दादूराम का सरोंता

This story revolves around Daduram from Patera village and his cherished saronta, a symbol of pride and honor. Through his participation in India’s freedom struggle, his torture, escape, and the village’s unwavering courage in protecting his identity, the narrative beautifully portrays sacrifice, unity, and resilience during British rule. It is a poignant reminder of the silent heroes of India’s independence. यह कहानी पटेरा गाँव के दादूराम और उनके प्रिय सरोंते की है, जो सिर्फ एक वस्तु नहीं बल्कि सम्मान और स्वाभिमान का प्रतीक था। अंग्रेजी शासन के खिलाफ आंदोलन में कूद पड़े दादूराम पर हुए अत्याचार, उनकी गिरफ्तारी, पलायन और गाँव वालों द्वारा उनके सरोंते का भेद न खोलने के साहस को यह कथा जीवंत करती है। यह कहानी स्वतंत्रता संग्राम, गाँव की एकजुटता और बलिदान की मार्मिक झलक प्रस्तुत करती है।

Nov 15, 2025 - 14:22
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दादूराम का सरोंता
Saronta

जेठ की दुपहरी में पटेरा गांव में सन्नाटा पसरा है। लोग अपने अपने घरों में दुबके हैं भीषण गरमी से बचने के लिए। खेती किसानी भी इन दिनों ठंडी रहती है, कोई फसल तो है नहीं खेतों में, बस सम्हाल कर रखा हुआ ही अनाज खा रहे है किसान। नून तेल गुड़ महाजन से उधार मिल जाता है, फसल आने पर चुकता हो जाता है। महाजन दयालु है, रात विरात कोई बीमारी आ जाए, शादी व्याह हो जाए, मौत मरण हो जाए, मवेशी मर जाए या फसल चौपट हो जाए, महाजन आधी रात भी खड़ा होता था दरवाजे पर मदद के लिए। 
कुछ जवान लोग जरूर स्कूल के सामने बने चबूतरे पर पड़ के नीचे छाया में दो तीन कलतान बिछाकर ताश खेल रहे हैं। बीच बीच में बीड़ी, चाय का दौर भी चल रहा है, शायद उससे गर्मी से राहत मिलती हो। दादूराम हालांकि ताश वगैरा नहीं खेलते,पर लोगों के बीच बैठना उन्हें अच्छा लगता है। इसलिए वो भी वहां बैठकर लोगों के साथ आनंदित हो रहे हैं और कभी अपने खींसे से सरोंता निकालकर सुपारी कतरकर खा लेते हैं। उनका यही नशा है । 
दादूराम का सरोंता गांव में ही नहीं आसपास के गांवों में भी प्रसिद्ध था। कहते हैं कि एक बार ग्वालियर के राजा इधर के जंगलों में शिकार करने आए थे, और वे किसी मुसीबत में फंस गए थे जंगल में। तब दादूराम ने उनकी बहुत सेवा की थी। जाते हुए वे दादूराम को अपना सरोंता भेंट में दे गए थे। ये सरोंता ऐसा वैसा नहीं था, पीतल का नक्काशीदार  सरोंता था,  उससे इतनी महीन सुपारी कतरती है कि पूछो मत। तब से दादूराम इस सरोंते को जान से ज्यादा संभालकर रखते थे। गांव में किसी के यहां भी लड़की देखने वाले आएं, या कभी स्कूल में बड़े अधिकारी आएं, या ठाकुर के यहां शहर से कोई मेहमान आए हों, दादूराम का सरोंता तो सबसे पहले मंगाया जाता, रुतबा झाड़ने के लिए। लेकिन दादूराम की शर्त थी कि वो सरोंता ऐसे किसी के साथ नहीं भेजेंगे, खुद लेकर जाते थे ।
ये दौर था जब अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध गाँव-गाँव शहर-शहर विरोध की लहर उठ रही थी। खुले आम तो ज्यादा दिखता नहीं था पर उस गाँव से भी कुछ लोग चुपचाप शहर निकल लिए थे, गांधी जी के आंदोलन में शामिल होने के लिए। दादूराम ने भी एक झोला उठाया, दो चार कपड़े डाले, सरोंता जनेऊ में लटका लिया और उनके साथ निकल गए । 
कई दिनों तक कोई खबर नहीं आई, एक दिन पता चला कि इन लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया था। दादूराम अपने एक साथी के साथ जेल से भाग गए, और इस जंगल उस जंगल, पता नहीं कहां कहां छिपते छिपाते खाक छानते रहे ।
दादूराम तो नहीं आए, पर उनका साथी गांव में आया और कई महीनों तक छुपा रहा। वही बताता है कि अंग्रेजों ने इन लोगों के साथ कितने अत्याचार किए थे। मारा पीटा, करेंट लगाया, भयानक प्रताड़ना दी, कई दिनों तक भूखा रखा, और पता नहीं क्या क्या जुर्म ढाए, कोई गिनती नहा।
एक रात दादूराम रात को एक बजे बदहवास हालत में गांव में आए, जल्दी जल्दी रूखा सूखा जो भी था घर में, खाया और जल्दी से घर के अनाज कोठार में छिप गए, पुलिस जो पीछे लगी थी । 

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सुबह होते ही पुलिस की गाड़ी आने की खबर गांव में फैल गई। दादूराम फुर्ती से पीछे दरवाजे से भागते हुए जंगल में निकल गए। पुलिस आई और पूरी तलाशी ली, पीछे  खलिहान भी गए तो दादूराम तो नहीं मिले, वहां उनका सरोंता जरूर मिला, शायद भागते हुए गिर गया था। 
पुलिस ने उसे लेकर घर वालों से आस पड़ोस से कड़ी पूछताछ की, कि बताओ ये सरोंता किसका है,पर किसी ने चूं भी नहीं की। तब पुलिस ने आव देखा न ताव, दनादन लाठी बरसानी शुरू कर दी, जो सामने आया, बुरी तरह पिटा। किसी को नहीं छोड़ा, बच्चे, बुजुर्ग सभी को बहुत मारा। कइयों के तो खून भी बहने लगा, पर मजाल जो किसी ने बताया हो सरोंता के बारे में । 
पुलिस थक हर कर चली गई, सरोंता भी साथ ले गई ।
जंगल में छिपे दादूराम को अपने भेदिये से जब ये सब खबर मिली, तो बहुत दुखी हुए, सरोंता के खो जाने से तो पहले ही बहुत टूट से गए थे।  लेकिन जब उन्हें पता लगा कि घर, गांव के लोगों ने उनके लिए कितनी मार सही, लेकिन सरोंता का भेद नहीं खोला, तो वे दुखी तो बहुत हुए पर एक संतोष की झलक थी कि अब देश स्वतंत्र हो जाएगा ।
कुछ सालों में देश स्वतंत्र हो गया, पर दादूराम की फिर कोई खबर नहीं मिली ।

प्रकाशचंद्र जैन 

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