बहु भात खाने जाना आरती को बहुत मंहगा पड़ा।
उसने कभी कल्पना भी नहीं कि होगी उसकी ऐसी कीमत चुकानी पड़ेगी ..!
`लाल, तुम्हारी पत्नी तो बड़ी मस्त है! बहुत मजा आया, पूरा वसूल हो गया..।'
उसके मुंह से निकलने वाले ये वो शब्द थे,जो बेहोश होने के पहले मेरे कानों में समाये थे। आवाज सुना सुना सा लगा था। उसके पहले के वे तीन कौन थे,जान नहीं पाई थी। सबने अपने चेहरों को ढक रखा था। कोई कुछ बोल भी नहीं रहा था। जैसे सब कुछ सुनियोजित ढंग से हो रहा था। एक के बाद एक चढ़े, कूदे और उत्तर गए। जैसे बेटिकट लफंगे बसों में चढ़ते उतरते हैं। न मैं चीख पा रही थी और न हिल डुल पा रही थी। पहले ही मुंह में कपड़ा ठूंस दिया गया था। दम घुट रहा था। जो आता आवेग से भरा हुआ होता, मेरी जान हलक पर आ जाती थी।
फिर वहां क्या कुछ हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं। होश आया तो घर के विस्तर में पड़ी थी और घर वाले मुझे घेरे खड़े थे। मेरी आंखें लाल को ढूंढ रही थी। वह एक ओर कोने में दुबका सा खड़ा था। चुप चाप। उसे देख विरक्ति से मन मेरा भर उठा। दिल में एक हूक सी उठी, दर्द का एक सैलाब सा उमड़ा! उस दर्द का जो मैं अभी अभी भोग कर आई थी। मैंने अपनी मूड़ी विस्तर में घुसेड़ दी और औंधे मुंह रात भर पड़ी रही।
`थाने चलो ..!' सुबह उठते ही मैंने लाल से कहा।
`होश में आओ, पागल मत बनो, लोग जानेंगे- सुनेंगे तो क्या कहेंगे? बाकी की जिंदगी बदनामी ओढ़कर जीना पड़ेगा। मुंह बंद रखो और रात की घटना को एक डरावनी सपना समझ भूल जाओ..!'
`यह मेरे जीवन का सवाल है! मैं गाय-बकरी नहीं हूं, थाने चलो..!' मैंने जोर दी और घर से बाहर निकल आई।
आरती ने अपना लिखित बयान थाने में जमा कर दिया।
`आपने लिखा है, आखिरी वाले की आवाज सुना सुना सा लगा था..?' थानेदार रंजन चौधरी ने आरती से पूछा।
`जी हां सर, कुछ दिन पहले एक शाम `लाल' कह घर के बाहर से किसी ने आवाज दी थी, तब मैं आंगन में सांझा बाती दे रही थी। ये वही आवाज थी।'
`घटना के पूर्व की कुछ बातें बता सकती है ..?'
`सर, शादी घर से हम दोनों नौ बजे चल दिए थे। नर्रा गांव के बाद ही जंगल शुरू हो जाता है। सिंगारी मोड़ पर हमें मुड़ना था। लाल ने होर्न बजायी तो मैंने पूछा ' रात को होर्न बजाने का क्या मतलब ..?'
`गलती से बज गयी ..!' लाल ने कहा था।
आरती का बयान दर्ज कर लिया गया। बड़ा बाबू रंजन चौधरी ने लाल पर एक नजर डाली। लेकिन कुछ कहा नहीं। लाल, बड़ा बाबू की चुभती नजरों का सामना न कर सका। उसका गला सूखने लगा था।
बाद में एक महिला कांस्टेबल की निगरानी में मेडिकल टेस्ट के लिए आरती को सदर अस्पताल फुसरो भेज दिया गया।
शाम को थाने के बड़ा बाबू को मेडिकल रिपोर्ट मिल गया । सामूहिक दुष्कर्म की पुष्टि हो चुकी थी।
बड़ा बाबू रंजन चौधरी का दिमाग अब घोड़े से भी तेज गति से दौड़ना शुरू कर दिया था।
अगले दिन पुलिस ने लाल को उसके घर से उठा लिया। घर वालों ने इसका कड़ा विरोध किया। लाल के बड़े भाई ने मंत्री से शिकायत करने की धमकी तक दे डाली `गुनाहगारों को पकड़ने की जगह भाई को ले जा रहे हैं, यह अच्छा नहीं कर रहे है, मंत्री जी को इसका जवाब देना पड़ेगा आपको..!'
`आपको जहां शिकायत करनी है, कीजिए, पर इतना जान लीजिए इस कांड की गुत्थी आपके भाई से जुड़ी हुई है!'
`इसके पीछे जरूर कुछ बात होगी..!' गांव में भी चर्चाएं शुरू हो गई थी।
आरती दुष्कर्म कांड में उस वक्त एक नया मोड़ आ गया, जब लाल की गिरफ्तारी के कुछ घंटे बाद उसकी निशानदेही पर गुप्त छापामारी कर पुलिस ने उन चारों दुष्कर्मियों को एक साथ धर दबोचे!
उसके पहले थाने ले जाकर पुलिस ने लाल को खूब ढंग से उसका स्वागत किया। पहले पानी और फिर उसे चाय पिलाई गई। फिर `तुम्हारा कहना है कि उस बलात्कारी को तुम नहीं जानते हो जो तुम्हारा नाम जानता है?' बड़ा बाबू का सवाल।
`मैं सच कहता हूं सर, मैं उसे नहीं जानता..!'
`तुम सब जानते हो..!' बाकी शब्द लाल की गाल पर पड़े बड़ा बाबू के जोरदार चाटें ने पूरा कर दिया था। फिर तो वह सीडी की तरह चालू हो गया था।
डेढ़-दो घंटे चली धर पकड़ अभियान और फिर बाद में उन चारों के बयान ने समूचे क्षेत्र में एक सनसनी सी फैला दी थी। लोग सकते में आ गए थे! इस दुष्कर्म कांड से बहुतों को हैरानी हुई थी। विश्वास और भरोसे पर ऐसा क्रूरतम प्रहार हुआ था, जिसका फिलहाल किसी के पास कोई उत्तर नहीं था।
`शराबी और जुआरियों पर भरोसा करना आज के दौर में बड़ा मुश्किल है।' किसी ने जोड़ा था।
`यह दुनिया अब भरोसे की काबिल नहीं रही...!’
`औरतें कहीं सुरक्षित नहीं है, न पेट में,न घर में और न पतियों के संग-साथ में...!'
`औरतें कारवां चौथ, वटवृक्ष सावित्री पूजा और न जाने क्या कुछ करती हैं अपने पतियों की सलामती के लिए, अगर वही पति पत्नी के साथ ऐसा विश्वासघात करता है तो उस पत्नी पर क्या असर पड़ेगा, सोचने वाली बात है..!'
मगनपुर गांव में दुष्कर्म कांड को लेकर गप्प-शप, काफी बढ़ गई थी और गली मुहल्लों में जिसे देखो वही लाल और आरती के संबंधों की बाल की खाल उतारने में लगा हुआ था।
`लगता है,अब दोनों में कभी नहीं पटेगा...!'
`पटने जैसी बात ही नहीं है! आरती दबने वाली औरत भाr नहीं है। होती तो वह थाने जाती ही नहीं।'
`कामकाजी महिलाएं जमाने से टक्कर ले रही हैं..!'
`यह बड़ी बात है..!'
`उसके साथ गलत हुआ है, उसकी इज्जत का सौदा किया गया और उसे लूट लिया गया...!'
`लाल इतना बड़ा कमीना निकलेगा, हम तो सोच कर ही हैरान है !'
`उसका मुंह देखता है, हमेशा सूअर जैसा थथूना किये रहता है..!' लाल के प्रति कुछ लोगों का गुस्सा इस तरह भी फूट रहा था। आरती के भीतर भी एक तुफान उठा हुआ था, जो उसके दिलो-दिमाग को मथ रहा था। उसकी भीतरी संसार में रात दिन अनवरत मंथन चल रही थी। भयानक लहरों के साथ उसके भीतर एक ज्वार-भाटा उठी हुई थी और देह में दावानल सी भभक थी। मन भारी था, भोगे हुए ज़ख्मों की टीस थी। जीवन में मिली इतनी बड़ी चोट की गहराई को वह नाप नहीं पा रही थी। एक दागदार जीवन की चादर को ओढ़े वह किस तरह जी पाएगी। लोगों की चुभती नजरों का सामना वह कैसे करेगी। सोच सोच कर उसका नस फटा जा रहा था। एक तरफ दागदार जीवन का एक गहरा समंदर सामने था और किनारा दूर दूर तक नजर नहीं आ रहा था। लहरों के बीच जैसे जीवन उसका आ फंसा था और उसका जो नाविक था उसने बीच मझधार में ही उसका साथ छोड़ दिया था। राजेश भी उसके जीवन से दूर जा चुका था। अपने से दूर जाने को उसने खुद उसे मजबूर कर दी थी। दस साल पहले उसके बेरंग जीवन में एक बदलाव आया था। मन उसका उन्मुक्त गगन में उड़ने लगा था। लगा था जीवन को एक गति मिल गई है। जीवन से पहली बार लगाव हुआ था, प्यार हो गया था जिंदगी के इस पल से उसे। वह पेंशन डिपार्टमेंट में राजेश की सहायक थी। पेंशन का काम करते करते दोनो कब इतनी करीब आ गए कि एक दूसरे को देखे बिना दोनो का रहना मुश्किल हो गया। सुबह आफिस में पहले वो दोनों ही पहुंचते, पहले चाय पीते, फिर दोनों काम पर लग जाते, फिर दोपहर को दोनों लंच साथ साथ करते। छुट्टी होती, पहले आरती नीचे उतरती फिर राजेश। तब तक आरती का आदमी आ चुका होता। यह सिलसिला नौ दस साल तक बड़े प्रेम से चला। अचानक एक दिन आरती ने राजेश से कहा-' अब हम एक ही आफिस में एक साथ रह कर काम नहीं कर सकते हैं। उसे हमारे रिश्तों की भनक लग चुकी है, कहता है `मुझे मालूम हो चुका है, तुम दोनों रोज मिलते हो, अगर यह मिलना बंद नहीं हुआ, अगर तुमने उसका साथ नहीं छोड़ा तो, देखना एक दिन तुम दोनों में से किसी एक को मार कर जेल चला जाऊंगा..!'
वह डर गई थी, अपने लिए नहीं, बल्कि राजेश के लिए डरी थी, यह सनकी उसको कुछ कर- उर न दे। वह राजेश से बेइंतेहा प्यार करने लगी थी। लोग भी कहते हैं कि जुआरी और शराबियों से जितना दूर रहो, उतना ही बेहतर है।
फिर उसका पति लाल तो एक अव्वल दर्जे का जुआरी था और शराबी भी। जुआ और शराब के शौकीन लाल नशे में धूत रात को अक्सर देर से घर आता, जब सब लोग सो रहे होते। उसका खाना टेबल पर रखा रहता था। कभी खाना खाता कभी सोई हुई आरती को ही भकस लेता। आरती इसी तरह की एक बेस्वाद जिंदगी जी रही थी। जिसमें न प्यार की गुलकंद था और न उमंग की कोई तरंग। इस उबाऊ जीवन से राजेश ने अपनी बांहों में भर कर उसे उबार लिया था। एक जीवंत एहसास के साथ।
पति के दबाव में आकर आरती ने उसी राजेश से एक दिन दूरी बना ली- `टेंशन के साथ जीवन जीना सही नहीं है राजेश...! हम अलग रह कर भी अपने प्यार के अहसास के साथ रह लेंगे `अपने ही हाथों अपने अरमानों की गला घोंटने को आरती विवश हो चुकी थी।
दूसरी तरफ राजेश हर हाल में आरती के साथ जुड़े रहना चाहता था। वह कोई भी जोखिम उठाने को तैयार था - `आरती,मैं तुम्हें आसमान के चांद तारे तो लाकर नहीं दे सकता, पर अपनी पलकों में जरूर बिठा कर रखूंगा। मैं तुम्हे जीवन में कभी धोखा नहीं दूंगा। यह मैं वायदा करता हूं..। तुम मुझे छोड़ने की बात मत करो, मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं पाऊंगा। तुम मुझे अपने से दूर मत करो। लौट आओ.. आरती लौट आओ ..!' राजेश रोने लगा था।
`राजेश, मैं तुम्हारी जुदाई बर्दाश्त कर लूंगी। हर हाल में जी लूंगी। लेकिन तुम्हें कुछ हो जाए,यह मैं सहन नहीं कर सकूंगी। वह पागल हो चुका है,उस पर भरोसा नहीं कर सकती। हमारा प्यार जिंदा रहे, इसके लिए तुम्हें जिंदा रहना होगा!'
`तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है..!' आंसू पोंछते राजेश चला गया था।
सप्ताह दिन बाद ही राजेश ने अपना तबादला दूसरे एरिया के एक आफिस में करवा लिया था। तब से दस साल का एक लंबा समय बीत गया। फिर दोनों कभी नहीं मिले।
अखबार से ही राजेश को आरती के साथ हुए दुष्कर्म की जानकारी हुई। वह गुस्से से सुलग उठा। कभी फोन ना करने का कसम तोड़ा `आखिर उस कमीने ने अपना असली रूप दिखा ही दिया न, मैं कहता रहा, वह तुम्हें धोखा देगा। बहुत पहले ही उसके चेहरे पर मैंने हरामीपन पढ़ लिया था। बार बार तुम्हें आगाह करता रहा। अब क्या कहूं..!'
`तुम कैसे हो..?' फोन रिसीव करते ही आरती की आंखों से आंसू झरने लगे थे।
`यह सब जान सुन कर कैसे कहूं कि ठीक हूं..!'
देर तक दोनों के मुंह बंद रहे! सिर्फ सांसों की आवाजें आती जाती रहीं।
राजेश का फोन आना आरती के घायल तन मन में चंदन का लेप जैसा था। एक पल के लिए वह जख्मों को भूल गयी थी।
वह विस्तर पर पीठ के बल लेटे-लेटे कभी ऊपर छत को तो कभी उस छिपकली को देख रही थी जिसने अभी अभी एक उफिया को निगल गई थी। तो क्या उसे भी उस उफिया की तरह निगल नहीं लिया गया था। वह खुद को समझने और समझाने में लग गई थी।
आरती को हमारे आफिस में एक कुशल महिला कर्मचारी का खिताब मिला हुआ था। आफिस में हर किसी के प्रति उसका व्यवहार हमेशा मर्यादित और मधुर रहा है। बेतुकी बातें कभी उसके मुंह से नहीं सुनी गई और न दस सालों की नौकरी में कभी किसी के साथ उसे लड़ते झगड़ते देखा गया था। सिवाय राजेश को छोड़कर। राजेश ही एक मात्र ऐसा था जिसके साथ आरती अक्सर लड़ती झगड़ती थी। पर यह झगड़ा हिरण और शिकारी जैसा नहीं था। राजेश काजल की तरह उसकी आंखों में बसा हुआ था। फिर एक दिन आरती के कारण ही उसे यह आफिस छोड़ना पड़ा था।
आरती आकस्मिक अवकाश ले रखी थी। उसकी दरखास्त मेरी टेबुल पर पड़ा हुआ था और आज ही सभी अखबारों में आरती बलात्कार कांड को लेकर समाचार छपा था। समाचार क्या था। पूरा का पूरा सच उगल कर रख दिया गया था। प्रभात खबर ने बयानों को कहानी की तरह छाप दिया था। एकदम अखबारी भाषा में!
चारों दुष्कर्मियों का बयान खटिया के चार पावों की तरह था। देह से वे चारों अलग थे। लेकिन बयान उन चारों का अलग नहीं था। सबने एक स्वर में कहा - `हमने कोई बलात्कार नहीं किए हैं! हमने इसके लिए पैसे दिए थे..!' बलात्कारियों का यही सामूहिक बयान था।
बयान की शुरुआत घनश्याम साहू से हुआ था `हमेशा की तरह उस दिन भी हम पांचों जुआ खेल रहे थे। लाल सारा पैसा हार चुका था। वह उठ कर जाने लगा। थोड़ी दूर जाकर रुक गया। फिर पीछे मुड़ा और सामने आकर बोला `एक दांव और खेलूंगा, एक लाख का, बोलो खेलते हो?'
`पर तुम्हारे पास पैसे है कहां? उधार का हम नहीं खेलेंगे..!' मैंने साफ मना कर दिया।
लाल एक दम से लहक उठा था -
`दस लाख है मेरे पास ..!' जवाब में उसने ने कहा।
`अभी तुम्हारी जेब में दस टका नहीं था, यह दस लाख कहां से आ गया ..?' बीच में फूचा बोल उठा।
`मेरी पत्नी कितने लाख की है, मालूम है तुम लोगों को ..?'
`हां, हां, मालूम है,पर उससे क्या? जुआ खेलने के लिए तो तुम्हें वह सौ का नोट भी नहीं देती ..!' जीभ निकाल कर मैंने रोब से कहा।
`एक लाख के रूप में मैं उसी पत्नी को आज दांव पर लगाता हूं..!' लाल ऊंची आवाज में बोल पड़ा था।
`क्या, होश में तो हो? पत्नी को दांव पर लगाएगा? महाभारत याद है ..?' मैं अचंभित उसका मुंह ताकने लगा था- `जुआ की नशा उस दिन शायद उस पर भूत की तरह चढ़ गया था। लाल अपनी दांत किटकिटाने जैसा करने लगा था।
`बोलो, दांव लगाते हो, बोलो लगाते हो' वह अपनी ही धुन में बोलता गया।
मैं सोच में पड़ गया था। मैं लाल की पत्नी और उसके स्वभाव को जानता था। जान लेगी तो सबकी जान ले लेगी। एक दम बिंदास औरत थी। और मिजाज की कड़क भी। कोई भी उसके सामने जाने से डरता था। मजाक करना तो दूर की बात। उस जैसी औरत की सवारी करना शेरनी की सवारी करने जैसी थी। `हां-ना ' के बीच हम चारों कुछ देर तक उबक डूबक होते रहे। तभी सोमा मोदी बोल उठा - `घनु, गांव में सभी मुझे `घनु' ही कहते हैं, उसने कहा `मान जाओ, हमारा क्या जाएगा, हारेंगे तो उसका पैसा उसे लौटा देंगे। और यदि जीत गए तो .!' बोलते बोलते वह रूक गया था।
फिर जाने किस सोच के तहत हमारे मुंह से `हां,हम तैयार हैं' निकल गया।
फिर उसी जगह उसी बांस गुदाओं के बीच हम पांचों बैठ गये थे । आधा घंटा पहले जिस जगह को अलविदा कह निकल गये थे। फिर ताश निकल गई। बाजी बिछ गई। खेल शुरू हो गया। हम चारों के बीच एक अजीब सी कशमकश की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। देह की नसों में तनाव महसूस करने लगे थे। लाल का और भी बुरा हाल था। जंग का मैदान हो या खेल का मैदान। जीत हर किसी कि पहली प्राथमिकता होती है। परन्तु उस वक्त लाल का खेल-खेल जैसा नहीं लग रहा था। उफनती नदी में किसी को ढकेल देने वाला उसका भाव देख एक पल के लिए मैं डर ही गया था। वह पहले वाला लाल नहीं लग रहा था। उसके खेलने का अंदाज भी बिल्कुल नया था। और उसका चेहरा तीर से बिंधे सूअर सा हो गया था। पहले ऐसा नहीं होता था। हम खेल को खेल की तरह लेते थे। हां, खेलने में एक जुनून होता था। बस जीत लेने की जुनून। लेकिन हार जीत का जरा भी ग़म नहीं होता था। आज हारे है, कल जीतेंगे भी' यही भाव सबों के चेहरे पर चिपका हुआ होता था। हंसी ठिठोली भी चलता रहता था। लेकिन उस दिन,उस घड़ी सब ख़ामोश थे। डर था। कहीं किसी के बोलने से जीत हार में न बदल जाए।
`फिर क्या हुआ था..?' थानेदार रंजन चौधरी ने पूछा था।
`पहले के दो बाजी में हार जीत का फैसला न हो सका..!' घनश्याम ने कहना जारी रखा ' फिर हम तीसरी बाजी खेलने बैठे, लाल ने तीन बार खेल को बीच में रोका,हर बार उसकी सोच बदला बदला सा लगता। हम उसकी ओर देखते,वह चूहे की माफिक हंस देता-
`यही लास्ट खेला होगा, इसके बाद हम नहीं खेलेंगे..!' मैंने कहा। उसने मुझे घूर कर देखा। खेल शुरू- पांच मिनट.., दस मिनट.. और पन्द्रह मिनट..! अबकी जीत का इक्का मेरे हाथ में था..! खेल समाप्त हो चुका था। लाल बाजी हार चुका था । दांव पर लगाई प्ात्नी को वह हार चुका था। फुचा तुरी ने फच से बोल दिया- `हमने तुम्हारी पत्नी को जीत लिया है..!'
लाल ने कुछ नहीं कहा।
मैंने आहिस्ता से नजरें उठा कर लाल को देखा। वह निर्विकार भाव से मुझे देख रहा था। वह शांत नहीं था। सहज भी नहीं था।
तभी मैंने कहा - `लाल, जुए में हमने तुम्हारी पत्नी को जीत तो ली है, परन्तु फायदा क्या...? यह बात जो उसे कहने जाएगा, उसे चप्पल खानी पड़ेगी, और हम नहीं चाहते कि जीत कर किसी की चप्पल खायें..!'
`तो तुम्हें जीत का फायदा चाहिए।?' लाल ने अपनी भाव भंगिमाओं को लपटते हुए कहा था।
`बिल्कुल हमें चाहिए..!' फुचा तुरी कुछ ज्यादा ही फुदक-उचक रहा था।
`जीत का फायदा तो हमें मिलना चाहिए..!' यह सोमा मोदी था।
`जुआ में औरत जीतने का मजा तो मिलना ही चाहिए..!' रघु साव ने पहली बार मुंह खोला।
`मतलब कि इस जीत का तुम चारों को फायदा चाहिए- यही न?'
`हां,..!' हम चारों ने एक साथ कहा।
‘ठीक है, तुम चारों मेरे ' पे फोन 'पर एक लाख भेजो- अभी..!'
`हम चारों, तुम्हें एक लाख क्यों दूं..?' मैंने विरोध जताया।
`तब फिर जाओ, मेरी पत्नी से जाकर कहो कि हमने तुम्हें जुए में जीते हैं..!'
हम चारों एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
अंत में हमने लाल की बात मान ली और पच्चीस पच्चीस हजार कर उसके खाते में एक लाख रुपए भेज दिए..!'
`चार दिन बाद इस पैसे का मजा लेने को तैयार रहना- टच में रहना..!' लाल ने कहा और उठ कर चल दिया था।
`तुमने अपनी ही पत्नी के साथ ऐसा खेल क्यों खेला..?' आखिर में रंजन चौधरी ने लाल से पूछा था।
`वह मेरी पत्नी थी ही नहीं। उसके जीवन के साथ मेरा कोई मेल नहीं था। वह हमारे घर में रहती जरूर थी। लेकिन मैं उसके दिल में नहीं रहता था। मेरी पत्नी होकर भी वह मेरे साथ एक बंटी हुई जिंदगी जी रही थी। उसकी आंखों में तो राजेश बसा हुआ था। उसके साथ जो कुछ भी हुआ, उस पर मुझे जरा भी अफसोस नहीं है, वह इसी लायक की थी..!'
`बंटा हुआ जीवन जी रहा था, इसीलिए ऐसा किया' कुछ अखबारों में उसके इसी बयान को हेडलाइन बनाया था।
दूसरे दिन चारों दुष्कर्मियों के साथ लाल को भी टेनुघाट जेल भेज दिया गया। बलात्कारियों के बयान और पुलिस चार्जशीट को अदालत ने गंभीर अपराध माना और इसी को आधार बनाया और सप्ताह दिन में कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला भी सामने आ गया।
अपने फैसलों की वजह से चर्चित जज मलिक साहब के सामने बचाव पक्ष के धाकड़ वकील शतीश महथा की एक भी दलील काम नहीं आया, जज मलिक साहब ने उनकी एक नहीं सुनी और चारों दुष्कर्मियों को उनके किए कर्मों अनुसार बीस-बीस साल की और मुख्य आरोपी मानते हुए लाल को बत्तीस साल कारावास की सजा सुना दी। इतने बड़े मामले को छोटे समय में ही फैसला सुना कर मलिक साहब फिर चर्चा में आ गए थे।
एक बालिग और दूसरा नाबालिग दो बेटों की मां आरती को अब अपने जीवन का फैसला करना था, जो आसान नहीं था। उसके जीवन को छला गया था और शरीर को जलील किया गया था, अपने ही हाथों और अपने ही लोगों द्वारा। वह मर्माहत कम आहत ज्यादा थी। घर के बाहर काफी भीड़ जमा हो गई थी। तभी आरती का बड़ा बेटा रूपेश ने बाहर आकर यह कह-
`लाल हमारा बाप था, पर अब वह हमारे लिए मर चुका है..!' भीड़ को चौंकाया था। वह गुस्से में था और घर के बाहर लोगों के बीच कह रहा था- `अपने इस कुकृत्य से उसने हमारी मां का ही अपमान नहीं किया है, हमें भी समाज में जलील किया है...! '
चालीसवां बसंत पार कर चुकी आरती का शरीर आज भी लोगों को आकर्षित कर रहा था और यह बखूबी उसे भी पता था। परन्तु उसे यह पता नहीं था कि जिंदगी एक दिन उसे ऐसे मोड़ पर ला खड़ी कर देगी, जहां टी वी चैनल वालों के सामने उसे अपनी बात रखने की नौबत आन पड़ेगी, एक नजर उसने बाहर खड़ी भीड़ को देखा और फकत इतना भर कहा कि - `घर, सुरक्षा और इज्जत की जिंदगी जब दांव पर लग जाए, तब उस बंधन को तोड़ बाहर निकल जाना ही बेहतर है, औरतें ताश की पत्ती नहीं होती, उसकी भी अपना वजूद होता है' बोलते बोलते आरती की आवाजें गंभीर होती चली गई थी। लोगों ने उसको इतनी संजीदा कभी नहीं देखा था,उस घटना के बाद! इसी के साथ आरती कमरे की ओर मुड़ गई थी!
`इस तरह की साहसिक निर्णय हर औरत नहीं ले सकती!’
बाहर खड़ी भीड़ से किसी ने कहा था।
श्यामल बिहारी महतो
बोकारो, झारखंड