फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ आंचलिकता के अद्वितीय शिल्पी
मैला आँचल लिखा और उसके भीतर का टाइटल छपने जा रहा था तब मैंने मैला आँचल और नीचे लिख दिया ‘एक आँचलिक उपन्यास’। मैंने यह यही सोचकर लिखा कि मैंने जो शब्द का इस्तेमाल किया और भाषा लिखी है क्या उसको लोग पसंद करेंगे या नहीं? इसलिए मैंने उसे आँचलिक उपन्यास कह दिया। यह एक आँचलिक उपन्यास है और कथांचल है एक पिछड़ा गाँव मेरीगंज जो पूर्णिया जिले में है वही पूर्णिया जो बिहार राज्य का एक जिला है।

फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का देश के आचंलिक कथाकारों में सर्वश्रेस्ठ स्थान है। इस लोक में ऐसे भी साहित्यकार पैदा हुए हैं जिनहोंने पाठकों का दिल अपनी रचनाओं के जीवंतता से जीता है, इनमें से एक है फणीश्वरनाथ ‘रेणु’। `आंचलिकता’ शब्द `अंचल’ से बना है, जिसका अर्थ है कोई विशेष क्षेत्र या भू-भाग हिंदी साहित्य में `आंचलिकता’ का अर्थ है किसी विशिष्ट क्षेत्र या अंचल की भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, रीति-रिवाजों और जन-जीवन को साहित्य में यथार्थ रूप से चित्रित करना आंचलिकता शब्द अंग्रेजी के रीजनल शब्द के पर्याय के रूप में हिन्दी में प्रयुक्त हुआ है। एक अग्रेजी लेखक के अनुसार आंचलिक लेखक एक विशेष क्षेत्र पर अधिक ध्यान केन्द्रित करता है और उस क्षेत्र और वहाँ के निवासियों को अपनी कथा का आधार बनाता है।
हिन्दी साहित्य में आँचलिक उपन्यासों की शुरुआत कहाँ से होती है? क्या मैला आँचल से पूर्व भी आँचलिक उपन्यासों की कोई परम्परा रही है? अपने एक साक्षात्कार में आँचलिक शब्द के प्रयोग के बारे में रेणु ने कहा कि ‘जब मैंने मैला आँचल लिखा और उसके भीतर का टाइटल छपने जा रहा था तब मैंने मैला आँचल और नीचे लिख दिया ‘एक आँचलिक उपन्यास’। मैंने यह यही सोचकर लिखा कि मैंने जो शब्द का इस्तेमाल किया और भाषा लिखी है क्या उसको लोग पसंद करेंगे या नहीं? इसलिए मैंने उसे आँचलिक उपन्यास कह दिया। यह एक आँचलिक उपन्यास है और कथांचल है एक पिछड़ा गाँव मेरीगंज जो पूर्णिया जिले में है वही पूर्णिया जो बिहार राज्य का एक जिला है। इस प्रसंग से यह तो स्पष्ट है कि आँचलिक उपन्यास में अंचल विशेष की भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है, पर इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया कि रेणु ने ही सर्वप्रथम आँचलिक शब्द का प्रयोग किया। वास्तव में हिन्दी उपन्यास के इतिहास में आँचलिक उपन्यास की अवधारणा भी मैला आँचल के प्रकाशन के बाद ही विकसित हुई।
‘मैला आँचल’ ने आंचलिक परिवेश के सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं को उजागर किया है ग्रामीण अंचल के दृश्यों को चित्रित करते समय ‘रेणु’ ने लोक परम्पराओं का बखूबी इस्तेमाल किया है। विभिन्न प्रकार के विशिष्ट ध्वनियों के माध्यम से सम्पूर्ण परिवेश को वाणी दी है। लोकगीतों की कड़ियाँ स्थान-स्थान पर लोक-जीवन के मनोभावनाओं व विचारों को अभिव्यक्त करती है। उपन्यास में आंचलिकता के विशिष्ट पक्ष से परिचित कराने के लिए ‘रेणु’ ने भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व पर्यावरण परिस्थितियों तक का गहराई से चित्रण किया है। आंचलिक उपन्यास में उसका वातावरण, कथ्य और चरित्र महत्वपूर्ण है। ‘मैला आँचल’ में मौजूद मेरीगंज गाँव भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के अन्य किसी गाँव से पूर्णतः भिन्न है। इसकी भिन्नता को इस उपन्यास में रेखांकित अंचल की विशेषताओं के द्वारा खूबसूरत ढंग से समझाया है। बोली-बाली की भिन्नता तथा गीतों, रीति-रिवाजों आदि के द्वारा मिथिलांचल की लोक संस्कृति की सांस्कृतिक व्याख्या के साथ-साथ बदलते हुए यथार्थ के दृष्टिकोण का भी ध्यान रखा। गाँव में मनाये जाने वाले तीज- त्यौहारों, ऋतु-पर्वों, लोक व्यवहार के विविध रूपों व मानवीय संबंधों के विशिष्ट रूपों के वर्णन के माध्यम से रेणु ने ‘मैला आँचल’ में अपने प्रिय अंचल का इतना गहरा व विस्तृत चित्र खींचा है कि यह उपन्यास हिंदी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की एक सर्वश्रेष्ठ कृति बन गयी है।
इस उपन्यास का महत्व मात्र आंचलिक उपन्यास होने तक ही नहीं सीमित है, बल्कि इसे श्रेष्ठ उपन्यास का स्थान प्राप्त भी है। प्रेमचंद के उपन्यास गोदान के पश्चात अगर हिन्दी का कोई श्रेष्ठ उपन्यास है तो वह है दृ मैला आँचल। ‘मैला आँचल’ उत्तर-पूर्वी बिहार के एक अति पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि के आधार पर रेणु ने उस अंचल विशेष के सुख-दुख, रहन-सहन, लोक-जीवन एवं संस्कृति का अत्यंत कुशलता से सूक्ष्म एवं कलात्मक चित्रांकन प्रस्तुत करते है, इसमें वहाँ के जन-जीवन का जिससे वे स्वयं भी घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है। वहाँ के पात्रों, वहाँ की समस्याओं, वहाँ के संबंधों, वहाँ के प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश के समग्र रूपों, परंपराओं और प्रगति को अंकित कर सकता है, क्योंकि उसने उसे अनुभूति में उतारा है। आंचलिक उपन्यास लिखना मानों ह्रदय में किसी प्रदेश की जीवंत अनुभूति को वाणी देने का अनोखा प्रयास है। ‘रेणु’ के पात्र देश के आजादी के आठ दशक बाद भी सजीव हो उठते हैं और सामान्यतः आज भी भारतीय ग्रामीण अंचल विशेष में प्रायः मिल जाते हैं, यह आजाद भारत की सबसे बड़ी विडम्बना है।
`मैला आँचल’ का प्रकाशन हिंदी गद्य में एक परिघटना थी। प्रेमचंद की गोदान के बाद पहली बार किसी उपन्यास को इस तरह की चैतरफा प्रसिद्धि मिली। रेणु जी जीवन के भोगे हुए यथार्थ का सजीव चित्रण करने वाले प्रेमचंद की परंपरा के साहित्यकार थे। ‘रेणु’ प्रेमचंद के पश्चात भारतीय ग्रामीण जीवन को उसकी समग्रता में चित्रित करने वाले सशक्त उपन्यासकार है। आंचलिकता की इस अवधारणा ने कथा साहित्य में ग्रामीण भाषा-संस्कृति एवं लोक जीवन को समाज के केन्द्र में स्थापित कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने अंचल विशेष को ही नायक बना दिया। मैला आँचल हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ एवं सशक्त आंचलिक उपन्यासों में से एक है जिसमें तत्कालीन भारत में स्वतन्त्रता के पहले और उसके बाद के एक अति पिछड़ें ग्रामीण अंचल में घटित वास्तविक घटनाओं का मार्मिक एवं चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
मारिया एडवर्थ के अनुसार, ‘जिस उपन्यास में पात्रों का समग्र जीवन उस अंचल से प्रभावित होता है तथा जिसमें अंचल अपनी परम्पराओं के कारण अन्य अंचलों से भिन्न प्रतीत होता है, वह आंचलिक उपन्यास है।’ कुछ इसी प्रकार डॉ. गोबिंद त्रिगुणायत के अनुसार आंचलिक उपन्यास, ‘किसी अंचल विशेष की भौगोलिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विशेषताओं का अंकन करना ही आंचलिक उपन्यास का मुख्य उद्देश्य माना जाता है।’ डॉ. रामदरश मिश्र का भी मानना है, ‘आंचलिक उपन्यास मानो ह्रदय में किसी प्रदेश की कसमसाती हुई जीवनानुभूति को वाणी देने का अनिवार्य प्रयास है... आंचलिक उपन्यास अंचल के समग्र जीवन का उपन्यास है। रेणु ने आँचलिकता की खुशबू से सराबोर ‘मैला आँचल’ जैसे अद्भुत उपन्यास की रचना करके लोक की मिट्टी में अपनी प्रतिभा से भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है।
‘रेणु’ साहित्य रचनाकर्म के साथ-साथ समकालीन सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने वाले महान साहित्यकार थे। मैला आँचल का कथानायक एक युवा डॉक्टर है जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद एक पिछड़े गाँव को अपने कार्य-क्षेत्र के रूप में चुनता है तथा इसी क्रम में ग्रामीण जीवन के पिछड़ेपन, दुरूख-दैन्य, अभाव, अज्ञान, अन्धविश्वास के साथ-साथ तरह-तरह के सामाजिक शोषण-चक्र में फँसी हुई जनता की पीड़ाओं और संघर्षों से भी उसका साक्षात्कार होता है। कथा का अन्त इस संकेत के साथ होता है कि युगों से सोई हुई ग्राम-चेतना तेजी से जाग रही है। मैला आँचल को हिन्दी का प्रथम श्रेष्ठ आंचलिक उपन्यास माना जाता है। मेरीगंज प्रकृति के वरदान से परिप्रूर्ण है, भारत के अन्य गाँवों की तरह इसकी अपनी एक अलग विशेषता है, यहाँ पोस्ट ऑफिस, डिस्पेंसरी तथा कुछ ही दूरी पर रेलवे स्टेशन भी है जो कि तत्कालीन भारत के ग्रामीण क्षेत्र के लिए आधुनिक विकास का द्योतक था, लेकिन फिर भी यह गाँव बाहरी दुनिया से अनभिज्ञ अपनी प्रकृति में था। गाँव का क्षेत्रफल बड़ा है और सभी जातियों के लोगों की अपनी अलग-अलग टोलियाँ थी जो समाज में जाति-प्रथा की कट्टरता का सशक्त प्रमाण है। निम्नवर्गीय संथालों को गाँव से अलग समझा जाता था। कायस्थ और राजपूत सम्पन्न माने जाते थे, दोनों वर्ग मिलकर पूरे गाँव का यथा संभव शोषण करते रहते हैं। अशिक्षा के प्रकोप से ग्रसित ग्रामीण जनता गरीबी, अंधविश्वास और पिछड़ेपन का शिकार है, यही स्थिति कमोवेश आज भी दिखाई पड़ता है।
इस गाँव में रेणु इतना रम गए कि इस उपन्यास की भूमिका में वह लिखते हैं, ‘इसमें फूल भी है, शूल भी है, धुल भी है, गुलाल भी है, कीचड़ भी है, चंदन भी है सुन्दरता भी है कुरूपता भी है। मैं किसी से भी दामन बचाकर निकल नहीं पाया। मैला आंचल में लोक का उत्सव भी है, दारुण भी है, करुणा भी है, ईर्ष्या भी। रेणु ने लोकगीत, ढोल-खंजड़ी, लोकनृत्य, लोकनाटक, लोक विश्वास और किंवदंतियों के सहारे बिहार के कोसी अंचल की जो संगीतमय और जीती-जागती तस्वीर खींची है, उससे गुजरना एक बिल्कुल अलग और असाधारण अनुभव है। उसी लोक को रेणु ने मैला आंचल में समेट दिया है। मैला आंचल हिंदी साहित्य का उत्सव है। उपन्यास आंचलिक है, यूं कहें तो उपन्यास परंपरा में मील का पत्थर। कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की इस युगान्तरकारी औपन्यासिक कृति में कथाशिल्प के साथ-साथ भाषा और शैली का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहज-स्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी। ग्रामीण अंचल की ध्वनियों और मटमैला भूदृश्य से सम्पन्न यह उपन्यास हिन्दी कथा-जगत में पिछले कई दशकों से एक क्लासिक रचना के रूप में स्थापित है। उपन्यास का जो गुण है, वही कमी भी है। उपन्यास बिखरा है, समेटना आसान काम नहीं है, लेकिन यही तो गुण भी है कि गाँव का कोई भी वर्ग मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी, नदी-नाले, पेड़- पौधे भी रेणु से शिकायत नहीं कर सकते कि मैं छूट गया हूँ। प्रेमचंद में गांव का यथार्थ है तो रेणु में गाँव का संगीत। प्रेमचंद को पढ़ने के बाद हैरानी होती है कि इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी किसान अपने गाँव और अपने खेत से बंधा कैसे रह जाता है।
रेणु का कथा-संसार यह रहस्य खोलता है कि जीवन से मरण तक गांव के घर-घर से उठते संगीत और मानवीय संवेदनाओं की वह नाजुक डोर है जो लोगों में अपनी मिट्टी और रिश्तों के प्रति असीम अनुराग पैदा करती है। ‘मैला आँचल’ मात्र उपन्यास नहीं है, अपितु एक पुस्तक में सिमटा संसार है जिसमें एक बार प्रवेश करने के बाद हम भी इस संसार का एक हिस्सा बन जाते है। आजादी से पहले, आजादी के बाद और गांधी जी की मृत्यु जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं को जोड़ कर समाज के हालत को इस किताब में एक व्यावहारिक तरीके से रेणु जी ने संचय किया है। अंग्रेजों की दासता से स्वतंत्र होने से भी देश की वास्तविक स्वतन्त्रता पर कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता, उसी प्रकार मेरीगंज पर भी कोई प्रभावी परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता है। इस गाँव में कांग्रेसी भी हैं, सोशलिस्ट भी हैं, स्वयंसेवक भी हैं।
रेणु ने सब पर एक समान प्रकाश डाला है, उनकी दृष्टि से कोई वंचित नहीं हुआ। देश आजाद होने के बाद जिस प्रकार नेताओं में सत्ता लोभ तथा सुख-सुविधाओं के प्रति लगाव ‘मैला आँचल’ में देखा गया, वहीं हूबहू समकालीन भारतीय राजनीति में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद जैसे ताकत सम्पन्न वंचितों के शोषक तथा संथालों जैसे निस्सहाय, गरीब, अधिकार विहीन वर्ग आज भी भारतीय समाज में मिलते हैं। राजनीति ने भोले-भाले ग्रामीण में धार्मिक, जातीय तथा अमीरी-गरीबी का जो जहर घोला जिसके कारण लोगों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास, घृणा, स्वार्थ और हिंसा की जो लपटें उठी उससे उभर पाना आज भी आज भी सम्भव नहीं हो पाया। ‘मैला आँचल’ में फूलिया अल्हड़ मस्ती भी है धर्म के नाम पर द्वेष फैलाने वालों की भी कहानी है बावन दास जैसा कट्टर गांधीवादी समर्थक भी है जो देश की आजादी के साथ कुचल जाता है कांग्रेस में फैल रहे भ्रष्टाचार की भी कहानी है। जमींदारों की जमींदारी भी है, संथालों की उनसे लड़ाई भी है। समाज में फैले डायन, भूतप्रेत के अंधविश्वास भी है। ईश्वर के नाम पर नग्नता, अश्लीलता तथा स्त्री शोषक का यथार्थ चित्रण मिलता है जो हमारे समाज में दिन-प्रतिदिन घटित हो रहा है। कबीर मठ को त्यागकर जाने वाली ‘मैला आँचल’ की दासी लक्ष्मी कहती है, ‘असहाय औरत को देवता के संरक्षण में भी सुख-चैन नहीं मिल सकता।’
अद्वितीय कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की इस युगान्तरकारी औपन्यासिक कृति में कथाशिल्प के साथ-साथ भाषा और शैली का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहज-स्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी। ‘मैला आँचल’ के द्वारा हिन्दी उपन्यास परम्परा एक नवीनतम कथा-शिल्प का पदार्पण होता है। देश की भोली-भाली जनता का शोषण तब भी होता था अब भी होता है। ग्रामीण इंसान वर्तमान से ज्यादा अतीत में जीता है। उसका संसार उसका परिवेश होता है, ‘रेणु’ जी की ग्रामीण अंचल की समझ उत्कृष्ट थी, उन्होंने ग्रामीण मानसिकता एवं जीवन पद्धति का प्रयोग बड़ी सावधानी से किया है। सम्पूर्ण ग्रामीण परिवेश की अच्छाइओं-बुराइयों का चित्रण एक कुशल चित्रकार के रूप में किया है। चित्रकार के चित्र एवं ‘रेणु’ के ‘मैला आँचल’ में सिर्फ इतना ही अंतर है, ‘चित्र गतिहीन और स्थिर होता जबकि ‘रेणु’ का कथा चित्र गत्यात्मक और जीवंत है।’
राजेश कुमार
बिहार
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