एसी डिब्बे की पहली यात्रा -मेरे संस्मरणों से

वैवाहिक जीवन के पहले पाँच वर्ष तो हम स्लीपर क्लास के डिब्बे में, ऊपरी बर्थ पर अपने आधे शरीर को समेटे हुए निकाल चुके थे। वैसे, आप सभी को विदित होगा कि स्लीपर और जनरल क्लास में यात्रा करने में कोई बड़ा अंतर नहीं है। रोज़मर्रा के यात्री, चाय-कॉफी, कोल्ड ड्रिंक, चुना, जर्दा, पेपर सोप और चैन बेचने वाले; चोरी-चकारी करने वाले; जादू दिखाने वाले; भिखारी; और तीन पत्ती के नाम पर ठगी करने वाले – सभी का जमावड़ा दोनों ही जगह पर परफेक्टली मिल जाता है।

May 29, 2025 - 15:27
 0  1
एसी डिब्बे की पहली यात्रा -मेरे संस्मरणों से
First journey in AC coach - from my memories

    मेरा पहली बार थर्ड एसी में यात्रा का अनुभव एक अद्भुत संस्मरण था, जब थर्ड एसी की शान-ओ-शौकत में हमने पहली बार कदम रखा था। वरना अभी तक तो स्लीपर के धक्कों में ही जिंदगी यूं ही सरकती रही। श्रीमती जी की आँखों में तो जैसे चमक आ गई, दीपावली के दीयों की नई रोशनी की तरह।
    वैवाहिक जीवन के पहले पाँच वर्ष तो हम स्लीपर क्लास के डिब्बे में, ऊपरी बर्थ पर अपने आधे शरीर को समेटे हुए निकाल चुके थे। वैसे, आप सभी को विदित होगा कि स्लीपर और जनरल क्लास में यात्रा करने में कोई बड़ा अंतर नहीं है। रोज़मर्रा के यात्री, चाय-कॉफी, कोल्ड ड्रिंक, चुना, जर्दा, पेपर सोप और चैन बेचने वाले; चोरी-चकारी करने वाले; जादू दिखाने वाले; भिखारी; और तीन पत्ती के नाम पर ठगी करने वाले – सभी का जमावड़ा दोनों ही जगह पर परफेक्टली मिल जाता है।
    लेकिन एसी क्लास के बारे में मेरे आस-पास के दोस्त और रिश्तेदार जब बढ़ा-चढ़ाकर बातें करते और हम जनरल क्लास के `तुच्छ प्राणियों' के सीने पर मूँग दलते, तो हमने भी सोच लिया कि एक दिन हम भी उनके सीने पर मूँग दलेंगे।
    हम भी अपने आपको इस श्रेणी में उन्नत करने की चाह में छटपटाते रहे। अवसर आ ही गया। दिल्ली में हमारे निकट के रिश्तेदार के यहाँ एक कार्यक्रम में आमंत्रण मिला। सर्दी की छुट्टियाँ भी थीं और बच्चों को भी साथ में ले जाना था। श्रीमती जी ने तो पैकिंग १० दिन पहले ही शुरू कर दी। रोज़ साड़ियों को रखा जा रहा था, निकाला जा रहा था।
    घर में अलमारी इस तरह बनाई गई है कि साड़ियाँ बड़े करीने से शोरूम की तरह सज जाएँ और उसमें रोशनी का भी इंतज़ाम है। जैसे दुकानदार साड़ी दिखाते वक्त अपने शोरूम की लाइटें जलाकर आँखें चुंधिया देता है, उसी तरह अलमारी खुलते ही लाइटें जल जाती हैं। बेडरूम की अलमारियों की हालत भी कुछ-कुछ ट्रेन के जनरल डिब्बे जैसी है। जब अलमारियाँ बनी थीं, तो एक-एक अलमारी सभी को आवंटित की गई थी। मुझे एक मिली, आरक्षण प्रणाली के तहत श्रीमती जी को दो आवंटित हुईं, और बच्चों को भी एक-एक। लेकिन धीरे-धीरे साड़ियों ने अतिक्रमण करना शुरू कर दिया और मेरा स्पेस सिमट कर अलमारी के एक कोने में रह गया।
    जैसे ही अलमारी खोलता हूँ, साड़ियाँ भरभराकर नीचे गिर जाती हैं। कई बार को़फ्त होती है कि क्यों पुरुष और महिला के परिधान अलग-अलग किए गए। अब साड़ियों के ढेर में पैंट ढूँढना मानो भूसे में सुई ढूँढने के बराबर है। इसी झंझट से बचने के चक्कर में मैं एक ही पैंट को १० दिन तक लटकाए रखता हूँ, जब तक कि खुद श्रीमती जी झल्लाकर उस ढेर में से दूसरा पैंट निकाल नहीं देतीं।
    खैर, जैसे-तैसे आखि़री दिन आ ही गया। जिस दिन जाना था, उससे पाँच मिनट पहले घोषणा हुई कि फाइनल पैकिंग हो गई है। हमने मिमियाते हुए पूछा, `हमारा सामान कहाँ है?' एक घूरती हुई नज़र से जवाब मिला, `रख लिया है, आपको तो कोई ध्यान नहीं।' 
    पैकिंग में हमारा योगदान केवल बैग की चेन लगाने तक सीमित था, क्योंकि बैग में साड़ियाँ ठूँस-ठूँस कर इस कदर भरी हुई थीं कि बैग किसी ओवरलोडेड ट्रक की तरह लग रहा था। जैसे-तैसे बैग के दोनों किनारों को खींचकर चेन लगाई। चेन भी जैसे बैग की इज़्ज़त बचाने की कोशिश में अपना धैर्य खोने वाली थी।
    स्टेशन पहुँचा दिए गए। मैंने अपनी पैंट संभाली, तो पता चला कि बेल्ट तो रह गई है। श्रीमती जी की ओर देखा। वह बोलीं, `हाँ, बेल्ट रख लिया है। कल निकाल लेंगे।' मैंने कहा, `ठीक है, मैं भी नहीं चाहता उस बैग की चेन छेड़ना। एक बार खोल दिया तो दोबारा बंद करने के चक्कर में कहीं ट्रेन न छूट जाए।'
    मैं अपनी पैंट को एक हाथ से कमर पर टिकाए, दूसरे हाथ से जेब से टिकट निकालकर चेक किया। एसी का डिब्बा जहाँ रुकता है, वहाँ खड़े हो गए। इधर-उधर देखा कि कोई परिचित मिल जाए, जिससे बता सकें कि आज हम भी एसी का सफर कर रहे हैं। कोई दिखा नहीं। थोड़े मायूस हो गए, लेकिन सोचा कि कोई बात नहीं। एसी डिब्बे में बैठकर फोटो खींचकर सबको इत्तला कर देंगे।
    जैसे ही डिब्बे में घुसे, ऐसा लगा कि किसी काल कोठरी में आ गए हैं। डिब्बा एकदम शांत। ऐसा नहीं था कि वहाँ लोग नहीं थे, लोग तो थे, लेकिन ऐसे बैठे थे जैसे सभी को साँप सूँघ गया हो। न कोई बातचीत, न कोई हलचल। बड़ी मुश्किल से सीट नंबर ढूँढ पाए। कोई बताने को तैयार नहीं था। सभी लोग हाथों के इशारों से ऐसा संकेत दे रहे थे जैसे कहना चाह रहे हों, `अच्छा, पहली बार!' एक व्यक्ति ने तो सीधे पूछ ही लिया, `अच्छा, पहली बार?'
    मैंने जवाब दिया, ‘हाँ।' उसने सहृदयता दिखाई और सीट ढूँढने में मदद की। सामान सीट के नीचे रखवाया और हम बैठ गए। खिड़की पर शीशा चढ़ा हुआ था। ट्रेन अभी चली नहीं थी। हमने सोचा, थोड़ा बाहर का नज़ारा देख लें। शीशा खोलने लगे, तो सहयात्री, जो अधेड़ उम्र के थे, हँसने लगे। बोले, `शीशा पैक रहता है।'
    असल में, ट्रेन में चढ़ते समय हमारे बच्चों ने बाहर घूम रहे वेंडर से समोसा लेने की डिमांड कर दी थी। हम चाहते थे कि खिड़की से ही यह खरीदारी कर ली जाए। उस समय, हमारे लिए यही विंडो शॉपिंग थी। लेकिन यह संभव नहीं था। ट्रेन से उतरना हमें मंजूर नहीं था क्योंकि हमें लग रहा था कि ट्रेन शायद हमें छोड़कर चली जाएगी। वहाँ हमें कोई जंजीर खींचने वाला यंत्र भी दिखा, लेकिन वह कुछ अलग तरह का था। मुझे नहीं लगा कि उसका उपयोग यहाँ होता होगा, जैसे जनरल डिब्बे में हर गाँव के पास वाले स्टेशन पर होता है।
    जब हमने देखा कि हमारे सहयात्री किसी भी चर्चा के लिए तैयार नहीं हैं, बस ध्यान मग्न मुद्रा में बैठे हैं, तो हमने मोबाइल निकाल लिया। मोबाइल में बैटरी अपने निम्नतम स्तर पर थी। सोचा, चार्ज कर लूँ। देखा, तो प्लग में एक महाशय ने पहले ही अपना चार्जर ठूँस रखा था और उसे पूरे सफर में ठूँसे ही रखा। समय काटना मुश्किल हो रहा था। सोच रहा था कि सफर कैसे कटेगा। बच्चों से अंताक्षरी जैसा कोई खेल शुरू करने की कोशिश ही की थी कि ऊपर से एक महाशय ने ' का इशारा कर दिया। वे एसी की गर्म हवा का आनंद लेते हुए निद्रा में चले गए। बच्चे भी प्रश्नवाचक निगाहों से मेरी ओर देखने लगे। मैंने नज़रें झुका लीं और इसे अनसुना कर खुद भी ध्यानमग्न मुद्रा में चला गया। मन ही मन सोच रहा था कि बाहर कौन सा स्टेशन आ गया है, इसका पता भी नहीं चलेगा। सोचा, थोड़ा सो लेता हूँ। उसके बाद तो हर स्टेशन पर दरवाजे पर जाकर यह सुनिश्चित करना ही पड़ेगा कि अपना स्टेशन आया या नहीं।
    काफी देर से अपनी प्राकृतिक पुकार को दबाए बैठा था। वैसे तो एसी कोच में वाशरूम तक जाने का रास्ता एकदम साफ़ और यात्रीविहीन था, जैसे हमारे लिए राजपथ पर रेड कार्पेट बिछा हो। हमने वॉलेट में स्थायी रूप से रखे आपातकालीन पेपर सोप निकाले, तो पास वाले सहयात्री खी-खी कर हँसने लगे। उन्होंने बताया कि वाशरूम में सोप डिस्पेंसर लगा है। खैर, उनकी हँसी को नज़रअंदाज़ करते हुए हमने पेपर सोप वापस रख दिया और वाशरूम की तरफ दौड़ पड़े।
    एसी कोच के सुसज्जित वाशरूम से निवृत्त होकर बाहर निकला, तो भूख कुछ समय पहले ही लग आई थी। श्रीमती जी भी हमारी करुण पुकार समझ गईं। उन्होंने खाने का बैग, जो पूरी पेंट्री कार के बराबर होता है, निकाला और परांठे-अचार हमारे हाथ में पकड़ा दिए। हमने आदतन सहयात्रियों को भी परांठे ऑफर किए, पर उन्होंने ऐसे मना किया, जैसे हमने ज़हर ऑफर कर दिया हो। सोच रहा था, क्या वाकई हमारी शक्ल ट्रेन में लूटपाट करने वाले लुटेरों जैसी है। खैर, हमने अपने परांठे खा लिए। सफर की बोरियत कम करने के लिए उस दिन खाने के कार्यक्रम को थोड़ा लंबा खींच दिया- दो की जगह चार परांठे खाए। पानी पीकर लेट गए।
    पहली बार देखा कि एसी गरम हवा भी फेंकता है। अब तक तो इसे ठंडा ही समझते थे। गरम कपड़े उतारकर श्रीमती जी की ओर देखा। उन्होंने बैग्स पर `हाउसफुल' का साइन दिखा दिया। स्थिति समझकर कपड़े अपने सिर के नीचे तकिया बनाकर लेट गए। मोबाइल में गंतव्य से एक घंटे पहले का अलार्म लगाया और उसकी आवाज़ धीमी कर दी, ताकि सहयात्रियों की तिरछी नज़रों से बच सकें। चश्मा उतारकर उसकी एक टाँग बैग टांगने वाले खूंटी पर अटका दिया। ध्यान आया कि स्लीपरों का क्या किया जाए। ऊपर नज़र दौड़ाई, पर कोई पंखा नहीं दिखा, जहाँ उन्हें रखा जा सके। चप्पलें सीट के नीचे सरका दीं, ताकि चोरों की नज़रों से बच सकें।
    रह-रहकर अपना चिर-परिचित स्लीपर क्लास का सफर याद आ रहा था। वहाँ के लोगों की आत्मीय बातचीत, शोरगुल और आपाधापी में भी जीवन की पूर्णता महसूस होती थी। यहाँ एसी क्लास में यह सब बिल्कुल नहीं था। ऐसा लगा, जैसे हमने एक नया अध्याय शुरू किया हो, पर कहीं न कहीं, स्लीपर क्लास की आत्मीयता और चहल-पहल याद आ रही थी।
    एसी की शान में भी हमारा दिल स्लीपर क्लास में ही अटका रहा, जहाँ हर सफर एक नया किस्सा और एक नई कहानी बन जाती थी।

डॉ मुकेश असीमित
राजस्थान 

What's Your Reaction?

Like Like 0
Dislike Dislike 0
Love Love 0
Funny Funny 0
Angry Angry 0
Sad Sad 0
Wow Wow 0