महान विभूति पंडित गोविंद बल्लभ पंत

हमारे देश को स्वतंत्र हुये ७७ वर्ष पूर्ण हो गये हैं। लेकिन मूल एवं महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि स्वाधीनता संग्राम में जिन महापुरुषों ने देश की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया उनसे क्या हम प्रेरणा लेते हैं और उनके किन विचारों को ग्रहण करते हैं? आज के अर्थ प्रधान और सामाजिक संघर्ष के युग में उन महापुरुषों को याद भी करते हैं या नहीं। यह प्रश्न स्वयं व्यक्ति के लिए और राष्ट्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। आज की व्यस्त जीवन शैली में कुछ पल ऐसे आते हैं जब हम निराशा में डूबे हो तब क्षण भर की प्रेरणा अंधकार में हमें रोशनी देती है। इसीलिए महापुरुषों का जीवन, उनके विचार, उनके कार्य हमारा मार्गदर्शन करते हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्ति और विशिष्ट गुणों के कारण ही महान बनता है और सम्मानित होता है। फिर क्यों न हम उनकी महानता के कारणों का पता लगायें और उन विशिष्ट गुणों को अपनाने की चेष्टा करें।
भारत की रत्नगर्भा भूमि में समय समय पर ऐसे बहुमूल्य रत्नों का जन्म हुआ है जिनकी सेवा और समर्पण की भावना से पूरा देश लाभान्वित हुआ है। १९वीं सदी के उत्तरार्ध में विशेष रूप से ऐसी पीढ़ी का भारत में जन्म हुआ जिन्होंने राजनीति, साहित्य और धर्म के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये हैं। उन्हीं महापुरुषों में पंडित गोविंद वल्लभ पंत का नाम सहज ही हमारे मस्तिष्क में आ जाता है जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अविराम संघर्ष किया और भारत के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया।
महान देशभक्त, प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ और आधुनिक उत्तर प्रदेश के निर्माण की आधारशिला रखने वाले पंडित गोविंद वल्लभ पंत का जन्म १० सितम्बर १८८७ को उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले के खूंट गॉव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था जिस दिन इनका जन्म हुआ था उस दिन अनंत चतुर्दशी थी इसलिए वह अनंत चतुर्दशी के दिन ही अपना जन्मदिन मनाते थे। उनके पिता का नाम मनोरथ पंत और माता का नाम गोविन्दीबाई था। पिता जी की सरकारी नौकरी होने के कारण समय समय पर स्थानान्तरण होते रहते थे जिसकी वजह से इनको भी अलग अलग शहरों में परिवार के साथ जाना पड़ता था। इन्होंने अपने नाना जी बद्रीदत्त जोशी के पास रहकर प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। इनके जीवन को यदि सबसे अधिक किसी व्यक्ति ने प्रभावित किया तो वो उनके नाना जी बद्रीदत्त जोशी थे जो एक क्रांतिकारी भी थे। गोविंद ने १० वर्ष की आयु तक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की। मेधावी गोविंद ने लोअर मिडिल कक्षा की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इण्टरमीडिएट की पढ़ाई तक अल्मोड़ा में ही रहे।
इसके पश्चात् उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। गणित, राजनीति और अंग्रेजी साहित्य के विषयों के साथ उन्होंने बीए की परीक्षा पास की। इलाहाबाद में आचार्य नरेन्द्र देव और डॉ. कैलाश नाथ काटजू उनके सहपाठी थे। विश्वविद्यालय में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान प्राध्यापक जैनिंग्स, कॉक्स, रेन्डेल, ए.पी. मुखर्जी जैसे महान विद्वान भी थे। इलाहाबाद उन दिनों राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था और नवयुवक गोविंद को पं जवाहरलाल नेहरू, पं मोतीलाल नेहरू, सर तेजबहादुर सप्रू, श्री सतीश चन्द्र बनर्जी जैसे विख्यात राजनेताओं का सानिध्य तो मिला ही साथ ही राजनीतिक चेतना से ओतप्रोत वातावरण भी मिला।
सन् १९०५ में वह बनारस में कांग्रेस के अधिवेशन में स्वयंसेवक के रूप में सम्मिलित हुये थे। उस सभा में गोपाल कृष्ण गोखले के भाषणों से ये इतना मंत्र-मुग्ध हो गये कि उन्हें अपना राजनीतिक गुरु बना लिया और उदारवादी विचारधारा को अपना लिया।
सन् १९०९ में गोविंद वल्लभ पंत कानून की परीक्षा में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त होने के कारण ‘लम्सडैन’ स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। वकालत की परीक्षा पास करने के बाद गोविंद वल्लभ ने कुछ दिन तक अल्मोड़ा और रानीखेत में वकालत करने के बाद काशीपुर, नैनीताल को अपनी कार्यस्थली बनाया। पंत जी की वकालत की काशीपुर में धाक थी। उनके मुकदमा लड़ने का ढंग बहुत अलग था, जो मुवक्किल अपने मुकदमों के बारे में सही जानकारी नहीं देते थे, पंत जी उनका मुकदमा नहीं लड़ते थे। काशीपुर में वकालत के साथ-साथ वह सार्वजनिक कार्यों में अधिक सक्रिय हो गए। उनके अथक प्रयासों से ‘कुमाऊँ परिषद’ की स्थापना हुई। उन्हीं के कारण काशीपुर राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक जागरुक था। ब्रिटिश सरकार ने काशीपुर नगर को काली सूची में शामिल कर लिया था। पंडित जी सक्रियता के कारण ही अंग्रेज सरकार काशीपुर को गोविंदगढ़ कहती थी। सन् १९१४ में काशीपुर में ‘प्रेमसभा’ की स्थापना उनके प्रयासों से ही हुई थी। इस सभा का उद्देश्य शिक्षा और साहित्य के प्रति जनता में जागरूकता पैदा करना था लेकिन ब्रिटिश शासकों को यह सन्देह हुआ कि समाज सुधार के नाम पर इसमें आतंकी गतिविधियों को प्रोत्साहन दिया जाता है। उन्होंने सभा को हटाने के भरसक प्रयास किये किन्तु वे सफल नहीं हो पाये। इस संस्था के कार्य इतने व्यापक थे कि ब्रिटिश स्कूलों को ही वहाँ से हटना पड़ा। पंडित के प्रयासों से १९१४ में ‘उदयराज हिन्दू हाईस्कूल’ की स्थापना हुई।
पंडित गोविंद वल्लभ पंत का पहला टकराव ब्रिटिश सरकार के साथ ‘व्ाâुली बेगार प्रथा’ को लेकर हुआ। कुली बेगार प्रथा उत्तराखण्ड में बहुत पहले से ही विद्यमान थी। सन् १८१५ में अंग्रेजों का जब उत्तराखण्ड पर अधिकार हो गया उसके बाद कुली बेगार प्रथा के द्वारा यहाँ के लोगों पर अत्याचार और भी बढ़ गया। यह वह प्रथा थी जिसमें जब कोई ब्रिटिश अधिकारी एक गाँव से दूसरे गाँव जाता था तो वहाँ के लोगों से निःशुल्क कुली का कार्य करवाया जाता था। १९१३ में कुली बेगार यहाँ के निवासियों के लिए अनिवार्य कर दिया गया। इसका हर जगह विरोध हुआ। पं गोविंद वल्लभ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, विक्टर मोहन जोशी और श्याम लाल शाह आदि के सामूहिक प्रयासों से अलग-अलग गाँवों से आये लोगों की भीड़ ने इसे विशाल प्रदर्शन में बदल दिया। चालीस हजार लोगों की भीड़ ने शंखध्वनि और भारत माता की जय के नारों के बीच कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित कर दिया। इसप्रकार यहीं से इस कुप्रथा का अंत हो गया।
सन् १९१६ में गोविंद वल्लभ पंत काशीपुर की ‘नोटीफाइड एरिया कमेटी’ में शामिल हो गए। उसके बाद वह इस कमेटी की शिक्षा समिति के अध्यक्ष बने। कुमाऊँ में सर्वप्रथम निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने का श्रेय भी गोविंद वल्लभ पंत को ही जाता है। राष्ट्रीय आन्दोलन के समय उन्होंने कुमाऊँ को अहिंसा के आधार पर संगठित करके राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व किया।
रोलेट एक्ट के विरोध में १९२० में जब महात्मा गाँधी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो गोविंद वल्लभ पंत वकालत छोड़कर आन्दोलन में शामिल हो गए और पूर्ण रूप से राजनीति में उतर गये। कुमाऊं में राष्ट्रीय आन्दोलन की शुरुआत उन्हीं के नेतृत्व में महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे कुली उतार, जंगलात आन्दोलन, स्वदेशी प्रचार और विदेशी कपड़ों की होली तथा लगान बंदी आदि को उठाया गया। पं नेहरू और मोतीलाल नेहरु के सम्पर्क में आने के कारण स्वराज्य पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सन् १९२३ में वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद के चुनाव में विजयी हुये। ९ अगस्त १९२५ को उ.प्र. के काकोरी में कुछ क्रांतिकारियों के द्वारा सरकारी खजाना लूटा गया था तो उनके मुकदमे की पैरवी के लिए अन्य वकीलों के साथ गोविंद वल्लभ पंत ने हर सम्भव सहयोग किया। उस समय वह नैनीताल से स्वराज् पार्टी की ओर से लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य थे। १९२७ में राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और रोशन सिंह को फांसी की सजा से बचाने के लिए उन्होंने वायसराय को पत्र भी लिखा था। लेकिन महात्मा गांधी का समर्थन न मिल पाने के कारण इस कार्य में सफल नहीं हो सके।
१९२७ में साइमन कमीशन का बहिष्कार करने के विरोध में हुये लाठीचार्ज से उनकी कमर पर गहरी चोट लगी लेकिन देशसेवा के लिए उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई।
सन् १९३० में सविनय अवज्ञा आन्दोलन (नमक सत्याग्रह) में भाग लिया। सन् १९२१, १९३०, १९३२ और १९३४ के स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय आन्दोलनों में गोविंद वल्लभ पंत लगभग ७ वर्षों तक जेल में रहे। वह सुभाषचंद्र बोस के भी घनिष्ठ मित्र थे।
गाँधी जी और सुभाष चन्द्र बोस के विचारों में मतभेद होने पर पंत जी ने सुभाष चंद्र बोस के विचारों का समर्थन किया। उन्होंने अपने राजनीतिक कौशल और तार्किक बुद्धि से तत्कालीन राजनेताओं के दिल में अपना विशेष स्थान बना लिया और विधानसभा में कांग्रेस पार्टी के उपनेता भी बने। जुलाई १९३७ से नवम्बर १९३९ तक वह ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रांत अथवा उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने। इसके बाद उन्हें दूसरी बार भी यह शासकीय दायित्व सौंपा गया और १ अप्रैल सन् १९४६ से १५ अगस्त सन् १९४७ तक संयुक्त प्रांत अर्थात उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने रहे। जब देश स्वतंत्र हुआ और उसका अपना संविधान बना तब पं गोविंद वल्लभ पंत के प्रयासों से संयुक्त प्रांत का नाम बदलकर उत्तर प्रदेश रखा गया और तीसरी बार सर्वसम्मति से मुख्यमंत्री पद के लिए इनका नाम प्रस्तावित किया गया। इस प्रकार २६ जनवरी १९५० से २७ दिसम्बर १९५४ तक उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने रहे।
भूमि सुधारों में पंत जी ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए। उन्होंने २१ मई १९५२ में जमींदारी प्रथा उन्मूलन कानून को प्रभावी बनाया। अपनी प्रशासनिक कुशलता और न्यायिक सुधारों से सबसे अधिक जनसंख्या वाले प्रदेश को स्वस्थ प्रदेश बना दिया।
पंत जी की महान उपलब्धियों में हिंदू कोड बिल पारित करवाना और हिंदू पुरुषों के लिए एक पत्नीत्व को अनिवार्य बनाना था। उन्हीं के प्रयासों से हिंदू महिलाओं को तलाक और वंशानुगत सम्पत्ति के उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त हो सका।
भारत के प्रथम गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु के बाद पंत जी भारत सरकार में गृह मंत्री बने। गृहमंत्री के रूप में भारत को भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन करना और हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है।
पंडित गोविंद वल्लभ पंत के व्यक्तित्व का आश्चर्य जनक पहलू यह भी है कि वह बहुत अच्छे नाटककार भी थे। उनका ‘वरमाला’ नाटक जो मार्कण्डेय पुराण की एक कथा पर आधारित है, जो बहुत ही निपुणता से लिखा गया उत्कृष्ट नाटक है। मेवाड़ की पन्ना धाय के अलौकिक त्याग के ऐतिहासिक वृत को लेकर इन्होंने ‘राजमुकुट’ की रचना की।
देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ देने की परम्परा भी उनके कार्यकाल में शुरू की गई थी। सन् १९५५ से लेकर १९६१ तक अर्थात अपनी मृत्युपर्यंत भारत के गृहमंत्री के रूप में कार्य करते रहे। ७ मार्च १९६१ को हृदयाघात से उनका देहावसान हो गया।
भारत के गृहमंत्री के पद पर आसीन रहते हुये गोविंद वल्लभ पंत को उनके मुख्यमंत्री और स्वतंत्रता आन्दोलन में उनके महान योगदान के लिए २६ जनवरी १९५७ को भारत के सर्वोच्च नागरिक अलंकरण ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। महान देशभक्त, राजनीतिज्ञ और आधुनिक उत्तर प्रदेश के निर्माता पं. गोविंद वल्लभ पंत की स्मृति में विभिन्न स्मारक एवं संस्थान स्थापित किये गये हैं जिनमें गोविंद वल्लभ पंत कृषि एवं प्रोद्योगिकी विश्वविद्यालय, गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, झूंसी, प्रयागराज, पंतनगर, उत्तराखण्ड, गोविंद वल्लभ पंत अभियांत्रिकी महाविद्यालय पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड, गोविंद वल्लभ पंत सागर सोनभद्र, उ.प्र., पं. गोविंद वल्लभ पंत इण्टर कालेज काशीपुर, उधमसिंह नगर, उत्तराखण्ड आदि हैं।
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