धर्म और आस्था भारतीय संस्कृति का केंद्र बिंदु है और त्रिदेव इस आस्था का मूल है जिसमें शिव का अपना एक विशेष स्थान है। शिव सर्वाधिक प्राचीन वैदिक देवता हैं, जो आज भी भारतीय जनमानस के प्रिय एवं पूजनीय देव है। वेदों में प्रथम वेद ऋग्वेद के तीन सूत्रों में रुद्र (शिव) का वर्णन पाया जाता है किंतु यजुर्वेद और अथर्ववेद में इनका स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है। यजुर्वेद में तो एक पूरे अध्याय में ही इनकी स्तुति पाई जाती है जिसे `रूद्राध्यायी' के नाम से जाना जाता है। अथर्ववेद के ११वें कांड के द्वितीय सूक्त में भी रुद्र देव (शिव) की स्तुति की गई है। यजुर्वेद के एक भाग श्वेताश्वतर उपनिषद के १४ अध्याय में शिव (रुद्र) का वर्णन पाया जाता है। तैत्तिरीय संहिता (४.५) में भी रूद्र को सदाशिव अर्थात शक्तिशाली शिव के रूप में वर्णित किया गया है जहां शिव के कल्याणकारी और संहारी दोनों रूपों का उल्लेख मिलता है। शिव पुराण में इनकी अनंत महिमा का विस्तृत वर्णन मिलता है। वेदव्यास द्वारा रचित १८ पुराणों में से एक भी ऐसा ग्रंथ नहीं है जिनमें भगवान शिव की महिमा से संबंधित कोई प्रसंग ना हो। इस प्रकार शिव वैदिक काल से लेकर आज तक भारतीय जनमानस की आस्था का केंद्र रहे हैं। भारतीय समाज में शिव एक भोले भाले करुणामय देव के रूप में प्रसिद्ध है।
शिव सृष्टि का आधार है, जीवन में जहां भी सत्य है वही शिव है। संपूर्ण विषमताओं को स्वयं में समाहित किए हुए शिव एक पूर्ण पुरुष है। आशुतोष है, देवों के देव महादेव हैं, रूद्र है तो आनंद भी वही है। गृहस्थ हैं तो योगी भी है। सर्वोत्तम प्रेमी है, आदर्श पति, पिता और गुरु है। वही मृत्यु है और जीवन भी। एक ऐसे संहारक जो रचयिता है, औघड़ दानी है, सृष्टि के विधि विधान से परे जाकर भक्तों को कृतार्थ करते हैं। वे महायोगी और सर्व ज्ञानी है। स्वर और संगीत के प्रणेता है। इनके डमरू से उत्पन्न नाद ही ब्रह्म है। शिव ज्ञान के ऐसे उत्सव है, जिनमें नृत्य वास करता है व जो जीवन को गति प्रदान करते हैं। भगवान शिव ऋषियों के गुरु, देवताओं के रक्षक, दानवों के उद्धारक, सहायक और मानवों के आदर्श परम पूजनीय देव है।
भगवान शिव भारतीयता की आत्मा और आस्था के आदर्श है। शिव को समझे बिना भारतीय होने का अपना कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। शिव को जाने बिना हम ब्रह्म के स्वरूप को नहीं जान सकते और ना ही इस लोक को समझ सकते हैं। ये जीवन में ज्ञान और प्रेम का उचित संतुलन स्थापित करते हैं। वह संसार में रहकर भी संसार से विरक्त होकर जीना सिखाते हैं। वह पूर्ण गृहस्थ है और महायोगी भी। भौतिक मान्यताओं, रूढ़ियों के भंजक हैं परंतु संपूर्ण साकार अनुशासन भी है, अनुशासित होकर भी नियमों से परे हैं। पार्वती जी को आगम निगम सब समझाते हैं। समस्त अंतर्द्वंदों का, गूढ़ प्रश्नों का पूर्ण समाधान करते हैं। दोनों निरंतर साधना में रत है। सभ्यता के शैशव काल से ही शिव और पार्वती विज्ञान के धरातल पर काल चिंतन करते हैं। ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर बैठकर भौतिक संतुलन एवं जीवन मरण के अनेक रहस्य की खोज कोई महायोगी यति ही कर सकता है। शिव के वचन जीवन के सूत्र है। शिव के हृदय में ना संसार है न वासना, अंधेरा भी नहीं है बस प्रकाश ही प्रकाश है। इसीलिए उनमें सदैव प्रेम, करुणा, साधना और भक्ति विद्यमान रहती है। अंतस के जागरण के लिए हमें शिवत्व की आवश्यकता है क्योंकि चैतन्य अंतस में ही आध्यात्मिक परिवर्तन साकार हो सकता है और तब आचरण ही साधना बन जाती है। प्रत्येक शब्द प्रेम पूर्ण एवं कर्म कल्याणकारी एवं करुणामय हो जाते हैं। वे नारी को संसार की जीवनी शक्ति स्वीकार कर, अर्धनारीश्वर का रूप धरते हैं। स्वयं काल कूट विष पीकर देवताओं को अमृत पीने देते हैं और सर्व कल्याणकारी रूप की स्थापना करते हैं। वह अन्य देवताओं की भांति स्वर्ग में निवास नहीं करते, परम शिव यहीं रहते हैं हम मानवों के साथ, इसी धरती पर कैलाश में, इसीलिए सहज सुलभ है। यहीं साधना करते हुए ध्यान का मार्ग दिखाकर ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग सुझाते हैं। शिव भारतीय जन मानस की आत्मा में बसते हैं। शिव सत् चित् आनन्द स्वरूप है, जो अनादि अनंत और अविनाशी हैं। शिव ही समय भी है अर्थात महाकाल है। एक ऐसे देव हैं जो देव, दानव और मानव सभी में सम्माननीय पूजनीय है। देव दानव और मनुष्यों को समान भाव से स्वीकारते हैं। उपेक्षित जीव और उपेक्षित वस्तुओं को भी अपनाने वाले सर्व ग्राही देव हैं। जो देवों के भी देव अर्थात परम सत्ता है। केवल जल से ही प्रसन्न हो जाने वाले एकमात्र अकेले ऐसे देव जो सहजता और सरलता का पर्याय है साथ ही इतने गूढ़ भी कि उन्हें पाने के लिए हमें स्वयं को पलटना पड़ता है, मन और बुद्धि की गांठे खोलनी पड़ती हैं।
शिव सनातन की आत्मा है, वह समाज में गहरे रचे बसे हैं। मानव जीवन के प्रत्येक प्रसंग को शिव परिभाषित करते हुए जान पड़ते हैं। सहज, सरल, भोले, शिव, तात्विक विवेचना करने वाले परम ज्ञानी हैं। भौतिक संसार में सिमट कर रह जाने वाले शिव को प्राप्त नहीं कर सकते। शिव तो साधना है, ध्यान है, योग है, प्रेम है, पवित्रता है, सरलता है, साथ ही इससे भी परे कुछ पृथक, गूढ़ रहस्य, और परम तत्व है। जो होकर भी नहीं है, वह शून्य है। शिव का एक अर्थ 'वह नहीं है' भी है। जो निर्विकार और निर्गुण है और पांच ज्ञानेंद्रियों से शिवत्व दृष्ट्व्य नहीं है फिर भी है। शिव को समझने का अर्थ है स्वयं का रूपांतरण। योगी शिव भौतिकता से आत्मिकता की ओर, आध्यात्मिक की ओर एवं बाहर से भीतर की ओर यात्रा का संदेश देते हैं, जो शरीर, मन, और बुद्धि से आत्मा की ओर जाने की यात्रा है। यही शिवत्व है। स्वयं को धवल व पवित्र करना ही शिव प्राप्ति का साधन है, इस गूढ़ रहस्य को जान लेना ही शिवयोग है और यही शिवाराधना मोक्ष प्राप्ति का सहज साधन है।
शिवलिंग आध्यात्मिक महत्व
लिंग का आध्यात्मिक अर्थ है प्रतीक एवं प्रमाण। 'लीनम् अर्थम् गम्यति इति लिंगम्'। अर्थात जो लीन अर्थ (निहित अर्थ) को बताएं वह लिंग है यानी चिन्ह है, प्रतीक है। शिवलिंग भी परम ब्रह्म की ज्योति का प्रतीक है। शिव अर्थात सत्य के होने का प्रमाण है और इसी अर्थ में शिवलिंग पूजनीय है। शिवलिंग निराकार सत्य का प्रतीक है। अथर्ववेद में एक स्थान पर स्तंभ का उल्लेख आता है स्तंभ यानी खंबा या अवलंब। एक ऐसी वस्तु जो सहारा देती है, संभालती है जिसके सहारे से कुछ टिकाया जा सकता है। यही स्तंभ कालांतर में शिवलिंग हो गया। शिवलिंग भी ब्रह्म सत्य के अवलंब का प्रतीक है, जिसमें सभी देव अवस्थित हैं। यह निराकार और निर्गुण ज्योति का प्रतीक है। शिवलिंग का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। लगभग ५ से ६००० साल पुरानी हड़प्पन संस्कृति में भी शिवलिंग के अस्तित्व के प्रमाण प्राप्त होते हैं। मोहनजोदड़ो की खुदाई में अनेकों शिवलिंग मिले हैं। शिवलिंग निराकार और साकार दोनों स्वरूपों का एक साथ प्रतिनिधित्व करता है। लिंग की स्थापना यह विवेचना करती है कि किसी एक निर्विकार शक्ति के सहारे ही संसार चल रहा है तथा दूसरे अर्थों में, इसका अर्थ वह पुरुष है जो प्रकृति के बीचोंबीच निर्विकार निश्चल, स्थिर, और शांत बैठा हुआ है। योनी प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती है और लिंग पुरुष का। यही दोनों सृजनात्मक शक्ति है किंतु उनका संयोग ऐसा है कि समग्र प्रकृति के मध्य भी पुरुष अस्पृश्य है, स्थिर है, अचल है और इसीलिए पूजनीय है। निर्गुण के लिए यह निराकार ब्रह्म तथा सगुण के लिए यह प्रकृति और पुरुष की सम्मिलित चेतना का प्रतीक है। जब हम शिवलिंग का पूजन-अर्चन करते हैं तो वास्तव में हम पुरुष की परम चेतना को नमन करते हैं जो प्रकृति के मध्य तो है किंतु अपनी पृथक सत्ता को अक्षुण्ण बनाए रखे हैं। प्रकृति में अर्थात संसार में चेतना का होना तो अवश्यंभावी है। अंततः चेतना शरीर में ही तो वास करेगी न, क्योंकि जीव नहीं तो जीव की चेतना भी नहीं किंतु प्रकृति में होते हुए भी हमारी चेतना शिवलिंग की भांति अटल, स्थिर रहे, राग-द्वेष का कंपन उसे विचलित ना कर पाए, यही शिवलिंग की अवधारणा का वास्तविक स्वरूप है और इसीलिए शिवलिंग पूजन योग्य है। यदि हम शिवलिंग को प्रकृति और पुरुष को समुच्चय माने तो शिवलिंग की भांति हमारी चेतना संसार में स्थित रहकर भी स्थिर रह सकती है यही शिवलिंग का वास्तविक प्रतीकार्थ है।
कालांतर में अनेक लोगों ने शिवलिंग का बहुत अपमान किया है। उन्होंने पवित्र शिवलिंग पर मानवीय अंगों का आरोपण करके, शिवलिंग पर अनेकों ओछी, भद्दी और अनुचित टिप्पणियां की। अशिक्षा और गुलाम मानसिकता के चलते हमारा समाज भी शिवलिंग का सही अर्थ विधर्मियों और विदेशियों को नहीं समझा पाया, परिणाम स्वरूप शिवलिंग के अर्थ का अनर्थ होता रहा और इसके प्रतीक अर्थ को न समझकर अन्य भोंडे और हास्यास्पद तर्कों का प्रचार प्रसार किया गया तथा खेदजनक बात यह है कि कुछ सीमा तक समाज ने भी इसे मान भी लिया। परिणामस्वरूप अध्यात्म अपनी निष्ठा खोकर केवल अंधभक्ति एवं रूढ़िवादिता में विलुप्त हो गया। वास्तव में शिवलिंग संसार के आकर्षण और विकर्षण के बीच संसार में ही अडिग रहना सीखना है। संसार के आवेगों में घिरे हुए भी अपनी चेतना को संसार से विलग रखते हुए अक्षुण्ण रखना ही शिवलिंग का सच्चा पूजन है और शिवलिंग की साधना है।
भारतीय धर्म दर्शन से प्रेरित है और यह दर्शन (विचार) इतना निष्ठावान है कि मानव उसे आत्मसात करते हुए जीता है। भारतीय विचार इतना गहन है कि निर्विचार ही हो जाता है। अतः धर्म का पालन भी विचार से ही होना चाहिए हमारा धर्म केवल एक मान्यता नहीं, अपितु एक तार्किक विचार है, संवेदना है। भारतीय धर्म और दर्शन विश्वास से नहीं तार्किक प्रश्नों पर आधारित है। हमारा धर्म समझते हुए सीखने पर बल देता है। हमें भी शिवलिंग का वास्तविक अर्थ समझना चाहिए, अन्यथा शिवलिंग का पूजन व्यर्थ है।
हमारे वेदों में धर्म को, आध्यात्म को, प्रतीकों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है। यह धार्मिक प्रतीक बहुत गहन आध्यात्मिक अर्थ स्वयं में समाहित किए हुए हैं। इसी प्रकार शिवलिंग का भी बहुत गहरा प्रतीकात्मक और आध्यात्मिक अर्थ है। शिवलिंग देह में चेतना का प्रतीक है। उर्ध्वगामी लिंग चेतना का प्रतीक है जिसे ऊपर और ऊपर उठाते हुए ब्रह्म को पाना है और जलधारी देह का प्रतीक है। चेतना देह में ही तो स्थित है तो स्पष्ट है रहना तो शरीर में ही अर्थात संसार में ही है किंतु शरीर में रहकर शरीर से निर्लिप्त रहना है बिल्कुल जल में कमल की भांति। आत्मा पर अधिकार करते हुए चेतन को पोषित करना है। चेतना को सत्य की ओर प्रेषित करना है। संसार में दृष्टा भाव में रहकर आत्मविश्वास के साथ आत्मा का विकास करना है। मुक्ति की ओर बढ़ना है यही शिवलिंग का आध्यात्मिक अर्थ है।
इस प्रकार शिव की महिमा अनंत है और शिवलिंग के बहुत गहन और गूढ़ प्रतीकात्मक अर्थ है। शिव एकमात्र देव है जिनका देव, मानव और दानव सभी पर अधिकार है संपूर्ण संसार को कामनाओं और राग द्वारा नचाने वाले कामदेव को यह भस्म कर डालते हैं। जो कामनाओं से विरक्त हैं फिर भी समस्त ऐश्वर्या के स्वामी हैं। शिव भौतिक संसार की परंपराओं, रूढ़ियों, सांसारिक अनुशासन, वर्जनाओं, सामाजिक व्यवस्था और सांसारिक ज्ञान से स्वतंत्र हैं किंतु सर्व ज्ञानी अनुशासित और संकल्पवान हैं। जिनके आचरण के बहुत गूढ़ और पवित्र सांकेतिक और मानसिक अर्थ है। शिव न कोई जाति है ना कोई लिंग है। वे न जन्म है न मृत्यु, न धर्म-अधर्म, वह तो राग-द्वेष और पाप -पुण्य से परे, मानव की कल्पना से भी परे संपूर्ण सत्य है, एक विशुद्ध चेतना है, जिसका अवमूल्यन नहीं किया जा सकता। जो संपूर्ण प्रकृति के ज्ञाता होकर भी प्रकृति से बद्ध नहीं है। शिव जीव नहीं अपितु सार्वभौमिक सत्ता हैं । 'निर्वाणष्टकम्' में आदि शंकराचार्य ने शिव का यही परिचय दिया है। वह जीव से संबंधित सभी वस्तुओं को, विषयों को मिथ्या जानकर नकारते चलते हैं, इसीलिए शिव है। वह सद् चित् परमात्मा है जो इस तथ्य को आत्मसात कर पाए उसे ही `शिवोहम' कहने का अधिकार है। शिव का आकार शून्य व ज्योति स्वरूप है और शिवलिंग इसी का प्रतीक है। हमारे भीतर ही शिव बैठे हैं बस स्वयं में स्थित होने की, अंतर यात्रा पर जाने की आवश्यकता है। स्थूल में उलझने वाले शिव को प्राप्त नहीं कर सकते। शिव साधना है, ध्यान है, योग भी है साथ ही इससे परे भी बहुत कुछ है। एक अनंत, असीम, परम सत्ता! जिसमें सारा ब्रह्मांड समाया है, या यूं कहें कि उन्होंने ब्रह्मांड को रहस्य जान लिया है उस पर अधिकार प्राप्त कर लिया है जो सर्वज्ञ हैं, मर्मज्ञ हैं। शिव का स्वरूप इसी बात की पुष्टि करता जान पड़ता है। वर्तमान की एक वैज्ञानिक अवधारणा इस बात की पुष्टि करती है कि ब्रह्मांड में स्थित ग्रह नक्षत्र शिवलिंग के आकार की आकृति बनाते हैं इसके अतिरिक्त ग्रहों के परिक्रमण से ब्रह्मांड में जो ध्वनि उत्पन्न होती है वह भी 'ओम ही' है। चंद्रमा पृथ्वी से बाहर की अर्थात ब्रह्मांड की ही तो वस्तु है परंतु शिव के मस्तक पर विराजमान है। शिव की जटाओं में गंगा है और हम अपनी गैलेक्सी को आकाशगंगा के नाम से ही तो जानते हैं। गले में लिपटे विषधर संसार के जीव जगत और संसार की भयंकर विषमताओं का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, जिन पर शिव को विजय प्राप्त है। उनके तन पर अंग राग की भांति लिपटी भस्म संसार की नश्वरता का उद्घोष करती है कि, आखिर एक दिन संसार की प्रत्येक वस्तु को भस्म हो ही जाना है किंतु फिर भी इस भस्म से पवित्र कुछ भी नहीं। भस्म का एक अर्थ विभूति भी होता है जिसका अर्थ है कि संसार की सभी विभूतियां शिव से लिपटी है।
शिव संपूर्ण भौतिक विषमता और समरसता को स्वयं में समेटे हुए ऐसे पूर्ण पुरुष है जिनमे ब्रह्म समाहित है संसार का सार और सत्य समाविष्ट है जिनसे परे कुछ भी नहीं। सब कुछ स्वयं शिव है सब कुछ स्वयं शिव में ही स्थित है फिर चाहे वह इहलोक हो या परलोक, राग हो या वैराग्य, ज्ञान हो या मोह सब शिव के भीतर ही है फिर भी भीतर कुछ नहीं, प्रकाश के अतिरिक्त, केवल और केवल प्रकाश। शिव साक्षी हैं उस अलौकिक ज्योति के, परम ब्रह्म के, परम सत्य के जिसे जानने को, पाने को संपूर्ण जगत व्याकुल है, निरंतर प्रयासरत है। शिव ब्रह्मांडीय सत्ता का मूर्त रूप है और शिवलिंग ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत, जो ब्रह्मांड की संपूर्ण ऊर्जा एवं शक्ति को स्वयं में समाहित किए हुए हैं।
सीमा तोमर