकड़ी लायी जाती है, जिसे मूनी कोथी कहा जाता है। रात्रि के प्रथम पहर में मन्दिर की अखण्ड धूनी से रिंगाल की जलावनी लकड़ियों (स्थानीय भाषा में जिन्हें दिवाल्ठा कहा जाता है) को जलाकर, उन कच्ची लकड़ियों के ढेर को मन्दिर की परिक्रमा तथा पास ही स्थित रामशिला की परिक्रमा कर प्रज्वलित किया जाता है। आयोजन की विशेष बात यह रहती है कि वे कच्ची लकड़ियां भी धूं-धूं कर जलती हैं। रातभर लकड़ियों के इसी ढेर के नजदीक बैठकर रामायण के जागर गाये जाते हैं। राकेश्वरी देवी के पुजारी और शिक्षक श्री रविन्द्र भट्ट ने बताया कि विश्वधरोहर में शामिल सलूड़ - डुग्रा की रामायण नृत्य के अलावा राँसी में भी बैशाखी के पर्व पर ये जागर और नृत्य सदियों से होते चले आ रहे हैं। २ गते याने बैशाख माह के दूसरे दिन शुभ लग्न पर रात्रि जागरण का समापन होता है। लोग रात भर जले इस लकड़ियों के ढेर से बनी राख को प्रसाद रूप में अपने साथ ले जाते हैं।
    दोपहर बाद मन्दिर परिसर में ही पुनः लोग इकट्ठा होते हैं तथा जागरों का शुभारंभ करते हैं। इन जागरों द्वारा प्रारंभ शिव पार्वती नृत्य और राम रावण युद्ध का विशुद्ध मंचन होता है। इसी दिन इस गांव में पुराकाल से होली भी खेली जाती है। इस होली में स्थानीय स्तर पर मिलने वाली सफेद रंग की मिट्टी (जिसे स्थानीय भाषा में कमेड़ा कहा जाता है) भक्तों पर बिखेरी जाती है। मन्दिर परिसर में मौजूद भक्त अपने शरीर पर इस मिट्टी का गिरना बहुत शुभ मानते हैं। जागरों के साथ नृत्य के समापन और इस होली के बाद इस त्योहार का समापन होता है।
`ज्येष्ठ माह'- सामान्यतः जेठ माह में उत्तराखंड में ज्यादा त्योहार नहीं होते। लेकिन राँसी गाँव में इस माह में पापड़ी त्योहार मनाया जाता है। इस त्योहार में घर पर ही विशुद्ध रूप से घी में तले पापड़ तैयार किये जाते हैं। परिवार से बाहर विवाहिता स्त्रियों (जिन्हें स्थानीय भाषा में धियाण कहा जाता है) को घर में बुलाया जाता है। इसी दिन एक दूसरा त्योहार भी मनाया जाता है जिसे 'घोड्या संगराद' कहते हैं। इसे बच्चे और अभिभावक कुछ इस तरह मनाते हैं कि बच्चे भी खूब रूचि लेते हैं। इसमें आटे से जंगली जानवर विशेषकर घ्वेड़ (हिरन) को तेल में तल कर पकाया जाता है। इस त्योहार के लिए बच्चे कई दिनों से उत्सुक होते हैंं और कई नये जानवरों के नाम व प्रतिरूप बनाते रहते हैं।
`अषाढ़ मास'
अषाढ़ मास की संक्रांति को केदारनाथ घाटी के अधिकांश गाँवों में मोल्या संगराद नामक त्योहार मनाया जाता है। रांसी गाँव में भी इस त्योहार को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस त्योहार के लिए ज्येष्ठ की मासान्ती याने अषाढ़ मास प्रारंभ होने के पहले दिन गांव के लोग जंगल जाकर मोळू नामक पौधे की एक टहनी लेकर घर आते हैं। टहनी का चयन इस प्रकार से किया जाता है कि उस पर कुछ फल व कुछ फूल व पत्तियाँ लगी हों। इस टहनी को लाकर घर की छत पर रख देते हैं।
    अगली सुबह परिवार का मुखिया ब्रह्ममुहूर्त में उठकर इस टहनी को अपने किसी खेत में रोपित कर देता है। इसके पीछे यह मान्यता है कि अन्नपूर्णा देवी से प्रार्थना की जाती है कि जिस प्रकार इस डाली (टहनी) पर फल फूल लगे हैं, ऐसे ही हमारी खेती में भी खूब अन्न उत्पादन हो।
    रांसी गाँव में इस परम्परा के साथ कुछ अन्य रस्में भी आज के दिन पर होती हैं। सुबह उठते ही घर की महिलाएं घर चूल्हे की साफ सफाई कर पकवान बनाती हैं। आज के दिन पित्रों की पूजा की जाती है जो केवल सालभर में इसी दिन होती है। इसके अलावा गाँव की सीमा में अवस्थित बहुत से देवी देवताओं के कपाट केवल आज के दिन ही खुलते हैं और उनकी पूज्ाा प्रतिष्ठा की जाती है। आज ही गाँव की चारों दिशाओं के देवताओं का भी पूजन किया जाता है। इसके बाद रांसी व उनियाणा गाँव वालों द्वारा राकेश्वरी मन्दिर में रवि की फसल (नया अनाज) को प्रत्येक परिवार से इकत्रित कर, भोग लगाया जाता है। इस भोग में गेंहूं से बने पदार्थ (पूरी, गुलगुले-मीठे पकोड़े) बनाये जाते हैं। राकेश्वरी देवी सहित गांव के सभी देवी देवताओं को भोग लगाने के बाद प्रसाद को प्रत्येक परिवार को बाँटा जाता है। इसी दिन से माँ राकेश्वरी के मन्दिर में अगले दो महीनों श्रावण, भाद्रपद में चलने वाले जागरण का संकल्प लिया जाता है जिसमें सम्पूर्ण उत्तराखंड (केदार खण्ड व मानस खण्ड, जिन्हे अब क्रमशः गढ़वाल और कुमाऊँ कहा जाता है) के देवी देवताओं का  वाचिक रूप से आवाह्न किया जाता है कि वे हमारे जागरण में  उपस्थित होकर हमारा मार्गदर्शन करें। इस तरह सभी देवी देवताओं को मौखिक रूप से बुलावा भेजा जाता है और मानसिक ध्यान कर, संकल्प का दीप प्रज्वलित किया जाता है।
`श्रावण मास’
    यों तो पूरे सनातन में श्रावण को शिवशक्ति आराधना का मास माना जाता है परन्तु उत्तराखंड के केदार घाटी के रांसी गाँव  में श्रावण मास में गाँव में स्थित राकेश्वरी देवी मन्दिर के गर्भ गृह के बाहर सभा मण्डप में बैठकर आठ ज्यूला पट्टी के आठ गांवों के पंचों द्वारा भगवती नंदा के जागर हर शांय गाये जाते हैं। नंदा के इन जागरों को ननदोली कहा जाता है। हर शांम को बारी-बारी से नंदा के जागर (ननदोली), पाण्डवों के जागर( असोली), महाभारत (पांडली) व रमाण (रामायण) के जागरों का अविरल रूप से दो महीनों तक गायन होता है। ये सभी जागर यहाँ की पंवार जाति के लोगों की अगुवाई में किये जाते हैं। ये सभी जागर मौखिक रूप से परम्परागत रूप से गाये जाते हैं। पंवार वंशीय जागरी द्वारा से जागर पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते चले आ रहे हैं।
`भाद्रपद मास’
    भाद्रपद मास के ५ गते यहाँ एक विशेष मेला आयोजित होता है जिसे लाया कहा जाता है। परम्परागत रूप से हिमालयी क्षेत्रों में भेड़ पालन प्रमुख व्यवसाय रहा है। लाया इन्ही पशुपालकों का प्रमुख त्योहार है। भाद्रपद मास की इस तिथि को ही भेड़ पालक (जिन्हें स्थानीय भाषा में पालसी कहा जाता है) उच्च हिमालयी क्षेत्रों के बुग्यालों से भेड़ बकरियों को घाटियों की ओर ले आते हैं। क्योंकि अब हिमालयी पहाड़ियों पर ठंड बढ़नी प्रारंभ हो जाती है। लगभग ६ माह इन क्षेत्रों में भ्रमण करने के बाद ये पालसी भेड़ों को गांव की ओर लाना प्रारंभ कर देते हैं। एक पालसी के पास गाँव के कई परिवारों की भेड़ें चराने के सौंपी रहती हैं। इस दिन सभी पालसी इन भेड़ों को लाकर झिण्डी नामक सैंण (समतल मैदान) में पहुँचता है। यहाँ पहले ही सभी भेड़ बकरी वाले परिवारों के मालिक अपनी छानी (शिविर) में उपस्थित रहते हैं।जिन भी परिवारों की अपनी भेड़ बकरियां जिस भी पालसी को सौंपी रहती हैं, उसे अपनी छानी में बुलाकर स्वाळी(पूरी), पकोड़ी, गुलगुले (मीठे पकोड़े),तथा घी खिलाकर स्वागत किया जाता है।
    इसके बाद भेड़ बकरियों की ऊन उतारने का कार्य प्रारंभ होता है। स्थानीय भाषा में इस कार्यक्रम को लाया कहते हैं। भेड़ बकरियों की ऊन उतारने के लिए रामठा नामक यन्त्र कैंची का प्रयोग किया जाता है। इस काम को कुछ जानकार लोग करते हैं। गांव के अधिकांश लोग ऊन उतारने का काम जानते हैं। एक दूसरे की सहायता करके शा़म तक सभी भेड़ - बकरियों की ऊन उतार ली जाती है।
    शांम ढलने के साथ ही पालसी की छानी में एक आयोजन होता है जिसमें संसार का गायन होता है। इस गायन में उन देवी देवताओं का आवाह्न करके आभार व्यक्त किया जाता है जिन्हें पालसी लोग उच्च हिमालयी क्षेत्र में अपनी रक्षक और सहायक मानते हैं। इन देवी देवताओं में सिद्वा- विद्वा, रमोला, आछरी प्रमुख हैं। अगले दिन सभी भेड़ बकरियों के मालिक, पालिसी को उसके काम का मेहनताना (पारिश्रमिक /वेतन) देते हैं। यह पारिश्रमिक नकदी अथवा वस्तु (अनाज, भेड़-बकरी) के रूप में भी दिया जाता है। तब भेड़ बकरी मालिक अगले छ: माहों के लिए अपनी अपनी बकरियों को अपने घर ले जाते हैं क्योंकि अब ऊच्च हिमालयी बुग्यालों में ठंड और बर्फबारी शुरू हो जाती है ऐसे में भेड़ बकरियों को वहाँ जिंदा रखना बहुत कठिन हो जाता है तो तब भेड़ बकरियों को अगले ठड़े ५-६ माह तक घरों में रखा जाता है। सर्दियाँ पूरी और गर्मियां शुरू होने पर पुनः मार्च अप्रैल में इन्ही भेड़ बकरियों को पालसियों के साथ बुग्यालों (उच्च हिमालयी क्षेत्रों में) भेज दिया जाता है।
`आश्विन या असूज मास’
    रांसी गाँव के राकेश्वरी मंदिर में श्रावण मास की संक्रांति से प्रारंभ भगवती नंदा के जागरों की पूर्णाहुति राकेश्वरी मंदिर के प्रांगण में आश्विन मास के प्रारंभ में होती है। इस दिन उच्च हिमालयी क्षेत्रों से चुनकर लाया गया ब्रह्मकमल (जो उत्तराखंड का राज्य पुष्प भी है) को माँ राकेश्वरी और मन्दिर प्रांगण में अवस्थित अन्य देव मूर्तियों को  चढ़ाकर और अर्घ्य देकर, विगत दो माहों से चले आ रहे जागर जागरण कार्यक्रम का समापन किया जाता है। इस समापन कार्यक्रम को उचकनी मेला कहा जाता है। संक्रांति की रात्रि को मन्दिर व परिसर में जागरण व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इन कार्यक्रमों में जागर, चौफुला, झुमेलो गाकर नृत्य संगीत करते हुए माता राकेश्वरी व अन्य देवी-देवताओं की स्तुति की जाती है। 
    संक्रांति की सुबह ४ बजे ब्रह्म मूहुर्त में जागरण के समापन के साथ पुजारी द्वारा सुफल के रूप में बीते दिन लाये गये ब्रह्मकमल बांटे जाते हैं। ये सुफल ग्रहण करते ही सभी भक्त अपने अपने घरों को प्रस्थान कर जाते हैं। 
`कार्तिक मास’- उत्तराखंड के अन्य भागों की तरह दीपावली रांसी गाँव में भी मनाई जाती है। लेकिन कार्तिक मास की पूर्णिमा का रांसी गाँव और आसपास के क्षेत्र में बड़ा महत्व है। ऐसी मान्यता है कि भगवती ने इसी दिन चन्द्रमा को अमृत पान करवाया था। इसी दौरान अमृत की कुछ बूंदें इस क्षेत्र में गिर गई थी तभी से लोग इस दिन खीर बनाकर अपने मकान की छत या बादणीं (चाहरदीवारी) में कहीं सुरक्षित जगह पर रखकर सुबह उस खीर को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं। इसी गाँव से चौखम्बा की ओट से उदय होते चन्द्रोदय का दृश्य बड़ा नयनाभिराम होता है। बह्ममण्डल के शिखरों के पीछे से जब चन्द्रमा उदय होता दीखता है तो और उसकी किरणें जब मन्दिर के कलश पर पड़ती हैं तो कलश चाँदी सा चमकने लगता है। लोगों की मान्यता है आदि काल में कुष्ठ रोग से मुक्त होने के बाद चन्द्रमा सर्वप्रथम माँ राकेश्वरी का आभार प्रकट करने यहीं रांसी मन्दिर में आते हैं। 
`मार्गशीर्ष या मंगसीर माह’- सामान्यतः उत्तराखंड में मार्गशीर्ष माह को शादी /विवाह का महीना माना जाता है परन्तु रांसी गाँव में इस माह शादी /ब्याह के अलावा कोई न कोई सांस्कृतिक आयोजन होता है। पाण्डव नृत्य, बग्ड्वाल नृत्य, नाग नृत्य, रामलीला या अन्य नाट्य लीलाओं का आयोजन किया जाता है। इसी माह तृतीय केदार भगवान मद्यमहेश्वर की डोली का आगमन यहां होता है तथा एक रात्री का विश्राम करती है। इस दिन राँसी गाँव वालों द्वारा डोली के साथ चल रहे लोगों (दिवारा जात्रियों) व गौण्डार गाँव के राजपूत पण्डों को भोज दिया जाता है। यहाँ एक उल्लेखनीय बात यह है कि इस मन्दिर के गर्भ गृह में बाहरी देवी देवताओं के रूप में केवल और केवल मद्यमहेश्वर की डोली ही प्रवेश करती है बाकी देवरा वाले देवी देवताओं की डोली को सभा मण्डम में ही रखा जाता है। मन्दिर के पुजारियों द्वारा उस दिन सुबह ही मन्दिर व परिसर को सजा-धजा कर राकेश्वरी देवी की मूर्ति का घी चंदन से अभिषेक कर श्रृंगार किया जाता है। आज भी मान्यता है कि जब नव श्रृंगार की सामग्री माता के पास रखी जाती है तो घी, व सुगंधित तेल का कुछ अंश कटोरे से स्वयं ही कम हो जाता है। श्रृंगार सामग्री की अन्य वस्तुएं भी यथा स्थान नहीं मिलती। माना जाता है कि माता अपना श्रृंगार स्वयं करती है। माना जाता है कि इस दिन अपना श्रृंगार करके माता स्वयं बाबा मद्यमहेश्वर का स्वागत करती हैं। 
    यहाँ से मद्यमहेश्वर भगवान शीतकालीन प्रवास के लिए ऊखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मन्दिर के लिए आते हैं। भगवान मद्यमहेश्वर के पण्डों (जिन्हें पंच गौण्डारी कहा जाता है) द्वारा रांसी गांव के पंचों को भगवान के प्रसाद स्वरूप पगड़ी व रबीड विभूति (भगवान मद्यमहेश्वर लिंग के ऊपर छ: महीने शीतकाल में रखे विभूति व चंदन की टिकिया) सुफल के तौर पर अपनी धियाणियों को दिया जाता है। भगवान मध्य महेश्वर की डोली को वे धियाण महिलाएं विदा करती हैं जिनका मायका गौण्डार गाँव में हो। इन महिलाओं द्वारा विदाई मांगल गीत गाते हुए मद्यमहेश्वर भगवान की डोली को कानीधार नामक स्थान तक विदा किया जाता है।
`पौष या पूष माह’
    यों तो सम्पूर्ण उत्तराखंड में पौष माह में कोई विशेष त्योहार नहीं मनाये जाते। लेकिन रांसी गाँव में पौष माह में कुछ विशेष रस्मोरिवाजों का पालन किया जाता है। इस माह में यहाँ दो छावड़ियों का त्योहार बग्ड्वाळ छावड़ी और सिद्ववा-रमोला छावड़ी (बच्चों द्वारा समर्पित भूत यौगिक पूजा) का आयोजन किया जाता है।
१- `बग्ड्वाळ छावड़ी’-
लोक में प्रचलित बग्ड्वाळ से सम्बन्धित कहानी के अनुसार बग्ड्वाळ टिहरी राजा के वीर सैनिक थे। उन वीर सैनिकों को समर्पित यह पूजा वर्षों से इस गांव में प्रचलित है। इसमें गांव के समस्त घरों में बग्ड्वाळों के निमित्त रोट, प्रसाद (हलुवा), पूरी पकोड़ी,गुलगुले (मीठे पकोड़े), खीर आदि बनाई जाती है और उसे चंगेरी (रिंगाल से बनायी गई टोकरी) में रखकर, हरेक परिवार के बच्चे हाथ में रखकर गाँव की उत्तर दिशा में स्थित बग्ड्वाळों को समर्पित मंदिर में जाते हैं। यहाँ पुजारी आकर हरेक टोकरी को मन्दिर के अंदर रखकर पूजा करते हैं और प्रसाद चढ़ाते हैं। बच्चे पुजारी द्वारा प्रसाद स्वरूप दिये गये पकवानों को वहीं बैठकर खाते हैं। इस त्योहार के बाद के हफ्ते में सिद्ववा छाबड़ी का त्योहार होता है जिसकी पूजा यहां के खोयाल जाति के लोगों द्वारा की जाती है।
२- `सिद्ववा छाबड़ी’- सिद्ववा छाबड़ी के दिन भी बग्ड्वाळ छाबड़ी पूजा की ही तरह प्रत्येक घर से बच्चों द्वारा चंगेरियों में रोट, प्रसाद (हलुवा), पूरी पकोड़ी, गुलगुले (मीठे पकोड़े), खीर आदि सजाकर गाँव की दक्षिण दिशा में अवस्थित सिद्ववा के मंदिर में जाते हैं। मन्दिर में पंवार जाती के पुजारी द्वारा पूजा की जाती है। सिद्ववा देवता को भोग लगाया जाता है। पुजारी द्वारा प्रसाद स्वरूप दी गई पकवान सामग्री को बच्चे वहीं बैठकर आपस में बांटकर खा लेते हैं।विशेषता की बात यह है कि बग्ड्वाळ व सिद्ववा छाबड़ी के इस प्रसाद पर केवल बच्चों का ही हक होता है। वे इसे घर नहाR ले जाते हैं।
`माघ मास’- माघ मास को पूरे भारतवर्ष में ही शिव के पवित्र महीने के रूप में बहुत महात्म्य प्राप्त है। इस माह पड़ने वाली शिवरात्रि को सनातन धर्मी बहुत पवित्र त्योहार मानते हैं। रांसी गाँव में शिवरात्रि को बहुत विशेष और अनोखे तौर तरीकों से मनाते हैं। उस दिन यहाँ के लोग यहाँ के उग्रेश्वर मन्दिर में शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं। शांम को प्रत्येक घर में शिव और पार्वती का विग्रह बनाया जाता है। जंगल से बुरांश और पंय्या (पद्म जिसे बहुत पवित्र माना जाता है) की टहनियों से डोली आकार देकर,डोली बनाई जाती है। इस डोली को स्थानीय भाषा में धनोळी कहा जाता है जो विशेष प्रकार का चौका धनुष सदृश होता है। शिव पार्वती की मिट्टी की मूर्ति (विग्रह) को इस धनोळी पर रख दिया जाता है। परिवार का कम से कम एक व्यक्ति इस दिन उपवास जरूर रखता है। उपवास रखे व्यक्ति द्वारा शिव पार्वती की मूर्ति को जौ के बीजों द्वारा सजाया जाता है। धूप दीप के साथ पूजन अर्चन किया जाता है। नैवेद्य के रूप में रामदाना व भांग के बीजों का भोग लगाया जाता है। अगली सुबह परिवार के व्यक्ति द्वारा ब्रह्म मुहूर्त में उठकर, बिना किसी का मुंह देखे, देवता धारा (जहाँ से राकेश्वरी मन्दिर में भगवती के स्नान पूजन अर्चन के लिए पानी लाया जाता है) में मूर्तियों का विसर्जन कर दिया जाता है तथा विगत रात्री को भोग लगाये गये रामदाना व भांग के बीज को प्रसाद स्वरूप ग्रहण किया जाता है। स्नान या पंच स्नान कर, घर आकर धनोळी को घर के मुख्य द्वार पर टांक देते हैं। शिवरात्रि पूजन का यह आंचलिक तरीका यहाँ बहुत श्रद्धा, आस्था और भक्ति के साथ मनाया जाता है।
`फाल्गुन या फागुण मास’-  साल के अन्तिम मास फाल्गुन मास में भी होली के अलावा भारत के उत्तरी हिमालयी इस अन्तिम द्वितीय गाँव में कई त्योहार और परम्पराओं का निर्वहन किया जाता है।
    यह माह ऐड़ी आछरी(वन परियों) और वनदेवियों की पूजा के लिए समर्पित है। बसंत के शुरूआती इस प्रथम दौर में हिमालयी अंचल के इस गांव में विविध रंग और प्रजातियों के पुष्पों की छटा देखते ही बनती है। वसंत पंचमी के दिन गाँव में अवस्थित राकेश्वरी या रांसमाई के नाम से विख्यात भगवती के मन्दिर में एक नियत चौथी पर बैठकर मन्दिर के प्रधान आचार्य द्वारा पंचमी के पंचांग का वाचन होता है। इससे पूर्व माता की व पुस्तक की पंच पूजा की जाती है। गाँव के समस्त पंच इसमें भाग लेते हैं। (सुधी पाठकों को बताते चलें कि पंचांग पूर्व में प्रकाशित वह पुस्तक होती है, जिसमें सनातन धर्मावलंबियों के विभिन्न अनुष्ठानों, पूजाओं, के मूहुर्त प्रारंभ के अलावा साल भर की भावी विशेष राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व भौगोलिक घटनाओं का उल्लेख पूर्व में ही कर दिया जाता है।)आचार्य द्वारा दुर्वा अंकुर प्रसाद स्वरूप प्रत्येक व्यक्ति को दिया जाता है।
    आदि काल से कृषि व पशुपालन प्रधान समाज होने से प्रत्येक घर में वनदेवी का यन्त्र मौजूद है। वनदेवी को पशुपालकों की हितैषी देवी माना जाता है जो वनों में संकटों, समस्याओं व आपदाओं से पशुपालकों की रक्षा और मार्गदर्शन करती है। इस माह उन देवियों का वार्षिक पूजन का कार्यक्रम होता है। विशेषता की बात यह है कि वन में उगे लेकिन ताजे फूलों से ही इन देवियों की पूजा की जाती है। यहाँ यह भी बताना समीचीन होगा कि उत्तराखंड के अनेक गांवों में ज्येष्ठ मास में वन देवियों की पूजा होती है।
    ऐड़ी अक्षरियों को भी वन देवी ही माना जाता है परन्तु ये देवियाँ वन में घास लकड़ी चारा लेने गई महिलाओं विशेषकर खूबसूरत महिलाओं व बालिकाओं को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। बहुत कम मात्रा में ये पुरुषों को आकर्षित करती हैं। अपवाद स्वरूप जीतू बग्ड्वाळ की आक्षरियों(वन परियों) द्वारा हरण (आकर्षित करना) की कथा उत्तराखंड के लोक समाज में बहुत प्रसिद्ध है और लोकगाथाएँ नृत्य (घड्याळा) के रूप में बहुत प्रसिद्ध है। जिन महिलाओं या बालिकाओं पर ये आक्षरियां मोहित हो जाती हैं उन्हें इसी माह पूजन कर, उन महिलाओं व बालिकाओं को उनकी रूह से मुक्त किया जाता है। भारत वर्ष का शायद ही, रांसी के अलावा कोई गाँव हो जहाँ साल भर के बारह महीनों में सामाजिक, सांस्कृतिक रीति रिवाजों, धार्मिक मान्यताओं का इस तरह से पालन व निर्वहन किया जाता हो।

हेमंत चौकियाल 
रूद्रप्रयाग (उत्तराखंड) 

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